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कभी कभी लिखने के लिए हमे
कोई प्रेरणा नहीं मिलती. कितने भी शब्दों को कुरेदो, गुद्गुदावो, समेटो, शब्द स्याही
से उतर कर पन्नों पर आते ही नहीं हैं और कभी एक नन्हा सा झोंका अलसाया सा आता है
और जहन में दूर तक समां जाती है. एक नन्हा सा
झोंका न जाने कैसे कहाँ से ले आया, अतीत के कईं पन्नों को पलट
गया. धुल से भरे कई पन्नों को झाड कई पन्ने हम एक बारगी फिर पढ़ गए. उन्ही पन्नों को
कुरेद, धुल हटा एक वाकया शब्दों में पिरोने के लिए तैयार हो गयी. शब्द कई बार
रुकते, शर्माते भागते हमे सुनाने के लिए मजबूर करने लगे हैं. हर वाकये की तरह शुरुआत
शायद वहीँ से होगी, “बात उन दिनों की है”. बात उन दिनों की है जब हमने अपनी कैरियर
की शुरुआत की थी. इंजीनियरिंग ग्रेजुएशन ख़त्म हुई थी और एक सर्विस इंजिनियर के
हिसाब से एक बड़े से कम्पनी में नौकरी लगी थी. देहरादून के ठंडी वादियों में दो
महीने की ट्रेनिंग थी. जनवरी के माह में सबेरे सबरे उठ कर तैयार हो कर नाश्ता करने
तक को जाना एक बहुत बड़ी काम थी. आर्मी के रिटाएर कर्नल ने तो गजब ढा रखा था. बड़ी मेहनत
होती. सबेरे से ले कर देर रात तक ट्रेनिंग चलती. ट्रेनिंग ख़त्म हुई तो लगा कि एक
बार फिर हम स्कूल की बंदिशों से छूटे हैं. देहरादून से हमारी ट्रान्सफर कलकत्ता हो
गयी. यहाँ रह कर कम्पनी के और नए गुर सीखने थे. फिर दो महीने की ट्रेनिंग. पढ़ने
में हम ठीक थे और इंजिनियर हम अच्छे थे ऐसा हमे महसूस होने लगा था. थोड़ी धाक भी
जमने लगी थी.
सबेरे सबेरे एक दिन हम ऑफिस
पहुचे तो ऑफिस बॉय ने कहा की बडे रूम से आपको बुलावा है. चले जाईयेगा. बॉस से तो अपनी
बनने लगी थी, न जाने क्यूँ उस दिन डरा हुआ था.. शर्मीले तो हम थे ही, ऊपर से डर कर
और सहम से गए थे. इतने औपचारिक ढंग से बॉस ने कभी अपने रूम में नहीं बुलाया था याद
है आज भी समय सुबह के 10:31 बजे थे जब मैं घुसा था. बॉस हमे इतना सहमे हुए देखे तो
मुस्कुराने लगे. गले को साफ़ किया, आज वो भी खल रहा था, अमरीश पूरी याद आने लगे थे.
