Mar 30, 2015

छोटी सी बात : बड़ी खुशियाँ [२]

सोचिये तो छोटी सी बात है. किसी दिन किसी विषय को ले कर मंथन कर जाना और शब्दों को पीरा एक कथन कह जाना ही हम ब्लोगरों की आदत होती है. और जब वह कही हुई बात को कोई सैकड़ों ख्यालों से चुन कर एक जगह सजा देता हैं, तो खुशियों से भर जाते हैं हम. हाँ एक पोस्ट हमने लिखी थी और indiblogger के एडिटर साहेब ने उनका उल्लेख अपनी Indiblogger Weekly Digest में कर दिया तो हम खुशियों से झूम उठे.… शुक्रिया साहब.....

and mentioned on 


Mar 24, 2015

कुरमुरी मिसेज गुप्ता...

Yoghurt Parfait
सबेरे सबेरे चौपाल पर पंहुचा, और ददुआ चाचा से चाय की एक फरमान लगायी. ददुआ चाचा ने चाय की गरम ग्लास पकडाई तो मेरी नज़र उनके मुस्कुराहट पर पड़ी.  मुस्कराहट से झुर्री भरी चेहरे कर कई नए लाइन भर आई थी. उनकी चाय की तरह ही चेहरे पर आज अदरकी मुस्कान थी. थोड़ी तेज़ थोड़ी, शरारत भरी. आँखों के भवों को नचाते हुए, बिन कुछ कहे पूछ रहे थे, कि क्यूँ मियां, क्या चल रहा है. ददुआ चाचा ऐसे तो न थे, इतनी शरारत!! पूछ ही बैठा “क्या चाचा, बडे मुस्कुरा रहे हैं. बात क्या है?” ददुआ चाचा ने मंद मंद मुस्कुराते, चाय के चासनी में चक्रवात पैदा करते आहिस्ते से पूछ ही लिया “क्यों म़ियाँ, बड़े गुप्ता जी के घर नाश्ते किये जा रहे हैं आजकल?” ददुआ चाचा को आज क्या हुआ बडे रोमानी हो रहे हैं. आजतक तो ऐसी बात नहीं छेड़ी थी. गुप्ता जी की बात छेड़ते ही, यूँ लगा जैसे भावनाओं की सुनामी उठ आई थी. ये क्या पूछ लिया था ददुआ चाचा ने? गुप्ता जी महीने भर पहले ही गाँव में आये थे, यहीं पास के शहर से तबादला हुआ था. पूरी परिवार बड़ी मिलनसार थी. गाँव के लोगों में अपना स्थान बड़ी जल्दी बना लिया था. मिसेज गुप्ता बिलकुल आधुनिक ख्यालों वाली थी, न पर्दा न घूँघट. कॉर्नफ़्लेक्स के दाने सी खनखनाती हंसी, पॉपकॉर्न से फडफड़ाती जिंदादिली, भुट्टे सी छरहरी मिसेज गुप्ता, कई अरमानों को जनम दे जाती. समोसे के परत से कुरमुरी मिसेज गुप्ता पर दिन में कई बार दिल आ जाता. कहते हैं न, मर्द के ज़िन्दगी में एक सिक्का होता है, जिस के दो पहलू होते हैं, हेड और टेल. टेल पर हमेशा उस सिक्के की पहचान एक नंबर में लिखी होती है जो बदलता नहीं और हेड बदलते रहती है. अपने सिक्के में, टेल वाली चेहरे पर, भरीपूरी, शर्माती, सकुचाति, चिल्लाती, परेशानियों से घिरी, सूती के साड़ी में लिपटी घरवाली होती हैं. ज़माना कितना भी बदल जाए टेल के चेहरे से शिकन नहीं हटता. सिक्के के हेड पर गाँव की  छरहरी, मुस्कान बिखेरती, जिंदादिली को समेटे, सलवार कमीज़ में खुद तराशे, हंसी के खनखनाहट से भरी पड़ोसन की छाप इंगित होती है. जमाना बदलता है, सिक्के पर से हेड बदलता है. भले सिक्के के टेल से सिक्के की पहचान होती है, पर हेड की बात हमेशा पहले ही होती है. मिसेज गुप्ता आज हमारी सिक्के की हेड थी, कई बार शादी के रिकॉर्ड पर रिवाईंड बटन दबा कर अपने टेल को हेड से बदलने की कोशिश भी की थी, पर कल्पना तो बस कल्पना ही होती है. सहसा जन्मे इस सुनामी को समेट ही रहा था कि ददुआ चाचा की नकली खखारने की आवाज़ से मोह भंग हुआ. देखा तो ददुआ चाचा अदरक कूट रहे थे पर अदरक के रस आज चेहरे से जा ही नहीं थे.
“अरे नहीं चाचा, ऐसा कुछ नहीं है, बस गुप्ता जी के परिवार बड़ी मिलनसार है. बहुत कुछ सिखने सिखाने को मिलता है. बच्चे भी बडे प्यारे हैं. सो आना जाना थोडा चलते रहता है.” अपने रूमानी तबियत को थोडा छिपाते, ददुआ चाचा को कहा. “मिसेज गुप्ता बहुत बढ़िया खाना बनती है चाचा, एक दो आईटम आप भी सीख लो. दूकान पर बनावोगे तो अच्छी चलेगी. अरे आजकल तो सेहत के पीछे चलने की बुखार आई है. ये नए लौंडे, लौंडियों को तेल के समोसे अच्छे नहीं लगते, ओट के कटलेट, कोर्न्फ्लाके की भुजिया पसंद आती है. हमने तो चखा भी है, सीखा भी हैं. बड़ी अच्छी बनाती है. कटलेट सीख लो, कम तेल में Kellogg's Oatmeal   की जो करारी कटलेट बनाते हैं, बनारसी कॉर्न मटर,  नखरेवाला नाश्ता, ये तीन आईटम तो आप यहाँ भी दूकान में बना सकते हो. नए खून वाले लौंडे हों या गाँव के बुजुर्ग, सभी को पसंद आएगा..” चाचा की अदरखी मुस्कान की जवाब अपने ज्ञान और नसीहत से दे, कर चाय की अंतिम चुस्की ली और निकल पड़ा घर को.


