कल ही की बात थी, रविवार का दिन था और जेठ
की दुपहरी में अलसाते गांव के कई जवान बुजुर्ग
पीपल के छांव तले औंधे पड़े थे. गनुवा भी अपना ठेला ले आता चौपाल पास. लेटे लेटे कितने
ग्लास गन्ने के जूस हम पी जाते, बिन फेरी लगाये गनुवा भी अच्छा कमा लेता. लगभग सभी
औंधे ही पड़े रहते. बीच बीच में हवा हुंकार बाँध कर चलती और हमे थोडा ठंडे से सहला जाती.
पास के ही दालान में कॉलेज के कुछ छोरे भी अपने उम्र के दौर से जूझ रहे थे. ददुआ चाचा
की नज़र पड़ी तों कह बैठे “देख का जमाना आ गया है. जब देखो मुंडी गडाये ये लोंडे मोबाईल
में गड़े रहते हैं. अरे भई जवानी चढ़ी है तनिक बतियावो तनिक हंसी ठठा करो. जब देखो कान
में कान-बहरी लगा के मुह लटकाए बैठे रहते हैं. जमात में हों तों तनी बतिया लो भई. ई
सब का लगा रखल हैं. हम लोग भी जवान थे तनी गिल्ली डंडा ले के उधम मचा लिए तों कभी गेंदा
ले कर खेल आये. देंह पर खरोच ना लगे तों का बात के जवानी है. कभी छीटाकशी कर लिए. अब
जब देखो ससुरे पड़े रहते हैं गदहन के तरह....” ददुआ चाचा कों तों जैसे कोई कीड़ा काट
गया था अब रुकने वाले कहाँ. चाचा बडबडाये जाए रहे थे और हम लोग कुछ दोस्त मुस्कुराए
जा रहे थे. हम तों ठहरे बीच के पीढ़ी. तों हमे उनका नजरिया भी समझ आ रहा था और जवानी
के दौड में कदम रखे बच्चों का भी. ददुआ चाचा रुकते कहाँ.
हलकू मिश्रवा बोल उठा “का हों चाचा गर्मी में
बडबडाये जा रहे हों. रस पीअ और रेडियो बंद कर”. “अरे चुप रह”, हम कहे “चाचा से ऐसे
कोई बतियावत है”. सोचा आज चाचा कों दलीले दे कर हमेशा के लिए शांत करवा ही दूँ. “अरे
चाचा काहे लौंडन के पीछे पडल रहे ला...अरे सोच के देखिये आज का पीढ़ी कितना शांत स्वभाव
का हों गया है. ई मोबाइल के आने से पीढ़ी बदल गयी है. बिन मतलब मत पीछे पड़ा कीजिये.”
गनुवा कों रस देने कों कह कर पालथी मार के हम बैठ गए.
देखिये चाचा कितना कुछ बदल गया है. सोचिये
कितना तकलीफ होता था हमे होली के वक्त. रंग
लगावो और किसी और हम पे रंग ढाल दिया तों रंग छुडाते छुडाते रेंहट की जान निकल जाती
पानी दे दे कर. अब नए पीढ़ी कों देख लो कितना समय कितना रंग और कितना पानी बचा गए. फेसबुक ((facebook) पे गए ससुरे अपने गाँव वाले कों तों क्या सारा शहर
के छोरों छोरियों के पहचान पर रंग से भर दिया. हमे तों घर घर जाना पड़ता था होली का
शुभाशिस देने. होली निकाल जाती लोग छूट जाते, तीन चार दिन तों लोगों के यहाँ आने जाने
में ही निकाल जाता. आज के लौंडन के देख, मोबाइल उठाये और सारा गाँव जमात कों होली की
बधाई दे डाली. जिनकों मिला बधाई उन्होंने भी उन्हें आशीष मोबाइल से ही भेज डाला. समय
की बचत हुई आशीष मिली सो अलग. और आप हैं की समझते ही नहीं”.
गनुवा का रस ठंडी और बड़ी मीठी बनी थी. एक चुस्की ली और ददुआ चाचा कों देखा तों उनकी हलकी हिलती मुंडी से लगा की शायद मेरी बात सुन समझ रहे है. अपना प्रवचन हम शुरू कर ही रहे थे कि देखे बगल में पड़ा हल्कू मिश्रवा मंद-मंद हँसे जा रहा था. “ सोचिये चाचा कितना कुछ बदल गया है. कभी सड़क पर, बस पर, घर में ई पीढ़ी कों सर उठाये घूमते देखे है?” हम पूछे. चाचा उत्सुकता से कहे “ना हों बाबू, सब कों सर गडाये ही देखते है, ठीके कह रहे हों”. “हाँ चाचा” हमारा प्रवचन चालू हुआ, “ सब कों देखो सर झुकाए विनम्र भाव से चले जा रहे है. ऐसे जैसे स्वाधीन भारत के चाह में अंग्रेजों की सजा कों गले लगाये हों. सर झुकाए, इतने विनम्र, आज तक कभी कोई पीढ़ी नज़र नहीं आई थी. राह पर ठेला चल रही हों, या दनदनाती आती बस हों, या सायरन बजा के आती ट्रक, मजाल है की अपने नज़र कों उठा कर उन्हें देखे भी. अरे चाचा छोडिये ठेला, बस और ट्रक, मोहल्ले की परियां भी पास से गुजर जाए, बगुले की एकाग्रता वाली ये नयी पीढ़ी नज़र नीचे रखे चलती रहती है. इतना विनम्रता कहाँ से लाये कोई भी पीढ़ी.”
