जन्म पर
नन्हे शिशु ने जब
सिकुड़ी हुई भौये
बाबा के आँखों में
देखी थी
बिलखना छोड़
चुप्पी की चादर मैंने
ओढ़ ली थी
भैया को
माँ के स्नेहांचल
में छुप
माँ से लोरियां सुनते
देखा
माँ को मुझे अलग कर
थपकियों से भैया को सुलाते
देखा
थपकियों की आवाज़ की
आस छोड़
चुप्पी की चादर मैंने
ओढ़ ली थी
खेल के मैंदान में
मित्रों के नोकझोंक में
खुद को कभी हारते
तो कभी जीतते देखा.
बाबा के थप्पड़ों ने
अपने हर जीत को हारते
देखा
न्याय और अन्याय के
द्वन्द को
आदर के बसते में छोड़
चुप्पी की चादर मैंने
ओढ़ ली थी
उतार चढाव के ज़िन्दगी
में
अपनों के हर उलझन में
अपनों से आगे खुद को
अगन में झोंका...
उनके हर अन्याय पर
मूक बधिर हो
उनके आंसुवो के
खातिर
रक्त के घूंट खुद
पिए
विवादों को विवाद में
छोड़,
चुप्पी की चादर मैंने
ओढ़ ली थी
चुप्पी के चादर ओढ़ने
की
जिद जब खुद की थी,
तो फिर क्यूँ हूँ अब
मैं,
विवादों में घिरा
तो फिर क्यूँ हूँ अब
मैं,
कफ़ा, प्रश्नों से
घिरा
तो फिर क्यूँ कर रहा
हूँ मैं,
उम्मेद औरों से..
तो फिर क्यूँ कर रहा
हूँ,
खोने पाने की हिसाब
आज मैं
क्यूँ?
बस,
अब बहुत हुआ
ना पकडूँगा अब और
मैं
किसी और के आशा का
दामन
किसी और के उम्मीदों
का आँचल
अंतिम कुछ लम्हों को
ज़िन्दगी के नाम
नए आयाम में ढाप
अब निकल पड़ा हूँ मैं,
चुप्पी के चादरों को
फेंक ....
अपनी ज़िन्दगी की खोज
में ....
bahut khoob likha hai....
ReplyDeleteab jo thana hai na mukerna
ab jo chal pade to fir na rukna
ashon nirashaon ke veeg main
sahas ka pradeep prajwalit rakhna
vidhroah jo kiya hai apnni chuppi se
fir ab na picche mud ab rukna...
ab or na rukna....!!!!!!!!!