नींद खुली तो देखा
कोहराम सा मचा हुआ है. आँगन से बर्तन धुलने की आवाज़ आ रही थी, वहीँ कोई चापाकल से
पानी निकाल कर नहा रहा था. मामा भी आज घर पर थे, वर्ना रोज़ नींद टूटने से पहले तो
वो लोकल ट्रेन से पटना के लिए निकल पड़ते थे. चचेरे भाई आज घर आये हुए थे. औंधियाए
मन से, हर एक चीज़ पर ध्यान जा रहा था. बिस्तर न छोड़ने के लिए आलस्य ने रोक रखा था.
कहीं हंसी मजाक चल रहा था, तो दीदियाँ टेंशन में कुछ बडबडा रही थी. आज से करीब तीस
साल पहले की बात है, ननिहाल का ये माहौल था, बड़ा घर था, संयुक्त परिवार था, सब साथ रहते
थे. पर जो भी हो इतना माहौल नहीं होता था. बडबडाया “कहीं कोई त्यौहार तो नहीं”. अब
आसाम में जन्मे और वही बड़ा होने का यही तो नुक्सान होता है कि कब त्यौहार है पता
ही नहीं रहता. आँख मीचते हाल्फ पेंट सँभालते उठा, देखा तो सचमुच त्यौहार सा माहौल
था. दो ममेरी दीदीयों का मेट्रिक की परीक्षा थी. सारी तैयारी, सारी हलचल इसी वजह
से थी. अरे हमारे आसाम में, घर में तो मेट्रिक के परीक्षा के वक़्त तो सन्नाटा छाया रहता था. दीदी,
भैया किताबों में डूबे रहते थे, माँ की बोलती बंद रहती थी, पर हाँ, अच्छे खाने की शुरुआत
कई दिनों पहले से हो जाती थी, बाबा छुट्टी ले कर पढाते रहते.
माँ से चिपक कर
अलसाते हुए हमने पूछा, “क्या है आज माँ?” माँ कुछ कहती, मामा ने कहा “आज तेरी दीदीयों
का मेट्रिक परीक्षा है. चल, परीक्षा दिला आये.” परीक्षा दिलाना क्या होता है, पता नहीं था, घुमाने
ले जा रहे हैं सोच कर, तो चहक कर तैयार हो गया. ब्रश किये, पानी के छीटें मार कर जल्दी
जल्दी नहा लिए. हाफ पेंट, शर्ट, चप्पल पहने. भीगे बाल को कंघी किये. “मैं
तैयार हो गया, चलिए, हाँ, रास्ते में पूरी-जिलेबी खिलाईएगा.” करारी छोटी-छोटी जिलेबी और वैसी
ही छोटी सी पुरियों का, अलग ही स्वाद होता है. आज तक बचपन के जलेबी की मीठी स्वाद होठों पर अटकी हुई है.
सब निकले, दोनों दीदियाँ एक दम आश्वस्त थी. ऐसा लग रहा था कि कोई भी सवाल आये,
दनादन जवाब दे डालेंगी. पर पढ़ती थि. मैंने सोचा,,, मामा जी, दो भैया, एक पडोस के बबलू भैया भी आये थे, एक भारी भरकम झोला
था, शायद टिफ़िन थे और ढेरों किताब थी. चप्पल फटफटाता मैं, उनके जोश से भरे क़दमों
को साथ देता, चले जा रहा था. घर से बस स्टेंड फिर वहां से एक दूर दराज़ के गाँव तक जाना था.
“गाँव में परीक्षा क्यों है, पढ़ती तो घर के पास ही हैं.” कौतुहलवश दीदी से पूछा
तो, कहा उन्होंने, “यहाँ परीक्षा सेंटर ऐसे ही पड़ते हैं”. बड़ा हुआ तो पता चला कि,
लोग हज़ार-हज़ार रुपये खर्च करवा कर, बिहार बोर्ड से जुड़े दलालों द्वारा परीक्षा सेंटर
गाँव में करवाया जाता था. सेंटर का फैसला बहुत अहम् होता था. सेंटर का निरीक्षक कौन
है, किस स्कूल में है, स्कूल की बिल्डिंग कैसी है, वहां पर चोकीदार कैसे हैं, कितने लोगों का सीट है,
आदि. सभी कुछ का विवरण इन दलालों के पास होता था. विवरण देख सेंटर का रेट बनता. फिर
दलाल से बोर्ड, बोर्ड से स्कूल, स्कूल से निरीक्षक सभी का सेंटर के रेट में हिस्सा
बनता था. जहाँ जितनी आज़ादी उतना दाम.
