गर्म चाय की प्याली
ले
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आज जब बालकनी पर आया
बड़े गमले की
मिट्टियों में
उग रही मनीप्लांट पर
नज़र पड़ी....
हाँ, ये वही बालकनी है
जहाँ बैठ हम दोनों, यानि
हम और तुम, हमारी
ज़िन्दगी
चाँद के मीठे रस में
भीगते
शाम को रात्रि के
हवाले कर आते
न जाने कहाँ कहाँ से
प्रसंग का जन्म होता..
चाय की चुस्कियों
में
हाथों के लकीरों को
टकराते
प्रसंग, शब्दों में ढलते और
शब्द, कहानियों और लम्हों में ढल जाते...
हाँ, ये वही बालकनी है
सफ़ेद रंग के दीवारों
से
तीनों तरफ हमे घेरे
नीले आकाश को
अधीयारे में बदलते
चाँद और सितारों के
घूँघट में
मीठी हवाओ में हमे
झंझोरते.
सफ़ेद उस दिवार की कई
परतें
अब कथाओं के पन्नों
सी
खुरच आयी थी..
दिवार पर
आंसू के कई बूंदें
गिरे थे
शुष्क, उस दिवार के भाग पर
काई के कई फफूंदों
ने
घर कर लिया था.
जीरो वाट की वो
तुम्हारी पसंदीदा
नीली बल्ब पर
कबूतरों ने गंद फैला
दिया है ...
हाँ, ये वही बालकनी है,
आंधी के झोंको ने
दुनिया भर की
मिटटी बरामदे में भर
दी थी..
जिस गद्दे को दिवार
से सटा
हम आखरी बार बैठे थे
उन पर भी,
लम्हों के धुल का
परत पड गया है..
तुम्हारे जाने के
बाद
हम कभी बालकनी नहीं
आये थे.
गमले का एक किनारा
टूट भी गया था
जिससे मिटटी के कई
ढेले
लावारिस से,
बाहर पड़े थे
मिट्ठी के ढेले को
छेद कर
मनीप्लांट ने कई जड़
उगा लिए थे
पास गया, तो देखा
मनीप्लांट का वो शाख,
नीचे गिरा हुआ था
झुक आया था
तुमने उन्हें बड़े
प्यार से
बांस से बाँध खड़ा
किया था..
याद हैं न, शाख की एक डाल,
जो कहीं से तुम लायी
थी
मिटटी के इसी गमले
में
मैंने रोप दिया था
पांच वर्षो में बहुत
बढ़ आई है
अब डालों से निकल
कई सारे जड़
प्रेम के प्रतीक हो
जैसे,
मन मिटटी में उग आये
हैं.
अद्भुत रिश्ता बन
गया था
हम, तुम और मनीप्लांट,
तुम हंसती तो, हम
हँसते,
हम खुश होते, तो ये
भी खुश रहती,
तुम उदास होती,
हमारी जान निकल आती
शाख के पत्तों को छुवा
तो,
जुबान से आवाज़ आई
“टूट गयी है .......”
सुन कर मेरी
फुसफुसाहट
मनीप्लांट से आवाज़
आई
ना...
ना... मैं टूटी नहीं
हूँ..
उम्र के अनुभव से
ठूंठ को मजबूत रखा
है,
उनसे मिली प्यार की
गर्माहट से
हमने सोंधी मिटटी को
आसुवों के बूंदों से
सींच
कई लम्हों को
जन्माये
अपने जड़ उगाये हैं
उनके यादों, उनके लम्हों ने
जीने की सबब सिखलाया
है
सशक्त हो हमे फिर एक
बार
खड़ा होना सिखाया है
हम जो आज झुके हैं
धरा के करीब दिखे
हैं
फिर नभ को छू पाने को
अपने को धरा तक लाये
हैं ....
सशक्त,
निर्भीक,
उन्मुक्त हो उठ
आयेंगे
ना...
ना, मै टूटी नहीं हूँ
मैं झुकी हूँ, नभ तक एक बार फिर उठने के लिए.....
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.