Sep 14, 2015

आगाज़...

इधर उधर पड़े
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रंगीन बक्सों को
ज़िन्दगी के 
रक्सेक बेग में
समेटते
सिमटते
महसूस कर पा रहा हूँ...


..आखिरी यात्रा की आगाज़ तो नहीं ये...

लेक्सिकोन...

ड्राइंग रूम के दीवार को छूती गद्दे के 
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सिरहाने पर
हमारी वही चिर-परिचित
खेल
कई दिनों से अलसाई पड़ी थी
देख,
मैं ठहर गया..
वहीँ बैठ कर
गोद में चकौर गद्दे समेटे
देखने लगा मैं उन्हें

लेक्सिकोन (lexicon) के
चकौर गोटियों को.
सीधे आड़े लाइनों में
खुद को समेटे...
चकौर बक्से
अंग्रेजी के अल्फाबेट
से अपनी पहचान बनाये...
कुछ बोर्ड पर थे तो
कुछ पास पड़े डब्बे में

हर्फों को शब्दों में पिरोना
चकौर खानों में
आड़े-तिरछे सीधे
अक्षरों को
शब्दों में सजाना.
और
पास रखी एक डायरी पर
पेंसिल से स्कोर लिखना   
कई कई लम्हे यूँ ही
हंस खेल कर गुजर जाते थे...

देखते रहा मैं..
कई लम्हे इन्हें
कई कई पल......कई लम्हे.
याद है न तुम्हे?
कितना खेलते थे हम...
तुम्हारा  
बीच-बीच में यूँ
बच्चों से लड़ पड़ना
गलत शब्दों को सही बताना
झगड़ना और
डिक्सनरी छुपा देना
पकडे जाने पर,
बाँहों को फैला कर
मुझसे सिमट जाना
और खिलखिला उठना  
याद है न तुम्हे?

नए शब्दों का तो एक
शब्दकोष हुआ करता था
तुम्हारे पास..
उन शब्दों की पहचान तो
दुनिया के किसी भी
शब्दकोष में नहीं होती.
हर शब्द पर तुम्हारी
एक लम्बी सी
व्याख्यान हुआ करती थी
जिन्हें तुम हाथों को लहरा कर
चीख कर चिल्ला कर
हंस खेल कर
मायने उस शब्द का  
मुझे समझा दिया करती थी
आज भी कई शब्दों के
मायने को
मैंने खुद भी मान लिया था

एक ही शब्द था
कुछ अक्षरों की
संगम सी थी
कोई अर्थ न था
न कोई व्याख्या थी
बस तुम्हारे और मेरे
नामों से
एक एक अक्षर निकाल,
एक शब्द पिरोये थे
जो हम दोनों के लिए
बहुत अज़ीज़ था
बोर्ड पर बनाने पर
एक लम्बी सी आगोश
पाने का हक होता था
उसके बाद एक लम्बी सी
विराम हो जाती थी...
याद है तुम्हे?

नामों से बना  
आज भी वो शब्द
लेक्सिकोन के बोर्ड पर
अनछुआ सा पड़ा है
पुछ रहा है
कहाँ हो तुम?
कुछ तो शब्द बना जाओ

कहाँ हो तुम ......