Nov 18, 2012

काश कि मैं ....

जब मैं नन्हा सा था, नन्ही उँगलियों कों थाम कर लोग पूछते “बड़े हों कर क्या बनोगे?” कभी साफ़ ज़बान तों कभी तोतली ज़बान से अपने मन में जो आता कह देता की मैं क्या बनूँगा और हर बार उस वक्त उस दशा से प्रेरित हुई बातों से मिला जुला रहता. याद है जब ओलम्पिक गेम्स हुई थी तब मैं चिर परिचित मिशा भालू तक बनना चाहता था. रेल गाडी में बैठ कर ननिहाल पंहुचा तों ट्रेन का ड्राईवर बनने की चाहत रखता. रिक्शे वाला चाचा ने गाँव क्या घुमाया कि रिक्शा वाला बनने की मंशा रखने लगा. हर बार कुछ नया होता, हर बार लोग सुनते और मुस्कुरा देते. बनना हमारे हाथ में कहाँ था. सपने बनते बिगड़ते, और अंततः पिता जी की इच्छा से इंजिनियर बन गया. अब जब इंजिनियर बन गया, और अब जब कमाने की इच्छा भी धुंधली हों गयी है, धन से मोह भी कम हों गया है, इंजिनीयर बन कर भी कुछ और बनने का मोह कम ना हुआ. आज एक इन्सान बनने का मोह बढ़ गया है. हाँथ पैर मार रहा हूँ पर पता नही कब एक इन्सान बन पावुंगा..
इन्ही बनते बिगड़ते सपनों में कुछ सपने और जुड़े पर इन्सान बनने की सपने से पीछे ही रहे है....

काश कि मैं ...
काश कि मैं जुलाहा होता
रेशम के फली से
रेशम के सूत कों धार
घिरनी से घिरा
महीन सुतों का धार बनाता
करघे में चढा महीन धारों से
एक अंग-वस्त्र बनाता
वस्त्र में ढंकी वो मेरे
उँगलियों कों स्पर्श कर पाती
अंगोछे के छुवन से
मैं उनके नर्म अंग कों
महसूस कर पाता
काश कि मैं जुलाहा होता
काश कि मैं ....


काश कि मैं ..
काश कि मैं स्वर्णकार हो़ता
स्वर्ण की नन्ही गिट्टियों कों
गर्म कोयले की गिट्टियों से ढला
नन्ही नन्ही बूंदों की
सुन्दर एक पाजेब मैं गढता.
सुन्दर सजे पैरों में उनके
पाजेब कों मैं खुद सजाता..
हर एक डग से उनके
मंजीरों सी खनकती बूंदे
हर डग कों मैं सुनता रहता
हर डग कों मैं जीता रहता
काश कि मैं स्वर्णकार होता
काश कि मैं.....

काश कि मैं ...
काश कि मैं प्रेमी होता
अडिग
दिलेर
दृढ़
सबल एक प्रेमी होता
ह्रदय में प्रगाढ़ प्रेम कों
बाँहों में मैं भर लाता...
सुनी
वीरान
एकाकी
माथे पर उनकी
सिन्दूरी होली खेल मैं जाता
सिन्दूरी होली खेल मैं जाता

काश कि मैं इंशान होता
अपने सपने मैं खुद सजाता
काश कि मैं ....
काश कि मैं ....
१८/११/१२