सेंटर पहुचे तो देखा,
जितने परीक्षार्थी थे उनसे ज्यादा अभिभावक. एक उत्सव सा माहौल था. सेंटर के बॉस
शामियाने में दूकान खोल दिए गए. खानपान का पूरा प्रबंध था. हमारे यहाँ आसाम में
दीदी के मेट्रिक में तो ऐसा कुछ नहीं हुआ था. यहाँ सब लोग कितने उत्साहित हैं, दीदी
के सेंटर में तो सन्नाटा छाया रहता था. बालक मन समझने की कितनी कोशिश करता. फिर, दौड़ कर जिलेबी
पूरी खाने भाग जाता. खा कर आया, तो देखा परीक्षा की घंटी बज चुकी थी. दोनों दीदी परीक्षाहाल में थी. पड़ोस के बबलू भैया इतिहास में अच्छे थे, तभी आज आये थे मामा के साथ. हम
सब घंटी बजते ही खिड़की के पास आ कर बैठ गए. ममेरा भाई खिड़की के पास खड़ा हो दीदी
से प्रश्न पढ़ने को कहा, फिर जल्दी जल्दी नोट कर लिए. जैसे ही प्रश्न मिलते, बबलू भैया
किताब और गाइड से प्रश्न का उत्तर देखते और कागज़ में उत्तर लिख दिया जाता या
किताब से फाड़ कर दीदी को पकड़ा दिया जाता. अब समझ आया दो दो किताब-गाइड क्यों थे. दीदी जो खिड़की के पास थी, उन्हें तो चिट सीधा
मिल जाता. दूसरी दीदी दुसरे रूम में खिड़की से दूर थी. मामा जी ने वहां के निरीक्षक
से बात कर रखी थी. उन्हें कागज़ पकड़ा देते, वो दीदी को दे देते. ऐसा ही चलता रहा जब
तक सारे सवाल के जवाब नहीं लिखवा दिए गए. बालमन सोचता कितना अच्छा हैं न, सारे सवाल
के जवाब खुली कताब से मिल जाते हैं. हमे तो समझना और रटना पड़ता है . झाँक कर भी लिखने
की इजाजत नहीं होती. बड़ा हुआ तो पता चला की सब फेसिलटी दलाल के फीस में ही थी. परीक्षा की तैयारी सिर्फ सेंटर तक ही
नहीं होती. किस सेंटर के पेपर किस निरिक्षक के पास जाएगा, इसका पता लगाया जाता.
उनके अपने दलाल होते जो अपनी रेट कार्ड दिखाते. किस डिवीज़न में पास होना है, उसके
ऊपर रेट फिक्स रहता. यदि किसी परीक्षार्थी का टांका सेंटर में नहीं लगा और नक़ल न हो सका, तो वो अपने कॉपी पर सिर्फ परीक्षार्थी
नम्बर लिख कर छोड़ देते. निरीक्षक अपने दलाल विद्यार्थियों के हाथों कॉपी में उत्तर
लिखवा दिए जायेंगे. इसके अलग से रेट होते.
दोनों दीदी के लिए पैसे दिए गए थे. पूरी की पूरी सेटिंग हर छोर पर किया था मामा ने.
रिजल्ट आया तो हमने
सुना था कि दोनों दीदी फर्स्ट क्लास में पास हुई थी. मामा ने मोहल्ले में लड्डू
बटवाई थी कि दीदी फर्स्ट क्लास पास हुई हैं. अब सोचता हूँ, मामा ने इतनी मेहनत
उन्हें पढाने में लगायी होती तो दीदीयों की ज़िन्दगी कितनी अलग होती. बिन मेहनत किये एक
झूठमूठ सी ग्रेजुएट की डिग्री तो है, पर अपने ही नन्हे बच्चों को पढ़ा पाने की
काबिलियत नहीं है. बैंक में अपने अकाउंट तक को समझने की औकात नहीं है, नौकरी तो
बहुत दूर की बात हो गयी. फिर ऐसी डिग्री से क्या लाभ?
शिक्षा गर डिग्री की
सर्टिफिकेट लेना ही है, तो जीवन भर सर उठा कर, सक्षम हो जीने का सर्टिफिकेट कहाँ
से आएगी? मेरी दीदी ने जब आसाम से ग्रेजुएशन पास की थी, तो बाबा ने सभी को पार्टी
दिया था, मेरी ममेरी बहनों ने कटाक्ष कर कहा था “ग्रेजुएट तो कुर्सी चेयर भी पास
कर जाते हैं”. आज एक बिहार के घर में पली ग्रेजुएट और एक आसाम के घर में पली ग्रेजुएट
में जमीन आसमान का अंतर है. एक घुट रही है और एक आसमान छू रही है. क्या दीदीयों की
गलती थी? कौन गलत था, दीदी, मामा, भाई, स्कूल, बोर्ड, शिक्षा मंत्रालय? कौन जिम्मेदार है? सोचता हूँ
तो सिर्फ इस सोच को गलत ठहरा सकता हूँ... जो कहती है ग्रेजुएट को ही बेंक, स्कूल, कॉलेज,
फेक्टरी आदि में नौकरी मिलेगी. किसी ने भी यह नहीं कहा कि कपडे सिलना आता हो तो
दर्जी की नौकरी मिलेगी, बाल काटना हो तो नाई की, ज्ञान है तो शिक्षक. नौकरी पाने के
लिए एक ही लाइन खिंची हुई है : ग्रेजुएट. शादी तक में ग्रेजुएट लड़की ही चाहिए. बस लग गए लोग होड़
में ग्रेजुएट बनाने के लिए. डिग्री लेने के लिए, मेट्रिक पास होने के लिए चाहे
खुद की नैतिकता का बलिदान क्यूँ न करना पड़े. आज सोचता हूँ, आज ममेरी दीदीयों के हाल का
गुनाहगार कौन?
सिहर जाता हूँ जब याद
आती है, मामा की वही आवाज़ “चल, परीक्षा दिला आये..”?