भारी भरकम आवाज़ में कहने लगे “आज तुम्हे चुनना है कि तुम्हे कहाँ जाना है. दो विकल्प
हैं : रांची (झारखण्ड) और शिलोंग (मेघालय). इन दोनों में से एक को चुनो और वहां का
काम शुरू करो.” डरे, सहमे से जुबान से कोई शब्द नहीं निकल रहे थे. मेरे लिए चुनाव उसी
वक़्त करना मुश्किल था. शिलोंग मेरे लिए कोई नयी जगह न थी, काफी अरसे रहा था. पर
वहां उन दिनों काफी बंद हुआ करती थी, काफी तनाव का माहौल था, राज्य के बाहर वाले लोगों
को विदेशी समझा जाता था और राज्य से निकालने के लिए कई राजनेता खड़े हो गए थे. ऑफिस
का कोई ब्रांच न था. होटल में रहना था और वहीँ से अकेले ऑफिस चलाना था. कुल मिला
कर चपरासी से ले कर मेनेजर मैं ही था. दुसरे तरफ रांची. रांची में पूरा परिवार
रहता था. कोई राजनैतिक उथल पुथल न थी. कुल मिलाकार शांत माहौल था उन दिनों रांची बिहार
का ही हिस्सा था और झारखण्ड ने जन्म नहीं लिया था. कुल मिला कर रांची एक आरामदायक
जगह थी जहाँ से हम काम कर सकते थे. पांच मिनट के सन्नाटे में सब कुछ उथल पुथल हो
चूका था. निर्णय बन चूका था की अब रांची कह ही दिया जाए. कहने वाला ही था कि अमरीश
पूरी जी फिर गले की खरास निकालते कहने लगे. “ कोई जल्दी नहीं है अपना समय लो. सोचो,
घर बात करो और फिर कहो”. जल्दी-जल्दी माथा हिला कर हामी भर दी. कहने लगे, मैं जानता
हूँ तुम रांची चुनोगे. याद रखना कुछ बातें. एक तरफ शिलोंग है, जहाँ कोई ऑफिस नहीं,
कोई लोग नहीं, कोई परिवार नहीं, सब कुछ उथल पुथल रहेगा, अकेले रहोगे. दूसरी तरफ एक
ऑफिस, ऑफिस में कई साथी बनेंगे, परिवार साथ रहेगा. सब कुछ शांत और व्यवस्थित.
शिलोंग में तुम्हे मिलेंगे हर दिन एक नया चैलेन्ज, नए लोग, खुद निर्णय लेने होंगे,
तुम्हारा अपना ऑफिस होगा, तुम्हारी अपनी लड़ाई होगी. हर दिन नया सीख पावोगे. अपने आप को तराश
पावोगे. दूसरी तरफ रांची में कई साथी होंगे कई परिजन होंगे जो तुम्हारी लडाई में
हिस्सेदार होंगे और हर लडाई से पहले उनके नुस्खे होंगे. खुद से कुछ नहीं सीख
पावोगे. एक तरफ काँटा है और दुसरे तरफ फुल. एक तरफ आत्मनिर्भरता है और दुसरे तरफ
पर-निर्भरता”. एक एक शब्द शायद पीरों के डाल रहे थे मुझमें . बहुत स्नेह कमा पाया
था, मैं उनसे कुछ हफ़्तों में ही.
जद्दोजहद में दिन भर सोचते रहा.
रात को बाबा को सब कहानी सुनाई. उन्होंने पहली बार कहा था. आज तुम्हे निर्णय लेना
है. क्यूंकि अब तुम घर से निकल कर अपने भाग्य की रचना करने वाले हो. गलत हो या सही,
तुम अपना निर्णय लो. उस वक़्त बहुत बुरा लगा था बाबा की बात. ऐसा लगा था, घर से
निकाल बाहर कर ही दिया है तो मैं क्यूँ रांची जावू. थोडा खुद को समेटा और निर्णय
ले लिया और बता दिया जा कर बॉस को: “शिलोंग”. शिलोंग में मिली हमे एक आत्मनिर्भरता.
तीन साल वहां काम किया. महीने में कई बार शिलोंग
बंद हो जाता, कई बार कर्फ्यू लग जाता. ज़िन्दगी के आजतक का सबसे कठीण दौर हमने वहां
गुजरा. तीन वर्ष में हमने बहुत कुछ सीखा बहुत कुछ परखा. आज ज़िन्दगी के जिस दौर में
मैं खड़ा हूँ शिलोंग के तीन वर्ष बहुत अहम रहे हैं. आज भी अमरीश पूरी रूपक बॉस याद
आते हैं और उनकी बात “ तुम्हारी ज़िन्दगी है तुम्हारी ही निर्णय होनी चाहिए” गिरह
सी बांध गयी है.
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.