चप्पल समेटते निकल पड़ा, आज कुछ नए उत्साह था, आज फिर मिसेज गुप्ता के यहाँ नाश्ते पर दावत थी. हमे बताया था कि बड़ी सेहतमंद नाश्ता है. और, हमारे डायबिटिक के लिए तो बहुत ही फायदेमंद. उनका मेरे तबियत पर चिंता व्यक्त करना बड़ा अच्छा लगता है, रब झूठ न बुलवाए. सोचा चलो इसी बहाने ही सही नाश्ते की दावत भी उडा लेंगे और उसको बनाने का तरीका भी सीख लेंगे. आखिर अपनी टेल को भी कुछ सेहतभरी खाना बनाने और खाने की नसीहत दे देंगे. चल रहा था तो “Yoghurt Parafait” सीखने की उत्सुकता चाल में झलक रही थी. छरहरे ग्लास में दही, ताज़े फल, स्ट्रावेरी के लालिमा के संग KellogMuesli के नाश्ते को चखने की उत्साह ग्लास से निकल निकल कर आ रही थी. ग्लास की झलक रोमानी मन को कुछ और तरीके से जोड़ रही थी..... अब ये न पूछिये किस से??

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Mar 22, 2015

चल, परीक्षा दिला आये..

Bihar exam
नींद खुली तो देखा कोहराम सा मचा हुआ है. आँगन से बर्तन धुलने की आवाज़ आ रही थी, वहीँ कोई चापाकल से पानी निकाल कर नहा रहा था. मामा भी आज घर पर थे, वर्ना रोज़ नींद टूटने से पहले तो वो लोकल ट्रेन से पटना के लिए निकल पड़ते थे. चचेरे भाई आज घर आये हुए थे. औंधियाए मन से, हर एक चीज़ पर ध्यान जा रहा था. बिस्तर न छोड़ने के लिए आलस्य ने रोक रखा था. कहीं हंसी मजाक चल रहा था, तो दीदियाँ टेंशन में कुछ बडबडा रही थी. आज से करीब तीस साल पहले की बात है, ननिहाल का ये माहौल था, बड़ा घर था, संयुक्त परिवार था, सब साथ रहते थे. पर जो भी हो इतना माहौल नहीं होता था. बडबडाया “कहीं कोई त्यौहार तो नहीं”. अब आसाम में जन्मे और वही बड़ा होने का यही तो नुक्सान होता है कि कब त्यौहार है पता ही नहीं रहता. आँख मीचते हाल्फ पेंट सँभालते उठा, देखा तो सचमुच त्यौहार सा माहौल था. दो ममेरी दीदीयों का मेट्रिक की परीक्षा थी. सारी तैयारी, सारी हलचल इसी वजह से थी. अरे हमारे आसाम में, घर में तो मेट्रिक के परीक्षा के वक़्त तो सन्नाटा छाया रहता था. दीदी, भैया किताबों में डूबे रहते थे, माँ की बोलती बंद रहती थी, पर हाँ, अच्छे खाने की शुरुआत कई दिनों पहले से हो जाती थी, बाबा छुट्टी ले कर पढाते रहते.
माँ से चिपक कर अलसाते हुए हमने पूछा, “क्या है आज माँ?” माँ कुछ कहती, मामा ने कहा “आज तेरी दीदीयों का मेट्रिक परीक्षा है. चल, परीक्षा दिला आये.” परीक्षा दिलाना क्या होता है, पता नहीं था, घुमाने ले जा रहे हैं सोच कर, तो चहक कर तैयार हो गया. ब्रश किये, पानी के छीटें मार कर जल्दी जल्दी नहा लिए. हाफ पेंट, शर्ट, चप्पल पहने. भीगे बाल को कंघी किये. “मैं तैयार हो गया, चलिए, हाँ, रास्ते में पूरी-जिलेबी खिलाईएगा.” करारी छोटी-छोटी जिलेबी और वैसी ही छोटी सी पुरियों का, अलग ही स्वाद होता है. आज तक बचपन के जलेबी की मीठी स्वाद होठों पर अटकी  हुई है. सब निकले, दोनों दीदियाँ एक दम आश्वस्त थी. ऐसा लग रहा था कि कोई भी सवाल आये, दनादन जवाब दे डालेंगी. पर पढ़ती  थि. मैंने सोचा,,, मामा जी, दो भैया, एक पडोस के बबलू भैया भी आये थे, एक भारी भरकम झोला था, शायद टिफ़िन थे और ढेरों किताब थी. चप्पल फटफटाता मैं, उनके जोश से भरे क़दमों को साथ देता, चले जा रहा था. घर से बस स्टेंड फिर वहां से एक दूर दराज़ के गाँव तक जाना था. “गाँव में परीक्षा क्यों है, पढ़ती तो घर के पास ही हैं.” कौतुहलवश दीदी से पूछा तो, कहा उन्होंने, “यहाँ परीक्षा सेंटर ऐसे ही पड़ते हैं”. बड़ा हुआ तो पता चला कि, लोग हज़ार-हज़ार रुपये खर्च करवा कर, बिहार बोर्ड से जुड़े दलालों द्वारा परीक्षा सेंटर गाँव में करवाया जाता था. सेंटर का फैसला बहुत अहम् होता था. सेंटर का निरीक्षक कौन है, किस स्कूल में है, स्कूल की बिल्डिंग कैसी है, वहां  पर चोकीदार कैसे हैं, कितने लोगों का सीट है, आदि. सभी कुछ का विवरण इन दलालों के पास होता था. विवरण देख सेंटर का रेट बनता. फिर दलाल से बोर्ड, बोर्ड से स्कूल, स्कूल से निरीक्षक सभी का सेंटर के रेट में हिस्सा बनता था. जहाँ जितनी आज़ादी उतना दाम.

