Feb 27, 2012

बचपन का गाँव -kuch yaadain

बचपन का गाँव
चौपाल पर बैठा जब भी गुज़रे पलों की याद आती, तों सबसे ज्यादा छवियाँ बचपन के पन्नों से निकल आँखों के सामने आ जाती हैं. और इन्ही पलों को जो समय के झुरमुट में कहीं खो जाती हैं, उन्हें दुबारा निकाल कर सजा बैठता हूँ. और सच पूछिए तों मेरे ब्लॉग का नाम चौपाल भी इन्ही किसी पन्नों से आई थी. नहीं, मैं किसी गांव में पैदा नहीं हुआ था या पला बढ़ा था की चौपाल की बातें करू. छुटपन में, हम गर्मियों की छुट्टी में आसाम से  बिहार के एक गाँव अपने दादा जी के पास जाते थे. जेठ की दुपहरी में भी, लू की ना तों परवाह होती ना ही अलसाये सोने की चाह. यही तों एक मौका होता अपने दिल की अरमान निकाल पाने की. जब अलसाये से सब बड़े घर में सोये रहते और धमाचौकड़ी करने की हमारी आज़ादी. निकल पड़ते हम हलफ पैंट में, बिन कुरता गंजी के. हर दिन एक नयी दिन. अड्डा भी कहाँ था, हमारा पुश्तैनी घर. घर क्या  खंडहर था. बड़े खेत खलिहान के हरियाली के बीच हमारे परदादा जी के पिता जी ने अपना बंगला बनवाया था. धीरे धीरे ईंट का वो बंगला समय के साथ ढलता गया और स्थिति जर्जर होती गयी. कब, कैसे और क्यूँ एक बंगला जर्जर हुई कभी सोचा नहीं. पर हाँ हम उसे “दलान” कह कर बुलाते थे. वहाँ गाँव के बुजुर्ग तब भी मचिया डाले शाम और सबेरे गप्पों की सिलसिला लगे करते. वहीँ एक ऊँची सी ईट की चबूतरा थी एक बड़े पेड़ की ओ़ट लिए. यही चौपाल थी जिसकी छाप हर वक्त आँखों में आज भी सजती है. नंग धडंग हाफ पैंट में कई कई शामें और सुबह गुज़रे थे, बालपन की दिमाग से इतनी समझ आती कि लोग दूर-दुनिया की बातें करते, घर बाहर के परेशानियां हल होती, साधू संत आते तों बिचार-विमर्श भी लंबा होता. यही था चौपाल, मेरा अपना चौपाल.

Feb 26, 2012

मोल

अपनों के मंडी में
समय के सिकडों से
बंधा
लहूलुहान
त्रस्त
निरस्त
बेचैन मैं,
और खुद कों
रिश्तों में बेचता मैं.

ना कोई सौदा हुआ
ना कोई मोल लगा
रिश्तों से भरे
सौदागरों में
खुद कों कहीं भी
ना बेच सका.


27/2/12....

ऑवर-ग्लास

बचपन से सुनते आया था कि वक्त थम जाते हैं, समय ठहर जाता है.. हमने जो सुना था जो पढ़ा था उन्हें मानते गए. कभी रुक कर, एक पल ठहर कर, सोचने की कभी कोशिश ही नहीं की. बस जो सुना था जो पढ़ा था उसे एक गिरह की तरह बांध लिए और कहीं कोने में उन्हें संभल कर रख लिए. जब भी कुछ होता तों उन्हें टटोल कर वापस लाते और कह देते की हाँ शायद समय ठहर गया है वक्त ठहर सी गयी है. वर्ष बितते गए, कभी किसी ने हमसे इनके ठहर जाने का या बहते जाने का किसी पर ना तों कोई बवाल मचाये ना कभी हमे चुनौती दे कर फिर से इन्हें सोचने पर मजबूर किये. ठीक एक वर्णमाला की तरह जिसके लय का होना या ना होना, हमने कभी चुनौती नहीं दी. “क” के बाद “ख” का होना या “य” के बाद “र” का..आज तक कभी हमने चुनौती नहीं दी. बस मान लिया. तों आज समय का ठहर जाना या बहते जाने पर एक बवाल क्यूँ है मन में. गलती नहीं थी.. इस बार भी हमने कोई बवाल नहीं मचाई थी. मेज़ पर पड़े अपने “सेंड क्लोक” के साथ खेलते खेलते मन ए बात आई. “आवर ग्लास” के एक चैम्बर से बहते हुए रेत कों ऊपर से नीचे बहते देख, मन में ख्याल आया की यूं ही समय, रेत के एक एक दानों से बनी हैं, जो जिंदगी के लम्हों की तरह हैं. एक एक लम्हे हम जीते हैं और समय के एक कटोरे में ढालते जाते हैं. लम्हे बनते रहते हैं और बहते रहते हैं. कितनी सच्चाई है की समय बहती रहती हैं, एक दोने से दूसरे दोने में. यूँही उधेड़ बूंद में ध्यान से देखा की कुछ बुँदे थी जो रेत की तों थी, पर अलग रंग की थी. सेंड क्लोक के शीशे में चिपकी सी पड़ी थी. कई बार कोशिश की कई बार हिलाए डुलाये पर वो चिपकी ही रही. दृढ़ थी. समय ने कुछ खूबसूरत पलों के तरह अपने संग संजोये रखा था शायद. सब रेत बह जाते सिर्फ वही अपने स्थान कों नहीं बदलती... शायद इसे ही समय का ठहर जाना कहते होंगे ..शायद यहीं समय रुक जाती हैं..