हल्कुवा पेट पकड़ हँसने लगा. “ चाचा जानते हों,
इतना एकाग्रता इनमें कहाँ से आती है? गांधी जी के तीन बंदरों से प्रेरणा ले ये पीढ़ी
कोई बुरा नहीं सुनती. कान में जब देखिये हेडफोन लगा लेती है. और एकाग्रता बनाये रखें
के लिए अपने चुनिंदे गाने सुनती है. चाचा कभी इस कोशिश में कई तों ठेलों से तों कभी
बसों से टकराते टकराते बचे है. गाडी की होर्न नहीं सुनाई देती है ना ही ठेले की घंटी.
घर पहुचते हैं तों कितना भी माँ बाप कुछ कहे-डांटे, मजाल है कि कभी उनका जवाब दे. सुनाई
ही नहीं पड़ती कि लोग क्या कह रहे है, कभी सुन भी लिया तों अपने एकग्रता कों बनाये रखते
हैं गाना सुन-कर. कान से हेडफोन हटा के बाज़ार ले जावो तों कान बंद कर लेंगे कि कितना
शोर है. शोर तों छोडिये, सुबह-शाम गर टहलने भी चले गए तों चिड़ियों की चहचाहट, नदी की
कलकल, सूखे पत्तों की सरसराहट की परवाह नहीं करते, क्यूंकि एकाग्रता के लिए संगीत की
प्राथिमिकता है. गाँव के चिड़ियों की चहचाहट भी उन्हें मोबाइल से ही मिलती है. फिर भी चाचा आप भला बुरा कहते
हों”
हल्कू मिशरवा दो चार और मनचलों कों खींच लाया
था हमारी दलीले सुनवाने के लिए. सब डांतें भीच कर ददुवा चाचा की चेहरे देख रहे थे.
“अरे चाचा, चाची के पीछे तों आप खूब दौडे थे, गाँव में सब कोई जनता है, की चाची से
एक बार बतियाने के लिए कितने महीने आप खेत के पास झूठमूठ खड़े रहते थे. गाँव का वो हमारा
नुक्कड़ तों अब सुनसान हों गया है जहाँ हम लोग भी खूब छेड़छाड किये थे. अब देखिये कितने संभल गए हैं लडके, लडकियों
पर तों नज़र ही नहीं देते. जवानी के इस दौर में भी इन्हें मोबाइल फेसबुक से पता चलता
है की घर से दस कदम में कौन जवान हो रही है. फेसबुक से ही छेड़छाड और फेसबुक से ही प्यार
पनपता है. बातें करने का मन हुआ मोबाइल उठाये और चैटिंग कर लिए. प्रेम का कभी इज़हार
तों कभी प्रेम भी चैटिंग में ही कर लिए. कितना कुछ बदल गया है आज के पीढ़ी में. अब तों
लड़कियों के बाप कों भी पता नहीं चलता की बेटी कितनी जवान हुई है”. जोर से ठहाक्के लगने
लगे थे. “ बात तों सही बोल रहे हैं आज आशु जी. ”हम बोलते गए “ चलते चलते जब कभी अचानक
एकाग्रता टूटी और कोई सुन्दर सा मंज़र दिखा, मोबाईल निकाले एक तस्वीर लिया और फेसबुक
पर डाल दिया ताकि कोई उन्हें पसंद करे या कुछ प्रतिक्रिया. यही देख कर खुश हों लिए.
अब हम सा आलसी थोड़ी ना है ये पीढ़ी, कि सुन्दर से उस मंज़र कों अपने दिलों दिमाग में
बसाने के लिए कुछ पल के लिए ठहर जाए. लुत्फ़ उठा ले. समय का ज्ञान देखिये चाचा, कितने
समय कों महत्व देते हैं”. चाचा कों देखा तों मुह बाए सब कुछ समझ गए थे... या कुछ भी
नहीं समझे थे... “बोले ठीक है आशु बाबू, तुम
ही जीते, हम नहीं कहेंगे इन ससुरे लौंडन कों अब”. मन ही मन बडबडाने लगे थे.
शाम होने आई थी. चुहलबाजी में मन लग रहा था.
सबसे विदा ले हँसते हुए हम भी निकल आये. चाचा कों उलटी पढाई पढ़ा कर हंसी भी आ रही थी.
चप्पल फटफटाते हम निकाल पड़े. सोच रहे थे, कितना कुछ बदल गया इस दूर दराज़ के गाँव में
भी एक मोबाईल से आने से. लोगों से मिलना मिलाना कितना कम हों गया है, पर्व-त्यौहार
में गले मिलना, कलकल करती नदी के किनारे बैठ कर सूर्यास्त देखना, कभी मनचले सा बन छेड़-छाड
करना, संगीत के लिए कहीं बैठ कर साथियों के संग बैठना..सब कुछ कितना मशीनों सा हों
गया है. दौडती भागती जिंदगी में हमारा समय कितना कम हों गया है, कि एक ठहराव नहीं है.
एक पल ठहर कर अपने आसपास के रौनक कों जी सकने का हम में आज समय नहीं है या यूं कहे
कि अब शोर्टकट कि चाह में सब कुछ मोबाईल डकार गयी है. कानों में लगी हेडफोन और उँगलियों
में खेलते हेडफोन जिंदा होने का प्रमाण सा हों गयी है. ट्रिंग-ट्रिंग कर के मेरे जेब
में मोबाईल घरघराई. ऑफिस से फोन था...किसी मेल का जवाब चाहिये था जो मेरे फोन पर आई
थी... रुक कर मैं पास के पत्थर पर बैठ कर ऑफिस का काम करने लगा. मुस्कुरा कर आंहें भरी..
फेसबुक-मोबाइल-ट्वीटर और मोबाईली पीढ़ी....
mobile se pidhit hai ye pidhi....or hum iske abhinn ang hain..achii vayakhya ki hai.... yun hi khikaa kariye ..shubkamnayen... :-)
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