Jul 22, 2013

चूडियाँ....

रिश्तों को अचानक टूट जाना, और टूटे ख्वाबों के सहारे जिंदगी जी
जाना कितना कुछ सीखा जाती है जिंदगी .... ऐसे ही याद में कुछ लम्हे....




बक्से पर जमी धुल को
कपडे के टुकड़े से झाड रहा था
कुछेक पल माझी के
शांत नरम गोद में सर रख
जीना चाहता था....

धुल थी कि हटना ही नहीं चाहती,
तह ब-तह परत पड़ी थी माझी की
बहुत कोशिश की तब सन्दूकचे
की तह दिखाई दी...

छोटे से ताले ने तो जैसे
कमान ही थाम ली थी
बक्से की हिफाजत में
ताले का नंबर याद नहीं आ रहा था
शायद उनके जनम दिन का कोड था
लगाया, तो बेमन से ताला खुल गया

बहुत कुछ संजोये रखा था हमने
इस छोटे से बक्से में
माझी के पन्नों के
एक एक  कर कई हिसाब थे
धुल की परतों की तरह ....
तह ब-तह ..कई किस्से थे समेटे हुए..

बक्से को खोला, तो ऊपर ही रखा
एक स्कार्फ था  तुम्हारा,
सफ़ेद कपडे पर, गुलाबी लखनवी कढाई में
लखनउ से लाया था,
हाथ में लिया तो लगा जैसे
आज भी गीले हैं तुम्हारी खुश्बूवों में नहाई
आज भी नर्म हैं तुम्हारी गालों की छुवन सी..

स्कार्फ को होठों से लगाया
एक चुम्बन ली,
चूमना, बहुत भाता था हमे
खोया था कि शीशे सी कुछ गिरने कि आवाज़ आई
देखा...
चूड़ी थी तुम्हारी...
टूट गयी थी .. बहुत प्यार से आज भी इन्हें समेट रखा हूँ...

फर्श पर गिरे कांच के चूड़ी को
हाथ में उठाया, हाँ तुम्हारी ही चूड़ी थी
हरे रंग की सावन की चूड़ी..
चारमिनार के चूड़ी बाजार से लाया था
तुम्हारे काये से खिलती
उन पर शीशे के बूंदे थी.

हरे रंग की साड़ी पर हरी चुडीयाँ पहनी
इठलाती बड़ी खूब लग रही थी
हमारी सालगिरह थी उस दिन
याद है, मंदिर से लौट कर
हमने बहुत प्यार किया था
चूडियों की खनक
पायल के बूंदों से जुगलबंदी करती
मन मोह जाता था

प्यार के उस हसीं पल में
जोरा- जोरी में
कुछ चूडियाँ टूट गयी थी
बच्चों सी लड़ी थी, तुम उनके टूटने पर
नया दिलाने की कसम ली,
तब मानी थी तुम ....
टूटना या तोडना तुम्हे पसंद न था ...
हाँ, तोडना कुछ भी कहाँ पसंद था तुम्हे कभी...

जिंदगी के कई पन्ने रुखसत हुए
न जाने कब, हरी चूडियों ने सुर्ख रंग ढाल लिया
किसी अनजान से तुम्हारा मेल हुआ
और तुम सब कुछ छोड़,
सारे कसमे तोड़,
चूडियों सी तोड़ मुझे
बिस्तर के बुझे सिलवटों के
सहारे छोड़ चली गयी
तोडना पसंद न था तुम्हे
रिश्ते कैसे तोड़ गयी तुम....

टूटे उस चूडियों को
यादों में लपेट
आज भी तुम्हारे साथ
जीए पलों को जीता हूँ
हरी चूडियों सा,
अधियारे कमरे के इस संदुकची में
अपने यात्रा की अंत का आस देखता हूँ
हरी टूटी चूडियों से खुद को टुटा पाता हूँ.....
हरी टूटी चूडियों से खुद को टुटा पाता हूँ....
 

1 comment:

लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.