Coca-Cola |
खुशियाँ... खुशियाँ
भी बड़ी अजीब होती हैं. इन्हें ढूंढो, मिन्नतें करो, आमंत्रण दो, तो मिलेंगी नहीं.
बड़ी छलावों से भरी होती है. लोगों को भागते देख हम भी कई बार भागे इनके पीछे, हर
बार बेवफ़ा सखी सी इतरा कर ठेंगा दिखा कर निकल जाती हैं. एक बार इनके खोज में ढूँढतेढूँढते
कुछ शब्दों से इनके चल को सहेज लिया था.
खुशियाँ, बड़ी अजीब होती है,
बडे बडे डब्बों में
ढेर सारी खुशियाँ मांगो
ठेंगा दिखा कर हंस देती हैं.
पूछो तो कहेंगी
बडे लालची हो...
एक ही बार में
इतनी सारी माँगते हो.
तुम क्या जहाँ में एक हो?
हम क्या सिर्फ तुम्हारे लिए हैं?
चलो हटो,
बड़ी-बड़ी डब्बों में
हमे, हम से न मांगो...
बडे बडे डब्बों में
ढेर सारी खुशियाँ मांगो
ठेंगा दिखा कर हंस देती हैं.
पूछो तो कहेंगी
बडे लालची हो...
एक ही बार में
इतनी सारी माँगते हो.
तुम क्या जहाँ में एक हो?
हम क्या सिर्फ तुम्हारे लिए हैं?
चलो हटो,
बड़ी-बड़ी डब्बों में
हमे, हम से न मांगो...
जब इनका ये मूलमंत्र
समझ लिया था, खुद को रोक कर, हमने इन्हें ढूँढना ही बंद कर दिया था, इनके पीछें
भागना बंद कर दिया. गूढ़ इस मंत्र का बोध बौधिसत्व सा किसी पेड़ के नीचे बैठ कर न
आया था.तीन नन्ही सी परी समझा गयी थी. कलकत्ता के एक भीडभाड वाले सड़क के किनारे,
किसी के घर के सामने के सीढ़ी पर बैठा, फूटपाथ पर बनाये चाय दुकान की लज़ीज़ अदरक की
चाय का चुस्कीयों से लुत्फ़ उठा रहा था. जेठ की दुपहरी में गर्माहट को हवाओं के
झोंके एक कोने से दुसरे कोने तक ले जा रही थी. बहती थी तो थोड़ी सुकून दे जाती. रास्ते
पर चाक से छोटे बड़े वर्गाकार निशान बनाये, कुछ बच्चियां स्टापू खेल रही थी. पत्थर
के ढेले को एक वर्ग में फैंक कर, एक पैर से एक बॉक्स से दूसरी बाक्स को कूदती.
बच्चियां वही बगल में फुटपाथ पर डेरा जमाये अपने परिवार के संग रहती थी. बुलाया एक
को तो तीनों बच्चे एक साथ, अपने खेल को
रोक कर आ गए. नाम पुछा: “मैं झीलमिल, ये लाली, और वो राखी है.” नहाई नहीं थी
झिलमिल, उसके शरीर पे जमे मैल से प्रतीत हुआ, नाक बह रही थी, बायें हाथ से बांह से
जो नाक खीचा की हाथ पर एक लम्बी लकीर बन आई. बहुत हंसी आई. ठीक ही सोचा था, तीनों
वही पास के राते में रहती थी. बांग्लादेश के किसी गाँव से आई थी. उन्हें माँ ने
बताया था, कोलकाता में बाबा को कुछ काम करने को मिल जायेगा, फिर वो भी स्कूल
जायेंगी, वो भी घर में रहेंगी. कई महीने हो गए थे, बाबा कभी ठेले से सामान उठाते
है, तो कभी कुछ लोगो से पैसे ले लेते हैं, उसी से रात को खाने को मिल जाता है.
शायद, काम न मिलाने पर नौबत भीख माँगने तक की आ गयी थी. बच्चों के सपने, पत्नी का
सुख सबको मिट्टी से सने एक झोले में बाँध वो परिवार यहाँ आया था.