जिंदगी के कुछ पल जो खास होते हैं,  जो एहसास दिल के बहुत करीब होते हैं, समय के साथ जिन्दगी के ऑवर-ग्लास से यूं ही जुड जाते है. कितना भी तूफ़ान क्यों ना आये यदि हम त्रस्त भी हों जाए, तों उनकी एहसास हम में रह ही जाती है और सब कुछ एक ठहराव का एहसास दे जाती है. शायद ऐसा ही एहसास आज मैं जी रहा हूँ ... Zin, तुम पास नहीं हों, पर आज भी तुम्हे यूं ही जीए जा रहा हूँ .. समय बह तों रही है पर आज भी एहसास वहीँ है जहाँ हम साथ कभी छोड़ आये थे.....इस चाह में की शायद समय का दोना पलटे और बीती हुई रेत नए लम्हों में सज आये..शायद उन्ही लम्हों में एक लम्हा फिर हमारा हों....

२६/२/१२

Feb 21, 2012

साबुन=रिश्ते?

फिसल गुसलखाने में,
Dove की टिकिया छिटकी तों,
कई फस्ल्फों का जन्म हुआ..
रिश्ते !!!
रिश्ते भी साबुन से होते हैं?

नर्म, मर्म भीनी सी महक
पर, सुखी हुई साबुन, जल विहीन
कितना भी कोशिश करे सुखे तन पे
कहाँ कोई झाग सजा पाते हैं?

रिश्तों की तरह
प्रेम जल से भीगोये
हलके हलके सहलाये.
और प्रेमभाव के अथाह
अनंत बुलबुले,
जीवन्त बुलबुले
आप पर छा जाते हैं
अपने आप को जी कर
सुखद अनुभव
सजा जाते हैं.
धुल जाए बुलबुले
फिर भी
अपनी खुशबू में
हमे नहला जाते हैं  
रिश्तों कों दबाया नहीं कि
साबुनो सी फिसल
छिटक दूर हों जाते हैं

हैं ना रिश्ते ऐसे ही साबुनो सी..

21/2/12

Feb 20, 2012

तुम कहीं ना थी...

तुम पास नहीं थी

बिस्तर पर तुमसे लिपटी
सिलवटे अब भी थी

तकिये के गिलाफ पर
दो आँसुवों के बूंद थे
जो तुम्हारे आँखों से टपक
लावारिस से पड़े थे

सिरहाने की मेज़ पर
तुम्हारी तस्वीर थी
और वहीँ पड़ी अलसाई
सी तुम्हारी एहसास थी

ढूँढा  गुसलखाने में
नल से चिपकी पानी की बूंद थी
जो तुम्हारे जुल्फों से नहा
बरस जाने कों बेकरार थी

रसोई में पहुँचा तों  
चाय की प्याली लुढकी हुई थी
तुम्हारे गुनगुनाहट से सज
गर्म हों उठने कों आतुर थी

Feb 19, 2012

मृगतृष्णा

I read a post from http://hridyanubhuti.wordpress.com/ by Indu Ravi Singh which i would love to preserve on my blog.. and also prompted me to add my lines....beautiful lines which provoked the childhood memories.