सेंटर पहुचे तो देखा, जितने परीक्षार्थी थे उनसे ज्यादा अभिभावक. एक उत्सव सा माहौल था. सेंटर के बॉस शामियाने में दूकान खोल दिए गए. खानपान का पूरा प्रबंध था. हमारे यहाँ आसाम में दीदी के मेट्रिक में तो ऐसा कुछ नहीं हुआ था. यहाँ सब लोग कितने उत्साहित हैं, दीदी के सेंटर में तो सन्नाटा छाया रहता था. बालक मन समझने की कितनी कोशिश करता. फिर, दौड़ कर जिलेबी पूरी खाने भाग जाता. खा कर आया, तो देखा परीक्षा की घंटी बज चुकी थी. दोनों दीदी परीक्षाहाल में थी. पड़ोस के बबलू भैया इतिहास में अच्छे थे, तभी आज आये थे मामा के साथ. हम सब घंटी बजते ही खिड़की के पास आ कर बैठ गए. ममेरा भाई खिड़की के पास खड़ा हो दीदी से प्रश्न पढ़ने को कहा, फिर जल्दी जल्दी नोट कर लिए. जैसे ही प्रश्न मिलते, बबलू भैया किताब और गाइड से प्रश्न का उत्तर देखते और कागज़ में उत्तर लिख दिया जाता या किताब से फाड़ कर दीदी को पकड़ा दिया जाता. अब समझ आया दो दो किताब-गाइड क्यों थे.  दीदी जो खिड़की के पास थी, उन्हें तो चिट सीधा मिल जाता. दूसरी दीदी दुसरे रूम में खिड़की से दूर थी. मामा जी ने वहां के निरीक्षक से बात कर रखी थी. उन्हें कागज़ पकड़ा देते, वो दीदी को दे देते. ऐसा ही चलता रहा जब तक सारे सवाल के जवाब नहीं लिखवा दिए गए. बालमन सोचता कितना अच्छा हैं न, सारे सवाल के जवाब खुली कताब से मिल जाते हैं. हमे तो समझना और रटना पड़ता है . झाँक कर भी लिखने की इजाजत नहीं होती. बड़ा हुआ तो पता चला की सब फेसिलटी दलाल के फीस में ही थी. परीक्षा की तैयारी सिर्फ सेंटर तक ही नहीं होती. किस सेंटर के पेपर किस निरिक्षक के पास जाएगा, इसका पता लगाया जाता. उनके अपने दलाल होते जो अपनी रेट कार्ड दिखाते. किस डिवीज़न में पास होना है, उसके ऊपर रेट फिक्स रहता. यदि किसी परीक्षार्थी का टांका सेंटर में नहीं लगा और नक़ल  न हो सका, तो वो अपने कॉपी पर सिर्फ परीक्षार्थी नम्बर लिख कर छोड़ देते. निरीक्षक अपने दलाल विद्यार्थियों के हाथों कॉपी में उत्तर लिखवा  दिए जायेंगे. इसके अलग से रेट होते. दोनों दीदी के लिए पैसे दिए गए थे. पूरी की पूरी सेटिंग हर छोर पर किया था मामा ने.
रिजल्ट आया तो हमने सुना था कि दोनों दीदी फर्स्ट क्लास में पास हुई थी. मामा ने मोहल्ले में लड्डू बटवाई थी कि दीदी फर्स्ट क्लास पास हुई हैं. अब सोचता हूँ, मामा ने इतनी मेहनत उन्हें पढाने में लगायी होती तो दीदीयों की ज़िन्दगी कितनी अलग होती. बिन मेहनत किये एक झूठमूठ सी ग्रेजुएट की डिग्री तो है, पर अपने ही नन्हे बच्चों को पढ़ा पाने की काबिलियत नहीं है. बैंक में अपने अकाउंट तक को समझने की औकात नहीं है, नौकरी तो बहुत दूर की बात हो गयी. फिर ऐसी डिग्री से क्या लाभ?
शिक्षा गर डिग्री की सर्टिफिकेट लेना ही है, तो जीवन भर सर उठा कर, सक्षम हो जीने का सर्टिफिकेट कहाँ से आएगी? मेरी दीदी ने जब आसाम से ग्रेजुएशन पास की थी, तो बाबा ने सभी को पार्टी दिया था, मेरी ममेरी बहनों ने कटाक्ष कर कहा था “ग्रेजुएट तो कुर्सी चेयर भी पास कर जाते हैं”. आज एक बिहार के घर में पली ग्रेजुएट और एक आसाम के घर में पली ग्रेजुएट में जमीन आसमान का अंतर है. एक घुट रही है और एक आसमान छू रही है. क्या दीदीयों की गलती थी? कौन गलत था, दीदी, मामा, भाई, स्कूल, बोर्ड, शिक्षा मंत्रालय? कौन जिम्मेदार है? सोचता हूँ तो सिर्फ इस सोच को गलत ठहरा सकता हूँ... जो कहती है ग्रेजुएट को ही बेंक, स्कूल, कॉलेज, फेक्टरी आदि में नौकरी मिलेगी. किसी ने भी यह नहीं कहा कि कपडे सिलना आता हो तो दर्जी की नौकरी मिलेगी, बाल काटना हो तो नाई की, ज्ञान है तो शिक्षक. नौकरी पाने के लिए एक ही लाइन खिंची हुई है : ग्रेजुएट. शादी तक में ग्रेजुएट लड़की ही चाहिए. बस लग गए लोग होड़ में ग्रेजुएट बनाने के लिए. डिग्री लेने के लिए, मेट्रिक पास होने के लिए चाहे खुद की नैतिकता का बलिदान क्यूँ न करना पड़े. आज सोचता हूँ, आज ममेरी दीदीयों के हाल का गुनाहगार कौन?

