गर्मी के छुट्टियों मे जब भी ननिहाल जाता, गर्मी के लू भरी दुपहरिया मैं भी पतंग उड़ाने से बाज नहीं आता. इतना पतंग उड़ाते की गर्मियों से जब मैं बिहार से वापस अस्सम अत तों लोग पूछते की कहते हैं सांवले पर दूजा कोई रंग नहीं चढ़ता है... पर तुम्हे देख कर नहीं लगता की ऐसा कुछ होता भी है... मैं और काला हों कर आता. बहुत मजा आता था पतंग उडाने मे. जेठ के दुपहरिया मैं लू से परेशां हों कर परिवार वाले जब पंखे के नीचे सोये हुए होते तों हमारे लिए ये सबसे अच्छा मौका होता... बस मंडली अपने अपने घरों से चुप चाप निकल आते. मिलने के बाद हिसाब किताब होता की किसके “हुचके” (भोजपुरी मे फिरकी को कहते हैं) मैं कितना धागा है और मांझा किसके हुचके के सूत को देना है. अब उस समय तों हम ररेडीमेड मंझा लगे सूत तों खरीद नहीं सकते थे..तों खुद ही बनाना पड़ता. अब जिस दिन हमे मांझा बनाना होता तों उसके दो दिन पहले से ही किस के घर मे, छत पे ट्यूब लाइट या बिजली के बल्ब खराब पड़े हैं उसकी इन्वेस्तिगेशन चालू होती. मिल गयी तों ठीक है नहीं तों किसी पडोसी की सामत आ गयी.. ज्यादा नहीं पत्थर मार कर ट्यूब तोड़ दिया जाता..या घर पर ही बल्ब को खोल कर जम के टेबल पर
ठोक कर फ्यूज कर दिया जाता. यानी कुछ भी कर के बल्ब या ट्यूब ढूंढ ली जाती..फिर किसी के बगीचे मैं जा कर उसे कागज मैं मोड कर बारीक़ पावडर बनाया जाता. इतना महीन की आटा सा बारीक हों जाए. फिर दौड लगा कर एक टोली किसी के घर से भात चुरा कर ले आता. दूसरा धतुरा का फल. भात एक अच्छी गोंड का काम करता और धतुरा की जहर धागे को कीड़ों से बचाता. शीशे की पावडर, भात, धतुरा और रंग सभी को मिला कर पेस्ट बनायीं जाती. यदि बगीचे मे मंझा का प्लान बना तों दो पेड़ नहीं तों टेलीफ़ोन के दो पोस्ट ढूंढे जाते... और एक लड़का हुचके से धागा खोल खोल दो पोस्ट मे, लपेटता रहता... दूसरा लड़का दोनों हाथों मैं माँझे के पेस्ट को लेकर धागे मैं लगाता रहता... ये करने मैं एक हुचके के सूत को करीब दो घंटे लगते ... फिर सुखाने दिया जाता...उसके बाद दूसरी परत लगती..सब कुछ करने मैं करीब ३-४ घंटे तों लग ही जाते. और सब कुछ इतना सफाई से होता कि किसी के घर वालों को पता नही चलता. हाँ यदि पता चल गया कि लू भरे दुपहरिया मैं हम पतंग कि तैयारी भरे धुप मैं कर रहे हैं.. तों कौन बिना पीटे हमे रह सकता. खैर, मांझा लगाने का मजा ही कुछ और होता... फिर जब हुचका मांझा सब तैयार तों पतंग बनाते..अरे भई एक पतंग १० पैसे कि आती थी और १० पैसे तों बहुत मानाने के बाद हमे पिताजी दिया करते थे बहुत अच्छा बना रहने के बाद या सेवा करने के बाद.. और एक पतंग से कहाँ कुछ होने वाला था ..सो हम खुद ही पतंग बनाते.. पतंग के लिए कागज तों सस्ता मिल जाता पर सींक की परेशानी होती.. सो रोज हम बांस के झाड़ू से सिर्फ ४ सींक निकाल कर एक जगह इक्कठा करते..ताकि जिस दिन पतंग बनानी हों उस दिन कम ना पड़े. फिर पतंग बनाने वाले दिन या तों माँ को मस्का मार के भात मांगना पड़ता या चोरी करनी पड़ती. गम या फेविकोल तों महंगा पड़ता आज कल की तरह तों नहीं की बच्चों को सब कुछ रेडीमेड माँ बाप मुहैया करवा देते .. फिर पतंग बनता.. इतने मेहनत के बाद जो पतंग उड़ने मैं मजा आता वो कहाँ रेडीमेड मैं है... कभी कभी तों सबेरे से ही पतंगबाजी चालू हों जाती...
