बिन धेय्य के शब्दों का रेला, कुछ मंज़र यूँ छोड़ जाते है .... आस पास एक निष्क्रियता की कोहरे छोड़ जाती है... वातावरण धूमिल कर जाती है ...नीरस जीवन दे जाती है.....
हाँ नीरस सा......
शब्दों भरी झंझा (बरसात)
शब्द...
नन्ही सी
मोतियों सी
कुछ स्थूल तो
कुछ सूक्ष्म
बरसे थे बूंदे
बूंदों के ये रेले रुके
तो,
सर्द सुबह वो
कोहरे ओढ़ आये
धूमिल हो उठा
सारा जहाँ....
ओझल जहाँ
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.