देव असुरों का
मंथित होता
अथाह गहन समुद्र...
प्रगाढ़ समाधी गर्भ
से
पृथक होते बार बार
..
हलाहल, अमृता
सुरभि, चन्द्र, धनवंतरी..
पृथक होते
अर्थ, अनर्थता से
धीरता, अधीरता से
शांति, अशांति से
पृथक होते
आशा, निराशा से
मृत्यता, अमरत्व से
ऐश्वर्य, दारिद्रता
से
मंथन है प्रतीक
विचारों के कोलाहल का
बौधित्व के समाधी में
बध
आशा निराशा का घोर मंथन का
विचारों के मंथन में
समाधी के मौनत्व पर
क्यूँ हो कोलाहल
क्यूँ करूँ मैं कोलाहल..
……………………… In Respect of a silence…..
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.