मिलन
कि परवाह कब की
लहरों
को उन्होंने
साथ
ही मिलकर ही भिगोया है
रेल
की पटरियों ने
कहाँ
मिल पाने की कभी सोची थी
अपने
संग मुसाफिरों को
किनारों
तक कई बार पहुँचाया है
धरा
ने भी नभ से
मिलन
की चाह तो अनेकों की
ना
मिल भी अपने संग कितने
सितारों
को संग संजोया है..
राँझा
भी कोई किनारा हीर संग
कहाँ
पाया था, फिर भी
अपने
प्यार से सुनहरी कई शब्दों में
इतिहास
संग सजाया था ...
सोचता हूँ कि क्यूँ करूँ
मिलन की आस व्यर्थ में..
व्यर्थ क्यूँ करू सुनहरी जिंदगी
अगम्य इस आस में?
करूँ तो बस एक ही आस
कि संग तुम्हारे सजा लूँ मैं
सितारे अपने शुन्य कृष्ण नभ में
खेलूँ लहरों को विश्रंभ भाव में...
राँझा नहीं मैं, पर
खुद के ही इतिहास पन्नों पर
सुनहरी शब्दों में बयां कर जाऊं
कि हमे प्यार है जिंदगी से
हमे
प्यार हैं जिंदगी से
हमे प्यार है तुमसे
हमे प्यार है तुमसे .....
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.