की फर्क पेंदा है? कोई तकियाकलाम नहीं
है ये मेरा. न जाने क्यूँ बार-बार इस्तमाल कर जाता हूँ. निर्भया की घटना हुई और
फिर जब इस्लामाबाद में नन्हे फरिस्तों का खून हुआ, मन बहुत खिन्न हुआ, देश में बवाल मची.
एक ही बात ज़हन में उठी :की फर्क पेंदा है.
देश में एक लहर उठती है और फिर सब कुछ थम
जाता है, तब तक जबतक एक और लहर जन्म न ले ले. मैं एक
नकारात्मक सोच वाला व्यक्ति नहीं हूँ, एक हाड मांस से बना
सुलझा हुआ सकरात्मक इंसान हूँ. मैं नकारात्मक देश के व्यवस्था से और सोच से हूँ.
अब देखिये न, निर्भया काण्ड अच्छे अच्छों को हिला गयी थी, काफी रोष बना था देश वासियों में. एक लहर का
जन्म हुआ, लगा कि सब कुछ अब बदलेगा. दो साल बाद भी निर्भया
के गुनहगार जेल में बैठे बडे-बड़े प्रवचन दे रहे है. निर्भया के माँ-बाप आज भी अपनी
चिता दिल में संजोये लाश से घूम रहे हैं.
नए लहर का जन्म बस
कुछ दिनों पहले ही हुआ, पूरे घटना को
चित्रित करती एक फिल्म बनी : India’s Daughter (#indiasdaughter). एक डाक्यूमेंट्री फिल्म बनी जो टेलीविजन के पर्दों पर आने वाली थी. एक
ब्रिटिश फिल्म डायरेक्टर Ms Leslee Udwin ने दो वर्षों के शोध के बाद India’s
Daughter को जन्म दिया था. बनने तक तो कोई लहर नहीं उठी
थी, प्रचारित होने से कुछ दिन पहले ही बवाल खड़ा हो गया. देश में हंगामा मचा. क्यूँ?
समझ नहीं आई हमे. हमारे देश में तो बेटियों के जन्म पर तो हमेशा से ही बवाल उठता
रहा है Ms Leslee Udwin के daugther पर बवाल क्यूँ. दो वर्षों तक सोये राजनेता अचानक
जग उठे. ऐसा लगा कि अभी-अभी नींद से किसी ने जगा कर कहा होगा “बेटी पैदा होने वाली है”. संसद में कुर्सी तोडे गए, सभी महिला सांसदों ने कसम खा ली थी कुछ तो प्रतिरोध
दिखायेंगे ही नहीं तो स्त्रीत्व खतरे में पड जाएगा. बहती गंगा में कई पुरुषों ने
भी भला-बुरा कह डाला. भय मुक्त मिडिया और स्वछंद मिडिया के प्रहरी मोदी सरकार ने
तो स्त्रीत्व के भय से घुटने भी टेक दिए. एक रचनात्मक रचना को देश में बंद कर दिया
गया. इस पुरे प्रखंड में हमने कहीं से कोई दर्खाव्स्त नहीं सुनी कि किसी ने भी कहा
हो कि फिल्म को सामूहिक प्रदर्शनं पहले समाज के कुछ लोगों को दिखा कर राय बनायीं
जाए.
हमने youtube पर देखा तबतक इसे हटाया नहीं गया था. देश में
प्रशारण पर रोक थी, देश के बाहर नही. इन्टरनेट के जमाने में इतनी स्वतंत्रता मिल
ही जाती है. क्या था, क्या नहीं. किसने क्या कहा? हम इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते कि दोषी मुकेश
सिंह, या बचाव पक्ष के वकील सही हैं या गलत. हम इन
लोगों के विचारों की नींदा करते हैं, गलत हैं अशोभनीय
हैं. पर, इन विवादों से हट कर जब आप फिल्म देखेंगे तो कई चीजें आपको अच्छी लगेंगी.
पुरे फिल्म को Leslee ने कई पहलूवों के
ताने बाने में बुना है. फिल्म एक कथा की तरह है, कई किरदार हैं, जिन्हें छोटे-छोटे
पलों में बाँध कर संजोया है. फिल्म में
निर्भया की मासूमियत को छु गयी है, उसके जज्बे को बड़ी
सुन्दर तरीके से छुवा है. कैसे एक नन्ही सी गरीब घर की लड़की, ज़िन्दगी में कुछ बड़ा करने की ठानती है. अपने माँ
बाप को अपने सपनों में शामिल करती है. डॉक्टर बनने के सपने संजोती है,. माँ बाप को मना लेती है कि शादी के लिए सहेजे गहनों
को बेच कर उसके कॉलेज की फीस में खर्च करे. एक बार डॉक्टर बन कर अपने माँ बाप के
अलावा गरीबों के लिए काम करने की जज्बा एक नन्ही सी लड़की ने संजोया था. माँ बाप सब
कुछ परित्याग कर उसके सपनों में समर्पित हो जाते हैं. कई बार आंसुओं से भरी माँ की
आंखें चमकती है और रो उठती हैं.
रही बात मुकेश सिंह, उसके वकीलों की कथन की. सवाल मेरा सिर्फ इतना है,
क्या हम आज इतने गंवार हो गए हैं कि एक जाहिल गंवार के सोच से प्रभीवित हो जा रहे
हैं. वो इंटरव्यू बहुत ही बकवास था. मैं तो हँसता रहा की ऐसे जाहिल लोग भी होते
हैं. कबूल करना पड़ेगा की ऐसे इंसान सब जगह होते हैं. वो एक रेपिस्ट है एक गुनाहगार
हैं. उसकी बातें एक स्वस्थ मानसिकता के परे है और मैं अपने और कोई शब्द नहीं
खर्चना चाहता.
सवाल फिर उठता है
बवाल किस बात की, वो भी बिन देखे.
हमारा देश तो फिल्मों के लिए मसहुर है. सैकड़ों फिल्म हमारे देश में बनते हैं. कई
कई तरह के विषय पर बनते हैं. हमने तो सब को अपनाया है. यदि हम डाकू फूलन देवी पर
फिल्मे बना सकते हैं, उन्हें राजनेता
बनाने की ह्रदय रखते हैं तो इसे भी अपना सकते हैं. एक बार जरूरत हैं दिल खोल कर
देखने की. बहुत ही प्यारी फिल्म बनायीं है Leslee ने. इस फिल्म से
कहीं न कहीं इन्सानों के हैवानियत के वजूद का एहसास होता है वहीँ इन्सानों के
गगनचुम्बी सपनों को सलाम करने का भी एहसास होता है. आज इन्टरनेट के जमाने में
हल्ला कर के आप प्रदर्शन तो रोक सकते हैं,
लेकिन टुकड़ों में या कुछ दिन बाद ही हर कोई देख पाएंगे youtube पर या किसी और साईट पर. बिन देखे राय बना लेना
कहाँ की समझदारी है.
At the end , I STRONGLY CONDEMN THE ASSASSINATION OF A CREATIVE ART.
एक ही गुजारिश है
फिल्म देखिये एक बार. देखिएगा तो समझिएगा क्या
Leslee ने दर्शाया है.
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
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