Aug 8, 2011

तुम बिन ............

रमजान के महीने  
सुबह भी रोजें की फांके सी हुई
आँखें खुली
नज़रें घूमी
बिस्तर की सलवटों को ढूँढा
सलवटें नदारद
और चादर वीरान.
तकिये के गिलाफ़
के तले छिपे
ख्वाब  भी गायब  ....
कमरे मैं फैली
खुसबू तेरे तन की
हवाओं मैं धूमिल धूमिल
कहाँ हो तुम?

निशा के गोद से
छुपा कर तुम्हे
बाँहों मैं ले हम
ख्वाबो मैं सजा
सलवटों  को संग  ले
तकीए के गिलाफों तले
सजा कर
सारी रात
हम संग थे
तों
कहाँ गयी तुम?
क्यूँ नहीं हो संग?
कहाँ हो तुम??

Aug 5, 2011

निर्दयी निर्मोही मौत

एक कविता पढ़ी थी फेसबुक पे अंशु त्रिपाठी के लिखे हुए एक खूबसूरत रचन...कुछ शब्दों से हमारे प्रतिकिर्या:

ऐ मौत!
तू छीन लेती है मुझसे
मेरे प्रियजनों को,मेरे अपनों को
शायद
तुझमें दिल नहीं है
तभी तो दिल के टूटने का दर्द
होता नहीं महसूस तुझे
अपनों से बिछुड़ने का
अकेलेपन का
तुझे अहसास नहीं होता??पर मैं तो हूँ मानव
और
ये हिम्मत है मुझमें
क़ि
टूटने और बिखरने के बावजूद
फिर उठूँ
और
समेटूं अपने आप को
और देखूं भविष्य की ओर
उनकी यादों को सीने से लगाए हुए
जो फिर लौट कर नहीं आ सकते.
अंशु.
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...कुछ शब्दों से हमारे प्रतिकिर्या.
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मौत ने जब सुनी होंगी
कटाक्ष अंशु शब्दों को
कराह वो आज उठी होंगी
निर्दयी निर्मोही क्रूर
शब्दों से त्राह उठी होंगी..

क्यूँ मैं शब्दों से खेलता हूँ ?

पूछते हैं लोग आज कल
शब्दों से इस नए रिश्ते को
पूछते है अब वो आज कल ..
क्यूँ मैं शब्दों से खेलता हूँ ?
शब्दों से सुर क्यूँ रचता हूँ ?
दिल में कहीं प्यार तों नहीं?
प्रेम रस  में, कही
मैं लिप्त तों नहीं?
बगल झांक झाँक कर
आज वो कारण ढूँढ़ते हैं..
शक से हमसे वो
कई सवाल पूछते हैं
ऊँची निगाहों में
हमे देखते है
शब्दों में हम क्या रचते हैं ? क्यूँ रचते हैं?