सिहर जाता हूँ जब याद आती है, मामा की वही आवाज़ “चल, परीक्षा दिला आये..”?     

खुशियों के नन्हे बक्से ...

Coca-Cola
खुशियाँ... खुशियाँ भी बड़ी अजीब होती हैं. इन्हें ढूंढो, मिन्नतें करो, आमंत्रण दो, तो मिलेंगी नहीं. बड़ी छलावों से भरी होती है. लोगों को भागते देख हम भी कई बार भागे इनके पीछे, हर बार बेवफ़ा सखी सी इतरा कर ठेंगा दिखा कर निकल जाती हैं. एक बार इनके खोज में ढूँढतेढूँढते कुछ शब्दों से इनके चल को सहेज लिया था.

खुशियाँ, बड़ी अजीब होती है,
बडे बडे डब्बों में
ढेर सारी खुशियाँ मांगो
ठेंगा दिखा कर हंस देती हैं.
पूछो तो कहेंगी
बडे लालची हो...
एक ही बार में
इतनी सारी माँगते हो.
तुम क्या जहाँ में एक हो?
हम क्या सिर्फ तुम्हारे लिए हैं?
चलो हटो,
बड़ी-बड़ी डब्बों में
हमे, हम से न मांगो...  

जब इनका ये मूलमंत्र समझ लिया था,  खुद को रोक कर, हमने इन्हें ढूँढना ही बंद कर दिया था, इनके पीछें भागना  बंद कर दिया. गूढ़ इस मंत्र का बोध बौधिसत्व सा किसी पेड़ के नीचे बैठ कर न आया था.तीन नन्ही सी परी समझा गयी थी. कलकत्ता के एक भीडभाड वाले सड़क के किनारे, किसी के घर के सामने के सीढ़ी पर बैठा, फूटपाथ पर बनाये चाय दुकान की लज़ीज़ अदरक की चाय का चुस्कीयों से लुत्फ़ उठा रहा था. जेठ की दुपहरी में गर्माहट को हवाओं के झोंके एक कोने से दुसरे कोने तक ले जा रही थी. बहती थी तो थोड़ी सुकून दे जाती. रास्ते पर चाक से छोटे बड़े वर्गाकार निशान बनाये, कुछ बच्चियां स्टापू खेल रही थी. पत्थर के ढेले को एक वर्ग में फैंक कर, एक पैर से एक बॉक्स से दूसरी बाक्स को कूदती. बच्चियां वही बगल में फुटपाथ पर डेरा जमाये अपने परिवार के संग रहती थी. बुलाया एक को तो तीनों  बच्चे एक साथ, अपने खेल को रोक कर आ गए. नाम पुछा: “मैं झीलमिल, ये लाली, और वो राखी है.” नहाई नहीं थी झिलमिल, उसके शरीर पे जमे मैल से प्रतीत हुआ, नाक बह रही थी, बायें हाथ से बांह से जो नाक खीचा की हाथ पर एक लम्बी लकीर बन आई. बहुत हंसी आई. ठीक ही सोचा था, तीनों वही पास के राते में रहती थी. बांग्लादेश के किसी गाँव से आई थी. उन्हें माँ ने बताया था, कोलकाता में बाबा को कुछ काम करने को मिल जायेगा, फिर वो भी स्कूल जायेंगी, वो भी घर में रहेंगी. कई महीने हो गए थे, बाबा कभी ठेले से सामान उठाते है, तो कभी कुछ लोगो से पैसे ले लेते हैं, उसी से रात को खाने को मिल जाता है. शायद, काम न मिलाने पर नौबत भीख माँगने तक की आ गयी थी. बच्चों के सपने, पत्नी का सुख सबको मिट्टी से सने एक झोले में बाँध वो परिवार यहाँ आया था.