हमेशा से गरीबी को
आलस्य से जोड़ कर देखने वाला मैं, एक नन्ही सी परी के नज़रों से समझ रहा था. समझ आया
मजबूरी गरीबी देती है, आलस्य ही एकमात्र नहीं कारण नहीं होता. परिश्रम से झिलमिल भी
कभी अपने सपनो की राजकुमारी बन पाए. बच्चों के खेल उनकी किलकारियों से भरी थी. बातें
हो रही थी, दादा दादा (भैया) कर रही थी और हर सवाल की जवाब दे रही थी झिलमिल. धुल
सनी झिलमिल की चेहरे पर सजी मुस्कान में बड़ी तेज़ी थी. आँख के कोने से देखा लाली
बगल के दुकान के बाहर पड़ी डस्टबिन से एक पेपर के ग्लास को उठा लायी थी. देखा तो
कोल्ड ड्रिंक की ग्लास थी. उसे देख कर झिलमिल भी दौड़ पड़ी. क ग्लास में थोड़ी सी
छोड़ी हुई कोल्डड्रिंक थी. तीनों ने एक एक चुस्की ली. चेहरे पर शायद हज़ार वाट का
बल्ब जल उठा था. हँसते हुए फिर दौड़ आई. जब मैंने पूछा तो हस कर कही .. “दादा, कोका
कोला है”. “अच्छा लगता है तुमलोगों को, पहले कब पिया था” मैंने पूछा. “हम तो रोज़
पीती हैं. वह दूकान वाले जब भी थोडा सा बच जाता है, डस्टबिन के पास रख देते हैं और
हम लोग पीते हैं. बहुत स्वाद आता है.” चहक रही थी तीनों.
“चलो, आज मैं तुम्हे
पूरा गिलास पिलाता हूँ”. चाय का पैसा दे कर हम तीनों परियों के साथ दूकान पहुचे.
सभी को एक-एक अंडा का रोल, जो कलकत्ता की सबसे लोकप्रिय खाना है, और एक एक कोका
कोला दिलाया. चहक रही थी तीनो. मिल कर हमने खाया कई बातें हुई. बहुत खुश थी. निकला
तो लाली और झिलमिल ने कहा “फिर आईयेगा, दादा”. CocaCola के ग्लास में लगा कभी न ख़तम होने वाली जादू आ गयी थी. चुस्की लेते जा रहे थे तीनों और पीये जा रहे थे. झिलमिल, लाली और राखी से
विदा ले, रास्ते के भीड़ मैं कब खो गया पता ही नहीं चला. मन में एक ही विचार थे, आज ऐसी ख़ुशी क्यूँ महसूस हो रही, मन इतना
हल्का क्यूँ है, मेरे नज़र आज इतने चमक क्यूँ रहे है... क्या हुआ है मुझे? सोचा तो
महसूस हुआ, हाँ ,खुश था उस पल. ख़ुशी
ढूँढने नहीं निकला था. एक पल मिला था, नन्हे परियों के संग. उसी क्षण को उनके संग,
मैं जी गया था. वर्तमान में जीते हुए उस लम्हे को जी गया. झिलमिल की मुस्कान नयी
सबक दे गयी, धुलभरे चेहरे में चमकती मुस्कान बता गयी, खुशीयाँ ढूँढने से नहीं
मिलती, ज़िन्दगी जी जाने से मिलती है और खुशियाँ छोटे छोटे बक्सों में ही आती है.
Coca Cola से भरी ग्लास को जब देखता
हूँ, ग्लास से सटी सोडा के बूंदों एहसास दिलाती हैं कि पीने का मजा भरे ग्लास में
नहीं है, उन नन्ही नन्ही बूंदों में है जो अपने में समेटे हुए है एक उर्जा जो
खुशियाँ दे जाती हैं. ठीक ज़िन्दगी की तरह, खुशियाँ बड़े बक्सों में नहीं, नन्हे
क्षनिकवों में हैं, लम्हों के नन्ही बूंदों में हैं....
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शुक्रिया Coca-Cola : नन्हे से एक बक्से से खुशियों को फिर जीवित करने के लिए
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.