बचपन से ही चलती गाड़ी से
सड़कों को देखना भाता है हमें
लगता था कि सड़क भाग रही है
और हम पीछे छूट रहे
बड़ा अचरज होता था तब।
कभी दूर सड़क पर पानी का दिखना
मृग तृष्णा का अर्थ,तब पता ही न था
जीवन के सबसे बड़े अजूबे
तब यही तो लगते थे।
आज यूँ बड़े हो,सब समझ तो गए
पर वो नासमझी के अचरज
मन खुद को वहीं कहीं पाता है
हम नहीं,सड़क चल रही
पेड़-पौधे चल रहे,
सोच इन यादों को
मन बस यूँ ही मुस्काता है।

my added lines...
देख मृग तृष्णा को, दूर सड़क पर
गीले राह से डर जाना
पापा कि ऊँगली पकड़ फिर
दूर राह को दिखलाना
पापा का फिर जोर से हसना
गाड़ी और तेज चलाना  
माँ का फिर देख मुस्काना
ममता भरी आँखों से
बालों में ऊँगली घुमाना

भैया भी क्या घमंड दिखाते
बीस की छाती चौबीस कर के
हमको मृगतृष्णा समझाते
पास बैठी दीदी भी क्या खूब
बत्तीसी से मुह वो सजाती
गीली राह के अपने डर पर
कितने कथा वो कह जाते
कहाँ गयी वो मृग-तृष्णा
और कहाँ गए वो नन्हे पल

आज सजे है हर तरफ बस
अर्थ लोभ का एक माया
मृगतृष्णा में भाग रहे हम
छोड़ आये सब मृगतृष्णा
भाग रहे हैं सिर्फ सड़कों पर
छोड़ गये सब मृगतृष्णा


Feb 14, 2012

क्यूँ

डूबी है कश्ती कहीं तों
क्यूँ पूछते मल्हार से
दृढ़ कितने बाजुएं थी?
जोर कितने खेंप में,
दृष्टि कितने पाक थी
और मंजिलें क्या साफ़ थी?

डूबी है कश्ती कहीं तों
डूबा तों मल्हार भी
पाक उसके ख्वाब थे
और नेक उसकी चाह भी
टूटी है कश्ती जहाँ पर
बिखरे वहीँ ख्वाब भी

डूबी है कश्ती कहीं तों
बिखरा है मल्हार भी
मिथ्या थे ना भाव उसके 
और ना ही था भ्रमित
बिखरी है कश्ती गर तों
फंसा भंवर में खुद भी

ना तोड़ पाया भंवर वो
लड़ ना पाया लहरों को
डूबी है कश्ती जहाँ पे
छूटी उसकी खेप भी
लुटी उसकी चाहतें और
लुटे उसके ख्वाब भी

बटोर गर पाया भंवर से 
बटोर पाया ख्वाब को
संजोया है आज भी वो
चाहत उसके साथ  की.
जानता है आज जब कि
पूछता वो ख्वाब ही
सांच क्या धेयय थे उसके ?
और थे सांच क्या प्रेम भी ?

है घमंड मन में बसाये
है डटा वो आज भी
प्रेम से दिल में बसी जो
सजदे में है सजी वो
वो कभी तों साथ होगी. 
पूर्ण उसकी चाह होगी... 
ना हुआ गर पूर्ण तों क्या
बसी वो दिल में, आज भी
दिल में ही सजदे सजेंगे
मन ही मन में प्रेम भी ..

डूबी है कश्ती कहीं तों
पूछते क्यूँ मल्हार से
दृढ़ कितने बाजुएं थी?
जोर कितने खेंप में ?

१४/२/१२

Feb 9, 2012

एक अधूरी चाहत..

for my valentine Zin(dagi)… कुछ अधूरे से अरमान ..कुछ अधूरे सपने..एक अधूरी चाहत को पूर्ण कर पाने की चाहत...


चिक से छनती किरण
अलसाई सुबह
अलसाया मैं
अलसायी तुम
आगोश में बंधा  
बिखरे जुल्फों की
गिरफ्त में क़ैद  
लबों की छुवन
अलसाई मद-सायी सुबह

एक बार फिर ...
एक अधूरी चाहत..

शर्दी भरी सुबह
धुंधली हवा
चहचहाते नभचर
हांथों में हाँथ
लकीरों की छुवन
आहिस्ते कदम
डगमगाते चाल
धडकते दिल
हँसते गाते हम

एक बार फिर ...
एक अधूरी चाहत..