हमेशा से गरीबी को आलस्य से जोड़ कर देखने वाला मैं, एक नन्ही सी परी के नज़रों से समझ रहा था. समझ आया मजबूरी गरीबी देती है, आलस्य ही एकमात्र नहीं कारण नहीं होता. परिश्रम से झिलमिल भी कभी अपने सपनो की राजकुमारी बन पाए. बच्चों के खेल उनकी किलकारियों से भरी थी. बातें हो रही थी, दादा दादा (भैया) कर रही थी और हर सवाल की जवाब दे रही थी झिलमिल. धुल सनी झिलमिल की चेहरे पर सजी मुस्कान में बड़ी तेज़ी थी. आँख के कोने से देखा लाली बगल के दुकान के बाहर पड़ी डस्टबिन से एक पेपर के ग्लास को उठा लायी थी. देखा तो कोल्ड ड्रिंक की ग्लास थी. उसे देख कर झिलमिल भी दौड़ पड़ी. क ग्लास में थोड़ी सी छोड़ी हुई कोल्डड्रिंक थी. तीनों ने एक एक चुस्की ली. चेहरे पर शायद हज़ार वाट का बल्ब जल उठा था. हँसते हुए फिर दौड़ आई. जब मैंने पूछा तो हस कर कही .. “दादा, कोका कोला है”. “अच्छा लगता है तुमलोगों को, पहले कब पिया था” मैंने पूछा. “हम तो रोज़ पीती हैं. वह दूकान वाले जब भी थोडा सा बच जाता है, डस्टबिन के पास रख देते हैं और हम लोग पीते हैं. बहुत स्वाद  आता है.” चहक रही थी तीनों.

“चलो, आज मैं तुम्हे पूरा गिलास पिलाता हूँ”. चाय का पैसा दे कर हम तीनों परियों के साथ दूकान पहुचे. सभी को एक-एक अंडा का रोल, जो कलकत्ता की सबसे लोकप्रिय खाना है, और एक एक कोका कोला दिलाया. चहक रही थी तीनो. मिल कर हमने खाया कई बातें हुई. बहुत खुश थी. निकला तो लाली और झिलमिल ने कहा “फिर आईयेगा, दादा”. CocaCola के ग्लास में लगा कभी न ख़तम होने वाली जादू आ गयी थी. चुस्की लेते जा रहे थे  तीनों और पीये जा रहे थे. झिलमिल, लाली और राखी से विदा ले, रास्ते के भीड़ मैं कब खो गया पता ही नहीं चला. मन में एक ही विचार  थे, आज ऐसी ख़ुशी क्यूँ महसूस हो रही, मन इतना हल्का क्यूँ है, मेरे नज़र आज इतने चमक क्यूँ रहे है... क्या हुआ है मुझे? सोचा तो महसूस हुआ,  हाँ ,खुश था उस पल. ख़ुशी ढूँढने नहीं निकला था. एक पल मिला था, नन्हे परियों के संग. उसी क्षण को उनके संग, मैं जी गया था. वर्तमान में जीते हुए उस लम्हे को जी गया. झिलमिल की मुस्कान नयी सबक दे गयी, धुलभरे चेहरे में चमकती मुस्कान बता गयी, खुशीयाँ ढूँढने से नहीं मिलती, ज़िन्दगी जी जाने से मिलती है और खुशियाँ छोटे छोटे बक्सों में ही आती है.
शायद Coca-Cola भी तो यही कह जाती है :  CocaCola : Little drops of Joy.

Coca Cola से भरी  ग्लास को जब देखता हूँ, ग्लास से सटी सोडा के बूंदों एहसास दिलाती हैं कि पीने का मजा भरे ग्लास में नहीं है, उन नन्ही नन्ही बूंदों में है जो अपने में समेटे हुए है एक उर्जा जो खुशियाँ दे जाती हैं. ठीक ज़िन्दगी की तरह, खुशियाँ बड़े बक्सों में नहीं, नन्हे क्षनिकवों में हैं, लम्हों के नन्ही बूंदों में हैं....      
   
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शुक्रिया Coca-Cola : नन्हे से एक बक्से से खुशियों को फिर जीवित करने के लिए 

     

Mar 16, 2015

Little Monster.....

Credits : ParaGliding
लहरों का दूर दूर से वेग भरे आना और समुन्दर के तटों से टकरा कर बिखर जाना, लहरों का तट पर आ कर रेत को भीगा जाना. बिखरते भीगते इस मंज़र पर भीगे रेत पर लेटे घंटों समुन्दर का शोर सुनना मुझे बहुत ही पसंद था. ठंडी हवाओं का बह कर बदन छू जाना, मुझे भरी धुप में भी रोमांचित कर जाती हैं. बंद आँखों से इन नजारों में खुद को डूबा जाना, आसमान पर परिंदों का अठखेलियाँ करते देख सवाल उठता “हम इन्सान क्यूँ है?” परिंदों को देखो, नन्ही सी जान, एक गंतव्य से दुसरे गंतव्य तक बिना किसी सहारे, बिना किसी बंधन, स्वछंद मन से उड़ती जाती हैं. कितना स्वछंद हैं. आसमान में उड़ते ये परिंदे, आसमान से ऊँची घमंड रखने वाले इन्सानों को, कितने छोटे, कितने बंधे, कितने जमीन से गडे देखते होंगे. सोचता था काश मैं भी कभी इन परिंदों सा स्वछंद आसमान में उड़ पाता.

