तुम्हारे पैरों में
पाजेब सजा,
आलते से बाध रेखा,
बूंदों के लय पर,
नए राह पर
कुछ पल,
कुछ डगर,
तुम्हारे साथ चलने
को
क्यूँ बावरा हुआ है
मन...
माँ के स्नेह से सजी
नर्म कलाईयों को,
सुर्ख चूड़ियों से
सजा,
हिना सजी लकीरों को
अपने तकदीर से जोड़,
नए लक्ष्य तक
कुछ पल,
कुछ लम्हे,
तुम्हारे साथ चलने
को
क्यूँ बावरा हुआ है
मन...
सखियों के प्रेम से
सजी
फूलों के गजरे को
जुल्फों से मुक्त कर
सुर्ख जोड़े में
ढांपे ,
थाम आँचल को कुछ पल,
तुम्हारे काँधे को
थामे
नए लक्ष्य तक
कुछ पल
कुछ कदम
तुम्हारे साथ चलने
को
क्यूँ बावरा हुआ है
मन...
कई कई लम्हों में
मझी,
उतार चढ़ाव से मझी,
सारे ग़मों से कर
मुक्त
माथे की टिका संजोये
अपनी तकदीर को
किसी और के
हवाले करने से पूर्व
नए सुबह से पहले
तुम्हे आगोश में ले
कुछ पल और जीने को
क्यूँ बावरा हुआ है
मन...
जानता हूँ कि सारे सपने
सच नहीं होते, पर सपना यही सपना क्यूँ था.... कई सवालों को
उलझाए .... क्यूँ बावरा हुआ है मन ?
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.