Jul 23, 2013

मैडम को इशक हुआ है

कलुआ, हरिया, बनिया चाचा

ददुआ काका सबे इहे कह रहे हैं
दिन में चार बार सब इहे बतिया रहे हैं
टीवी रेडियो को छोड़ बाकी
सबे जगह एके नीवुज़ है
मेडम को इशक हुआ है
मेडम को परेम हुआ है .....

बचपन से सूरज भगवान से
आँख मिचन खेलन वाली
दस बजे तक सुतने वाली
मेडम जी सूर्य प्रणाम कर रही हैं
सुबह सुबह उठ योग पाठ कर रही हैं
मंदिर के आँगन में घंटों बैठ रही है
मैडम को कहीं परेम तो नहीं होई गवा है

छन में तैयार होने वाली मैडम
आज कल घंटों लिपस्टिक लगाती है
रुए के ढेला से गालों पर पाउडर लगाती हैं
रूखे सुखे बालों पर रंगाई कराती है
पसीने सुखा सुखा मजमुआ इत्तर लगाती हैं
शीशे में बार बार खुद को निहारती हैं
खुद को खुद ही देख मंद मंद मुस्काती है
ह्म्म्म ... लगता है मैडम को इशक हुआ है

सबेरे से साड़ी की दुकान अलमारी से निकाल कर
घंटों सोच सोच अब, र दिन नयी सी साड़ी पहनती है
बेलाउज को इस्त्री कर-कर सीधा सीधा सजाती हैं
प्लास्टिक के पाकेट में टिफिन ले जाती थी तब
अब सत्यपाल के परस में टिफिन ले जाती है
सीधे सपाट सैंडल वाली मैडम हाई हिल में लचकती है
नाज़ुक अपनी कमरिया को अब और थोडा लचकाती है...
ह्म्म्म ... लगता है मैडम को इशक हुआ है

मोहल्लों के छोरो के हरकत   तो
मैंने यूँ ही जहाँ से न लगाया था
चाचा काका की बातों को हवा में उडाया था
पर जब से जहाँ में ये सवाल आया है कि
मैडम का कहीं दिल आया है ...
मैडम को कहीं इशक हुआ है  
तब से दिल अपना खुशी से भर आया है
बड़े चाव से प्रेम हमने मैडम से किया था
घर के सभी लोगों से झगड, व्याह हमने किया था
जान दे सकते कहीं हम इनके कहने पर
अब इनके चलते जान हम दे आते हैं
सुख का संसार सोच हम व्याह रचाए थे
चार छे नान-वार के सपने हम भी सजा आये थे

जब से वो जिंदगी में आई हैं
सुख संपत्ति सब ने हमे से ली विदाई हैं
रिश्तों ने हमे कब से ठुकराई है
इस से अच्छा तो वो हमसे रुसवाई ले
छोड़ हमे कहीं और किसी को रुसवाई दे
अच्छा है, सु-समाचार है
लिपस्टिक पाउडर का खर्चा भी हम उठाएंगे
साडी भी महीने में दो चार और ला जायेंगे
सारी कायनात से इशक उनका मुक्कमल करायेंगे
सुखद ये समाचार है
मैडम को कहीं और इशक हुआ है  
कुछ पल हम संग मेहमान है
बाद में तो कोई और परेशान है

सुखद ये समाचार है... मैडम को कहीं और इशक का बुखार चढा है  

Jul 22, 2013

चूडियाँ....

रिश्तों को अचानक टूट जाना, और टूटे ख्वाबों के सहारे जिंदगी जी
जाना कितना कुछ सीखा जाती है जिंदगी .... ऐसे ही याद में कुछ लम्हे....




बक्से पर जमी धुल को
कपडे के टुकड़े से झाड रहा था
कुछेक पल माझी के
शांत नरम गोद में सर रख
जीना चाहता था....

धुल थी कि हटना ही नहीं चाहती,
तह ब-तह परत पड़ी थी माझी की
बहुत कोशिश की तब सन्दूकचे
की तह दिखाई दी...

छोटे से ताले ने तो जैसे
कमान ही थाम ली थी
बक्से की हिफाजत में
ताले का नंबर याद नहीं आ रहा था
शायद उनके जनम दिन का कोड था
लगाया, तो बेमन से ताला खुल गया

बहुत कुछ संजोये रखा था हमने
इस छोटे से बक्से में
माझी के पन्नों के
एक एक  कर कई हिसाब थे
धुल की परतों की तरह ....
तह ब-तह ..कई किस्से थे समेटे हुए..

बक्से को खोला, तो ऊपर ही रखा
एक स्कार्फ था  तुम्हारा,
सफ़ेद कपडे पर, गुलाबी लखनवी कढाई में
लखनउ से लाया था,
हाथ में लिया तो लगा जैसे
आज भी गीले हैं तुम्हारी खुश्बूवों में नहाई
आज भी नर्म हैं तुम्हारी गालों की छुवन सी..