अरमानों की कोई सीमा नहीं थी. पहली मजिल से नीचे देख, भयभीत होने वाले इन्सान के अरमानों के सूचि देख हंसी आती थी. डर लगता था ऊँचाई से हमे; सो, उड़ान भर पाने की कोई आशा संजोयी नहीं थी कभी भी. कुछ महीने पहले की ही तो बात थी, भीगे रेत पर लेटे अपने दस साल के बेटे के साथ आसमान के परिंदों को देख रहा था. बीच-बीच में मोटरबोट की आवाज़ से नज़र हटती और आसमान पर पैरा सेलिंग करते, रंग-बिरंगे पैराशूट पर लटक कर उड़ते इन्सानों को परिंदों से रेस लगाते देखते. “लिटिल मॉन्स्टर” अपने बेटे को यही बुलाता था “कितना मजा आता होगा न उड़ने में?” दस साल के उम्र में, उसके माँ ने खुद सा निडर बना डाला था. उसे रफ़्तार से, ऊँचाई से, समुन्द्र में नहाने से भी डर नहीं लगता. ठीक, हमसे विपरीत था मेरा “लिटिल मॉन्स्टर”. हँसते हुए कहा था "आप क्यूँ नहीं कोशिश करते एक बार. एक बार उड़ कर तो देखिये. बहुत मजा आता है. Let’s fly #together.” ये बात नयी नहीं थी हम दोनों में. हर बार हम सरदर्द, पेट दर्द का बहाना बना कर टाल देते थे. बेटे के सामने कमजोर जो नहीं दिखना था. “ऊँचाई से डर लगता हैं”, सच्चाई कह दी हमने, बहाने बनाने की कोई इच्छा नहीं थी. बहुत जोर से हंसा था वो. हँस-हँस कर माँ के पास दौड़ कर सुना आया. डर अब तक उसने महसूस नहीं किआ किया था.

कहते हैं, कि एक उम्र आने पर बच्चे अपने बड़ों के मार्गदर्शक बन जाते हैं. हाथ  थाम कर, बेटे ने मासूमियत से कहा : “Let’s Go Dad . We will fly #together. हम दोनों एक साथ उड़ेंगे, तो आपको डर नहीं लगेगा. मुस्कुरा कर पूछा था, हमने, “सच पापा?”. ऐसा लगा कि अचानक बेटा बड़ा हो गया है. हिम्मत जुटाई और हामी भर दी. सोचा, आज उड़ने की कोशिश कर ही लिया जाए. पहुंच गए काउंटर. डरपोक लोगों के पास तो बहाने कई होते हैं. पत्नी से कहा “नहीं जा रहा हूँ इसके साथ, क्यूंकि एक साथ तीन लोगों के लिए जगह नहीं होगी". बेटा, मैं और उस दूकान का असिस्टेंस जो पैराशूट को आसमान पर संभालता. “कोई नहीं, आप एक पर उड़िए  और, मैं दूसरे  पर.  मैं पहले उडूँगा, फिर बाद में आप. You will feel we are flying  #together. आपको  डर नहीं लगेगा. बेटे ने हँस कर कहा. पत्नी, जो अब तक चुपचाप हंसी थामे देख रही थी,  कहा “आईडिया अच्छा है. Just Go and Fly #together. we are  #together with you today. Trust this moment.”

हिम्मत जुटाई और सेफ्टी बेल्ट पहन लिए . पहले बेटा उड़ा, फिर मेरी बारी आई.  कांपते  हाथ, कांपता पैर, सुखे होंठ, रुँधा गला , आंखें बंद कर, भगवान का नाम जपते कदम बढ़ा दिए. मोटरबोट की आवाज़  बढ़ी, हवाओं की आंधी चली और मैं उड़ान भर गया. जमीन कब छुटी, इन्सान के कद कब कम हुए, पता ही नहीं चली. क्यूंकि आँखें अब भी बंद थी. हिम्मत जुटा कर आंखें खोली, तो सामने बेटा उड़ रहा था. नज़रें नीचे झुकाई। गज़ब नज़ारा था. काले रास्ते ड्राइंग के लकीरों से सीधे दिख थे. पेड़-पौधे घर सभी खिलोनों से दिख रहे थे. किसी चित्रकार की चित्र दिख रही थी, एक तरफ समुन्दर दूसरे तरफ जमीन, इन्सान का कद रेत के दानों से थे. पास ही में, वही परिंदा दिखा, जिसे हम निहारा करते थे. अपने पंखों को एक लय से थामे मेरे संग उड़ रहा था. दोनों हाथों को फैला कर हम सामने के परिंदे सा उड़ने का अनुकरण करने लगे. शरीर और आत्मा स्वछंद हो गयी थी. इंसानों की दुनिया एक तस्वीर सी थम गयी थी. 

पास उडता वो परिंदा मुस्कुरा कर कह गया: 
            “स्वतंत्र होने के लिए पहले उड़ना होता है.”  
आसमान के उंचाईयों से,सब कुछ नन्हा सा छोटा सा लग रहा था. 
            "हाँ, शायद... ऊँचाई का डर भी..." 

सामने मेरा Little Monster परिंदे सा बाहें फैलाये अपने परिंदे के संग उड़े जा रहा था. अब भी जब अटकता हूँ तो Little Monster की बात याद आती है “Let’s Fly #together”.
                               "Let’s fly” is my new mantra…शुक्रिया Little Monster.....
अब हाल ही में हमने पैरा-ग्लाइडिंग की. हज़ारों फिट की ऊँचाई पर उड़ते, हिमालय के आँगन में कई चक्कर लगाये. ये कहानी फिर कहूँगा ...


Thanks Housing.com to help me pen down this moment : https://housing.com/   [ housing.com ]
#together

Mar 15, 2015

मूल....

पूजा,
अराधना
ईज्ज़त,
आदर,
सत्कार,
मोहब्बत,
घृणा,
ज़िद,
हंसा,
रोया,
चिल्लाया,
उपहास की,  
उजाड़ा उसे

सब कुछ
लगभग
सबकुछ कर
देख लिया था
मैंने
ज़िन्दगी : हमे समझ न आई.

