सुना है वो,
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चाँद से मुखातिब हैं....
चांदनी के नूर में
अल्फाजों के रेले सजा रही
हैं..
नूर-ए-चट्टान पर
इक हर्फ़, अल्फाजों के,
हमारे भी है...
सुना है वो,
गुलाबों से मुखातिब हैं
पंखुडी गुलाब से
दास्तान-ए-इश्क समझ रही हैं
टूटे उन पंखुड़ियों
में
एक पत्र गुलाब के
हमारे भी है....
सुना है वो,
तकदीर से मुखातिब हैं
हाथों के लकीरों से
नए रिश्तें समझ रही हैं
लकीर-ए-तकदीर में
एहसासों के कुछ पल
हमारे भी है
सुना है वो
शब्दों से मुखातिब हैं
कोरे पन्नों पर
शब्दों के छंद बना रही हैं
फेंके फटे पन्नों में
खुरचे
चाहत के कुछ पत्र
हमारे भी हैं...
Bahut unda poem hai.
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