स्कार्फ को होठों से लगाया
एक चुम्बन ली,
चूमना, बहुत भाता था हमे
खोया था कि शीशे सी कुछ गिरने कि आवाज़ आई
देखा...
चूड़ी थी तुम्हारी...
टूट गयी थी .. बहुत प्यार से आज भी इन्हें समेट रखा हूँ...

फर्श पर गिरे कांच के चूड़ी को
हाथ में उठाया, हाँ तुम्हारी ही चूड़ी थी
हरे रंग की सावन की चूड़ी..
चारमिनार के चूड़ी बाजार से लाया था
तुम्हारे काये से खिलती
उन पर शीशे के बूंदे थी.

हरे रंग की साड़ी पर हरी चुडीयाँ पहनी
इठलाती बड़ी खूब लग रही थी
हमारी सालगिरह थी उस दिन
याद है, मंदिर से लौट कर
हमने बहुत प्यार किया था
चूडियों की खनक
पायल के बूंदों से जुगलबंदी करती
मन मोह जाता था

प्यार के उस हसीं पल में
जोरा- जोरी में
कुछ चूडियाँ टूट गयी थी
बच्चों सी लड़ी थी, तुम उनके टूटने पर
नया दिलाने की कसम ली,
तब मानी थी तुम ....
टूटना या तोडना तुम्हे पसंद न था ...
हाँ, तोडना कुछ भी कहाँ पसंद था तुम्हे कभी...

जिंदगी के कई पन्ने रुखसत हुए
न जाने कब, हरी चूडियों ने सुर्ख रंग ढाल लिया
किसी अनजान से तुम्हारा मेल हुआ
और तुम सब कुछ छोड़,
सारे कसमे तोड़,
चूडियों सी तोड़ मुझे
बिस्तर के बुझे सिलवटों के
सहारे छोड़ चली गयी
तोडना पसंद न था तुम्हे
रिश्ते कैसे तोड़ गयी तुम....

टूटे उस चूडियों को
यादों में लपेट
आज भी तुम्हारे साथ
जीए पलों को जीता हूँ
हरी चूडियों सा,
अधियारे कमरे के इस संदुकची में
अपने यात्रा की अंत का आस देखता हूँ
हरी टूटी चूडियों से खुद को टुटा पाता हूँ.....
हरी टूटी चूडियों से खुद को टुटा पाता हूँ....
 

Jul 18, 2013

पायदान...

Image Credit: www.123rf.com
सफलता की सीढियाँ चढते चढते हम भूल जाते है योगदान उन खास लोगो कि जिन्होंने हमे अपने पायदान पर कदम रखना सिखाया था. सर आसमान को ताकता है और पग मंजिल को अग्रसर रहते हैं , पर हम भूल जाते हैं एक बार रुक अपने उस आका को सलाम करना जिन्होंने हमे पायदानों पर चलना सिखाया था ...  


कटीली पगडंडियों से चल,
आज तुम
चढ रहे हो
सफलता की सीढियां..
अट्टहास करते,
हाथों को मेलते,
नभ सर को छुए,`
अडिग पग से,
राहगीरों को छोड़.
एक दंभ,
एक अभिमान मन में पाले.....
चढ़ रहे हो
पायदान पर पायदान...

चढते रह तू
पायदान पर पायदान...
याद कर कि
पहली कुछ पायदानें  
हमने ही बिछायी थी
तुम्हारे लिए

Jul 17, 2013

प्रतिबिम्ब....




ऐसा क्यूँ होता है कि मन के मर्म को, मन के वेग को लोगों
संग बांटना कमजोरी की पहचान समझी जाती है?



गहरे नीली अथाह
समुन्दर
और,
गर्भ से जन्मित  
उफनती लहरें......
मदमस्त
वेग से ऐठें
आती और
टकरा जाती
साहिल से.....
निस्नाबुत कर खुद
शांत लहरे  
गर्भ में समां जाती
सागर को शांत कर..

साहिल,
खुद को वेग में ढाक
मदमस्ती में नहा
पल भर
मुस्काती
और
चिढाती
अथाह जलश्रोत को :
निर्बल – दुर्बल- अशक्त,
सागर, कहाँ तेरा रक्त?

सुन साहिल की कटाक्ष...
रुधित,
विषाद,
ह्रद-खंडित,
सागर
डूब गया अपने ही
अथाह गर्भ में,
सोचता  
माना था कहीं उसने ही
साहिल को अपना
प्रतिबिम्ब.....  

कोहरा...

बिन धेय्य के शब्दों का रेला,  कुछ मंज़र यूँ छोड़ जाते है .... आस पास एक निष्क्रियता की कोहरे छोड़ जाती है... वातावरण धूमिल कर जाती है ...नीरस जीवन दे जाती है.....
हाँ नीरस सा......  


शब्दों भरी झंझा  (बरसात)
शब्द...
नन्ही सी  
मोतियों सी  
कुछ  स्थूल तो
कुछ  सूक्ष्म
बरसे थे बूंदे  

बूंदों के ये रेले रुके
तो,
सर्द सुबह वो  
कोहरे ओढ़ आये   
धूमिल हो उठा
सारा जहाँ....
ओझल जहाँ