अब
समझने की व्यर्थ कोशिश त्याग चूका हूँ
बस जी रहा हूँ....
ज़िन्दगी के संग
समझ गया हूँ.. व्यर्थ है इसे समझने की कोशिश

एक ही मूल है : ज़िन्दगी है, संग जीए जाओ....

Mar 12, 2015

रुबिक क्यूब ....

लाल-पीला-लाल
लाल-लाल-लाल
एक चेहरा सजाता
एक रंग से भरता
दूजा चेहरा बिगड़ जाता
कशमकश में,
कई लम्हों
कई घंटों
कई दिनों को
व्यर्थ कर गया था.
एक ही रंग से
रुबिक के सारे चेहरे
सजा न पाया था..
नाराज़ हो
ताबड़तोड़ घुमा
सबकुछ बिगाड़ दिया..
कमरे के एक कोने में
फेंक निकल आया था 

सहसा,
आज फिर
रूबरू हुआ
छोड़े हुए
उसी रुबिक से
लाल हरा पीला
नीला सफ़ेद, नारंगी
सभी रंग
हर चेहरों पर था
रंगीन
खुबसूरत लग रही थी...
यूँ जैसे ज़िन्दगी ने
अपने लम्हे
हर चेहरों पर संजोये हों

ज़िन्दगी को व्यर्थ ही
रुबिक क्यूब सा
संजोने की कोशिश करते हैं
हर रंग हो तो ही ज़िन्दगी है....



Mar 11, 2015

India's Daughter

की फर्क पेंदा हैकोई तकियाकलाम नहीं है ये मेरा. न जाने क्यूँ बार-बार इस्तमाल कर जाता हूँ. निर्भया  की घटना हुई और फिर जब इस्लामाबाद में नन्हे फरिस्तों का खून हुआ, मन बहुत खिन्न हुआ, देश में बवाल मची. एक ही बात ज़हन में उठी :की फर्क पेंदा है.  देश में एक लहर उठती है और फिर सब कुछ थम जाता है, तब तक जबतक एक और लहर जन्म न ले ले. मैं एक नकारात्मक सोच वाला व्यक्ति नहीं हूँ, एक हाड मांस से बना सुलझा हुआ सकरात्मक इंसान हूँ. मैं नकारात्मक देश के व्यवस्था से और सोच से हूँ. अब देखिये न, निर्भया काण्ड अच्छे अच्छों को हिला गयी थी, काफी रोष बना था देश वासियों में. एक लहर का जन्म हुआ, लगा कि सब कुछ अब बदलेगा. दो साल बाद भी निर्भया के गुनहगार जेल में बैठे बडे-बड़े प्रवचन दे रहे है. निर्भया के माँ-बाप आज भी अपनी चिता दिल में संजोये लाश से घूम रहे हैं.
नए लहर का जन्म बस कुछ दिनों पहले ही हुआ, पूरे घटना को चित्रित करती एक फिल्म बनी : India’s Daughter (#indiasdaughter). एक डाक्यूमेंट्री फिल्म बनी जो टेलीविजन के पर्दों पर आने वाली थी. एक ब्रिटिश फिल्म डायरेक्टर Ms Leslee Udwin ने दो वर्षों के शोध के बाद India’s Daughter को जन्म दिया था. बनने तक तो कोई लहर नहीं उठी थी, प्रचारित होने से कुछ दिन पहले ही बवाल खड़ा हो गया. देश में हंगामा मचा. क्यूँ? समझ नहीं आई हमे. हमारे देश में तो बेटियों के जन्म पर तो हमेशा से ही बवाल उठता रहा है Ms Leslee Udwin के daugther पर बवाल क्यूँ. दो वर्षों तक सोये राजनेता अचानक जग उठे. ऐसा लगा कि अभी-अभी नींद से किसी ने जगा कर कहा होगा बेटी पैदा होने वाली है”. संसद में कुर्सी तोडे गए, सभी महिला सांसदों ने कसम खा ली थी कुछ तो प्रतिरोध दिखायेंगे ही नहीं तो स्त्रीत्व खतरे में पड जाएगा. बहती गंगा में कई पुरुषों ने भी भला-बुरा कह डाला. भय मुक्त मिडिया और स्वछंद मिडिया के प्रहरी मोदी सरकार ने तो स्त्रीत्व के भय से घुटने भी टेक दिए. एक रचनात्मक रचना को देश में बंद कर दिया गया. इस पुरे प्रखंड में हमने कहीं से कोई दर्खाव्स्त नहीं सुनी कि किसी ने भी कहा हो कि फिल्म को सामूहिक प्रदर्शनं पहले समाज के कुछ लोगों को दिखा कर राय बनायीं जाए.
हमने youtube पर देखा तबतक इसे हटाया नहीं गया था. देश में प्रशारण पर रोक थी, देश के बाहर नही. इन्टरनेट के जमाने में इतनी स्वतंत्रता मिल ही जाती है. क्या था, क्या नहीं. किसने क्या कहा?  हम इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते कि दोषी मुकेश सिंह, या बचाव पक्ष के वकील सही हैं या गलत. हम इन लोगों के विचारों की नींदा करते हैं, गलत हैं अशोभनीय हैं. पर, इन विवादों से हट कर जब आप फिल्म देखेंगे तो कई चीजें आपको अच्छी लगेंगी. पुरे फिल्म को Leslee ने कई पहलूवों के ताने बाने में बुना है. फिल्म एक कथा की तरह है, कई किरदार हैं, जिन्हें छोटे-छोटे पलों  में बाँध कर संजोया है. फिल्म में निर्भया की मासूमियत को छु गयी है,  उसके जज्बे को बड़ी सुन्दर तरीके से छुवा है. कैसे एक नन्ही सी गरीब घर की लड़की, ज़िन्दगी में कुछ बड़ा करने की ठानती है. अपने माँ बाप को अपने सपनों में शामिल करती है. डॉक्टर बनने के सपने संजोती है,. माँ बाप को मना लेती है कि शादी के लिए सहेजे गहनों को बेच कर उसके कॉलेज की फीस में खर्च करे. एक बार डॉक्टर बन कर अपने माँ बाप के अलावा गरीबों के लिए काम करने की जज्बा एक नन्ही सी लड़की ने संजोया था. माँ बाप सब कुछ परित्याग कर उसके सपनों में समर्पित हो जाते हैं. कई बार आंसुओं से भरी माँ की आंखें चमकती है और रो उठती हैं.

