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बहुत दिनों बाद आया हूँ अपने प्यारे शब्दों के चौपाल पर. आया तो पूछ ही लिया इसने भी.. "भूल गए थे मुझे..." न, बिलकुल नहीं, कैसे भूल सकता हूँ अपने प्यारे से चौपाल को. बीच-बीच में आ कर कुछ पुराने यादें ताज़ा कर लिया करता था, पर हाँ, कुछ लिखा नहीं था. हाँ, आखिरी बार कुछ लिखा था 2016 के नौवें महीने में, जब ज़िन्दगी से कुछ बंधा बंधा सा था मैं. बंधुवा ज़िन्दगी (बंधुवा ज़िन्दगी), हाँ यही आखरी व्यथा थी जिन्हे, मैं शब्दों में ढाल कर और उलझ गया था. उस दिन कुछ ऐसे ही शब्द थे..
.... "अंतर्मन की आवाज़
तब सुनाई दी..
“क्यूँ रहे हो भाग?”
“किस से जितना है तुम्हे?”
“ढूंढ क्या रहे हो?”
जवाब में था बस,
एक द्वन्द का..
एक भ्रम से भरी...
शोर भरी ख़ामोशी...
हलक में औंधे पड़े थे कई शब्द..."
यहाँ आया हूँ आज तो, इन प्रश्नों के कोई जवाब मिल गए हो ऐसा नहीं है... प्रश्न आज भी वही हैं शोर आज भी ख़ामोशी से औंधे शब्दों संग पड़ी है. बहुत कुछ बदला नहीं है तब से आज तक...
ज़िन्दगी ने सौगातों से मेरा दामन भर दिया था... इतने सौगात थे की हर दिन, हर पल उन सौगातों पर लगायी परते खोले, उन्हें महसूस किया, उन्हें टटोला, उनके संग जिया। हर पल कुछ नया सा था, हर दिन कुछ नया सा था. जब ऊपर के शब्द गढ़े थे, हलकी बहती हवाओं ने आहिस्ते आहिस्ते आंधी का रूप धर लिया. फिर बहा ले गए. परिवार, स्वास्थ्य, नौकरी, शांति सब कुछ अपने संग ले गए. अनायास से आये ज़िन्दगी के इन सौगातों को एक वीर सैनिक के तरह लड़ता गया. हारा नहीं था मैं, हारता भी किस से, अपनी प्रेयसी सी ज़िन्दगी से? शिकायत भी किसे करता, जिसकी सौगात थी, उससे? लड़ रहा था, झुकना मंज़ूर नहीं था. ज़िन्दगी भी शायद थक गयी थी मुझ से हार हार कर. रहा नहीं गया तो शतरंज के खिलाड़ी ने अपने तरफ से सबसे बड़ा खेल खेल गया... मेरी ज़िन्दगी के नगीने पर चाल चल दी... हार गया मैं, नगीने सी मेरी माँ को छीन कर ज़िंदगी ने महाकाल को भेंट कर दिया...माँ को भाव भीनी विदाई मेरे बस में नहीं था... शतरंज के खांपे में और भी बहुत कुछ हैं और सौगात और ढेरों से हैं....शिकायत नहीं है कोई ज़िन्दगी से, खुशियां जितनी मिली हैं, गम भी मिले हैं , मुस्कुराया हूँ तो शिकायत भी की है, दुश्मन बने हैं तो प्यारे दोस्त भी हैं, कारे बदरा गरजे हैं तो रंग भी मिले हैं.. शिकायत नही है कोई तुझसे ये ज़िन्दगी ....
सौगातों के अदला बदली में कोई साथ रही तो मेरी संगिनी सोना. दुःख में हो, सुख में हो, आज भी वैसे ही साथ बनाये रखा, मिले भी उनसे अच्छी शाम भी गुज़री। हमेशा सबसे पहले वो ही होती जिनके पास दौड़ कर चले जाता नए सौगातों की गाथा सुनाने, अच्छा लगता है जब साथ रहती है...
ज़िन्दगी के रंग, कभी लाल, कभी नीले ,कभी पीले तो कभी हरे...आगोश में ले लेना ही सीखा है मैंने... हाँ, कभी रुक कर टूट जाता हूँ फिर टेढ़ी पीठ को सीधा कर खड़ा भी हो जाता हूँ... रंगों के रेला ने भी तो यही सिखाया है.. और, आज तो रंगों का त्यौहार है.. आज होली है... होली के इस पावन दिन पर, एक बार, फिर शब्दों के ताने बाने बुनने का मन बनाया हूँ.. फिर चौपाल संजोयगे अपने शब्दों से, फिर जागेंगे अपने किरदार... फिर कुछ बातें होंगी... एक बार फिर लौटा हूँ.
तब तक होली के रंग से सराबोर हो आपकी ज़िन्दगी...