ठोक कर फ्यूज कर दिया जाता. यानी कुछ भी कर के बल्ब या ट्यूब ढूंढ ली जाती..फिर किसी के बगीचे मैं जा कर उसे कागज मैं मोड कर बारीक़ पावडर बनाया जाता. इतना महीन की आटा सा बारीक हों जाए. फिर दौड लगा कर एक टोली किसी के घर से भात चुरा कर ले आता. दूसरा धतुरा का फल. भात एक अच्छी गोंड का काम करता और धतुरा की जहर धागे को कीड़ों से बचाता. शीशे की पावडर, भात, धतुरा और रंग सभी को मिला कर पेस्ट बनायीं जाती. यदि बगीचे मे मंझा का प्लान बना तों दो पेड़ नहीं तों टेलीफ़ोन के दो पोस्ट ढूंढे जाते... और एक लड़का हुचके से धागा खोल खोल दो पोस्ट मे, लपेटता रहता... दूसरा लड़का दोनों हाथों मैं माँझे के पेस्ट को लेकर धागे मैं लगाता रहता... ये करने मैं एक हुचके के सूत को करीब दो घंटे लगते ... फिर सुखाने दिया जाता...उसके बाद दूसरी परत लगती..सब कुछ करने मैं करीब ३-४ घंटे तों लग ही जाते. और सब कुछ इतना सफाई से होता कि किसी के घर वालों को पता नही चलता. हाँ यदि पता चल गया कि लू भरे दुपहरिया मैं हम पतंग कि तैयारी भरे धुप मैं कर रहे हैं.. तों कौन बिना पीटे हमे रह सकता. खैर, मांझा लगाने का मजा ही कुछ और होता... फिर जब हुचका मांझा सब तैयार तों पतंग बनाते..अरे भई एक पतंग १० पैसे कि आती थी और १० पैसे तों बहुत मानाने के बाद हमे पिताजी दिया करते थे बहुत अच्छा बना रहने के बाद या सेवा करने के बाद.. और एक पतंग से कहाँ कुछ होने वाला था ..सो हम खुद ही पतंग बनाते.. पतंग के लिए कागज तों सस्ता मिल जाता पर सींक की परेशानी होती.. सो रोज हम बांस के झाड़ू से सिर्फ ४ सींक निकाल कर एक जगह इक्कठा करते..ताकि जिस दिन पतंग बनानी हों उस दिन कम ना पड़े. फिर पतंग बनाने वाले दिन या तों माँ को मस्का मार के भात मांगना पड़ता या चोरी करनी पड़ती. गम या फेविकोल तों महंगा पड़ता आज कल की तरह तों नहीं की बच्चों को सब कुछ रेडीमेड माँ बाप मुहैया करवा देते .. फिर पतंग बनता.. इतने मेहनत के बाद जो पतंग उड़ने मैं मजा आता वो कहाँ रेडीमेड मैं है... कभी कभी तों सबेरे से ही पतंगबाजी चालू हों जाती...
एक अलग ही मजा था उनदिनों पतंग उडाने मैं. अरे बाबा मैं कुछ ४०-५० साल पहले की बात नहीं कर रहा ये बस ३० साल पहले की बात है जब हम निक्कर गंजी पहन कर अफलातून बन नटखट पण से बाज नहीं आते थे... अब तों सब लोगों को रेडीमेड चाहिए....
इस बार मकर शंक्राती पर दुबई मे काईट फेस्टिवल मनाया गया. गुजरती समुदाय ने आयोजित किया था.. हम भी गए थे बहुत मजा आया.. तपती मरुभूमि पे रेत के मैदान मैं आयोजित हुआ... १०-१५ पतंग उडाये और कई काटे भी...कटवाए भी ... बचपन याद आ गया था,... बहुत मजा आया ...
nastologic post,love to read...
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