Mar 10, 2015

निर्णय..

credits
कभी कभी लिखने के लिए हमे कोई प्रेरणा नहीं मिलती. कितने भी शब्दों को कुरेदो, गुद्गुदावो, समेटो, शब्द स्याही से उतर कर पन्नों पर आते ही नहीं हैं और कभी एक नन्हा सा झोंका अलसाया सा आता है और जहन में दूर तक समां जाती है. एक नन्हा सा झोंका  न जाने कैसे कहाँ से ले आया, अतीत के कईं पन्नों को पलट गया. धुल से भरे कई पन्नों को झाड कई पन्ने हम एक बारगी फिर पढ़ गए. उन्ही पन्नों को कुरेद, धुल हटा एक वाकया शब्दों में पिरोने के लिए तैयार हो गयी. शब्द कई बार रुकते, शर्माते भागते हमे सुनाने के लिए मजबूर करने लगे हैं. हर वाकये की तरह शुरुआत शायद वहीँ से होगी, “बात उन दिनों की है”. बात उन दिनों की है जब हमने अपनी कैरियर की शुरुआत की थी. इंजीनियरिंग ग्रेजुएशन ख़त्म हुई थी और एक सर्विस इंजिनियर के हिसाब से एक बड़े से कम्पनी में नौकरी लगी थी. देहरादून के ठंडी वादियों में दो महीने की ट्रेनिंग थी. जनवरी के माह में सबेरे सबरे उठ कर तैयार हो कर नाश्ता करने तक को जाना एक बहुत बड़ी काम थी. आर्मी के रिटाएर कर्नल ने तो गजब ढा रखा था. बड़ी मेहनत होती. सबेरे से ले कर देर रात तक ट्रेनिंग चलती. ट्रेनिंग ख़त्म हुई तो लगा कि एक बार फिर हम स्कूल की बंदिशों से छूटे हैं. देहरादून से हमारी ट्रान्सफर कलकत्ता हो गयी. यहाँ रह कर कम्पनी के और नए गुर सीखने थे. फिर दो महीने की ट्रेनिंग. पढ़ने में हम ठीक थे और इंजिनियर हम अच्छे थे ऐसा हमे महसूस होने लगा था. थोड़ी धाक भी जमने लगी थी.    

प्रश्नचिन्ह ....

पार्क के उस कोने में जहाँ झुरमुट को ढालते जंगली पौधों के कई झाड उगे थे,  उसी के पीछे एक बडे से पेड़ पर ओट लगाये कई सपने देखे थे हमने. बड़ा सा वो पेड़ अपनी बड़ी बड़ी भुजावों को पत्तों से ढापे पार्क के बड़े से उस हिस्से को छाया से भर देता था. बड़े से तने पर पीठ टिकाये हम दोनों ने न जाने कितने सपने बनाये थे, कितने बिखेरे थे, न जाने कितने लम्हों को संग संजोये थे. मैदान पर पड़े सूखे कई पत्तों ने हमारे बनते बिखरते जीते पलों को गवाही दी थी. उन्ही पलों में कई पत्ते और टहनियों ने हमारी सपने संजोये थे. घर ?”. हाँ घर के दो अक्षरों के बाद एक बड़ा सा प्रश्न चिन्ह उभर आया था उनके चेहरे पर. कई प्रश्न चिन्ह हमारे जहाँ में भी उभरे थे, जिनका फिसल कर लबों पर आना उनके माथे पर शिकन की लकीर दे जाती. भांप लिया था हमने, मुस्कुराते हुए प्रश्नचिन्ह को दो उँगलियों से उठाया और पॉकेट में डाल लिया.   बिन कुछ कहे पास पड़े कोमल से टहनियों को उठाया और चार खम्भों सा खड़ा कर कहा...चलो बनाते हैं न, एक घर”. लकीरों से टहनियों का घर बनता गया. कुछ पत्तों पर खिड़कियाँ बनी, कुछ पर दरवाज़े. हम दोनों ने एक घरोंदा बना लिया था. प्रश्नचिन्ह के टेढ़े कमर को खीच सीधा कर, एक विजय स्तम्भ घर के सीरे पर लगा गए थे. उम्र से कई वर्ष पूर्व हमने ऐसा खेल खेला था. उम्र के दहलीज़ पर इन्हें दोहराना कहीं न कहीं गूढ़ उद्देश्य दे रहा था, एक आस दिखा रहा था.  बिन एक शब्द के कई पल बुनते गए और एक घरोंदा बना. सपना था वो या एक आस थी या दोनों ही एक दुसरे में समेटे थी.