Dec 24, 2014

खुशियाँ...

खुशियाँ, बड़ी अजीब होती है,
बडे बडे डब्बों में
ढेर सारी खुशियाँ मांगो
ठेंगा दिखा कर हंस देती हैं.
पूछो तो कहेंगी
बडे लालची हो...
एक ही बार में
इतनी सारी माँगते हो.
तुम क्या जहाँ में एक हो?
हम क्या सिर्फ तुम्हारे लिए हैं?
चलो हटो,
बड़ी-बड़ी डब्बों में
हमे, हम से न मांगो....

देख कर ठेंगा उनका
खुशियों की नन्ही नन्ही
थैलीयों की दरख्वास्त
हमने खुशियो से  लगायी.
कुछ तुम्हारे सपनो से
कुछ तुम्हारी चाहतों से
कुछ तुम्हारी इछावों से
लम्हे चुरा कर हमने
नन्ही नन्ही थैलियाँ मंगवाई

नन्ही नन्ही खुशियों  को पा
तुम चहक उठो, ऐसी हमने
खुशियों से गुहार लगायी.
नन्ही नन्ही खुशियों को पा तुम चहक उठो, ऐसी हमने खुशियों से गुहार लगायी... अमिन !!! खुशियों ने भी कह डाली है आमीन!!!


Merry Christmas and a 
Very Very Happy New Year 
to my 
ZIN(dagi), 
who means a lot to me…

Merry Christmas...

सुना है मुसहर आयें हैं ...

प्रेरणा:
पेशावर में स्कूल के बच्चों पर हुए नरसंहार, हम सभी को झिंझोर गयी. इसके तुरंत बाद सियासत के दावेदारों
picture credit
का कानून बदल कर मौत की सजा सुनाना, नए नए नियमों का लागु करना, चौंकती है . सियासत का एलान करना कि 500 लोगों को मौत की सजा सुनाई जाएगी, सभी आतंकवादीयों का संहार होगा. क्या उनके वर्दी को आज ठेस पहुची है? कल तक, जब एक मासूम की हत्या होती थी, आप कहाँ थे? आज जब खुद के परिजन मारे गए हैं, हर आतंकवादी का पता आपको कहाँ से मिल गया है? ये सब आप राष्ट्र हित में कर रहे हैं या कोई रिवेंज लेने की तैयारी कर रहे हैं. असुर का निर्माण तो सियासत के चौपड़ खेलने वालों ने,  आप खुद ने की है, तो आज दिखावा क्यूँ? रिवेंज क्यूँ? आतंकी भी इंसान ही होते हैं, कुछ को बरगला कर,  कुछ को ठग कर, कुछ को लालच से खरीद कर, कुछ को धर्म के नाम पर बहका कर, तो कुछ को मौत के बाद का संसार दिखा कर, इन्सानों से हैवान बनाया जाता है. कहीं न कहीं इनके तार सियासत से जुडी होती है. मरने और मारने वाले आतंकी तो प्यादे होते हैं. उन पर सियासत करने वाले तो सुरक्षा से घीरे, भोग विलास में तृप्त होते हैं. आतंकियों को जन्म तो सियासत के दोगले करते हैं. तो फिर आतंकी कौन हुआ? ये आज दिखावा क्यूँ?.  

कुछ ज्ञान:
जिन्हें नहीं पता उन्हें बता दूँ.  बिहार, उत्तरप्रदेश के गांवो में, मुसहर शब्द प्रचलित है. मुसहर एक कुनबा है, जो खेतों में चूहे मारने में दक्ष होते हैं. इसी से इनके कुनबे का नाम पड़ा. जब धान की रोपाई होती है तो गीले मिट्टी में चूहे बिल बना कर रहने लगते हैं. कभी कभी तो एक फसल के दौरान ही, चूहों की संख्या महामारी सी बढ़ जातती  हैं. चूहे फसलों को नुक्सान पहुचाते हैं. जब धान की कटाई हो जाती है, तो ये चूहे धान के बालियों को चुरा चुरा के अपने बिल में इक्कट्ठा करते हैं. कभी कभी तो एक एक बिल से पांच-पांच किलो तक धान मिलती है. मुसहर भी कटाई तक इंतज़ार करते हैं. फिर उन चूहों को ढूंढ ढूंढ कर मारते हैं और उनके बिलों को  खोद कर धान निकाल लेते हैं. ये धान खाने के लिए उपयुक्त होता है और उस पर खेत के मालिक का कोई दावा नहीं होता. सो मुसहर चूहे की मांस और धान का भरपूर आनंद उठाते हैं.

रचना:
मुशकों यानि चूहों को आतंकी के प्रतिक में, मुसहर को सियासतदारों के प्रतिक में चिन्हित कर यह रचना, आतंकी चेहरे के दुसरे पहलू को दर्शाती है. आशा है पसंद आएगी....  सुना है मुसहर आयें हैं ...
for indiblogger….  #PeshawarAttack

शर्राफे के गाँव में,
सुना है
मुसहर आये हैं.
खेतों में,
अधियारे बिलों में
मुशकों में
अफरा-तफरी है..
अनायास,
मुसहरों के खबर से
माहौल गर्म है.
सब तरफ
एक ही गूंज है
मुसहर आये हैं....
एक ही सवाल:
सुना है, मुसहर आये हैं?

फ़ज़लू मूषक, डरा डरा सा
पैनी दांतों से
नए बिल बना रहा है.
बिल के अन्दर ही और,
नए बिल खोद रहा है
धान के दानों को
नए बिलों में छिपा रहा है..
परिवार के लिए
अनाज का गोदाम
बिल में ही बना रहा है.
बडबडा रहा है
ये मुसहर फिर आये हैं...

फ़ज़लू की बड़ी बिटिया,
साईबा,
जो अब, जिहादी की बेवा है
चार बच्चों संग
नईहर आई थी
अपने बच्चों के खातिर
ससुराल छोड़ आई थी.
पेट में पल रहे बच्चे से
फुसफुसाती है
विध्वंस की खबर आई है
सुना है, मुसहर आये हैं...
तेरे जन्म हो पाने पर,
सवालिया चिन्ह लगाये हैं..

नन्ही सी सबीहा, जिसने
पिछले साल से ही
रोज़ा रखा था
काबे की तरफ रुख कर
माँ से आयतें सीख
नमाज़ पढ़ना सीखा था...
आँखों में आंसू भरे
सोच रही थी
सादाब से निकाह के बाद
गीली मेहँदी का रंग
ठीक से खिला भी न था
सबीहा को सादाब से
रुखसत होना होगा
अब्बा ने कहा है
सादाब को शहीदी  के लिए
तैयार होना होगा
सुना है, मुसहर आये हैं

इकबाल बड़ा काबिल था
बिल बनाने में माहिर था
मस्तमौला,
जीवन से भरा मूषक
सभी बिलों का प्यारा था
अगल बगल के खेतों की
चुहिया भी देख कर आहें भरती
उस पर मर मिटने को तरसती..
अब्बा ने उसे आज
पुराने बिल में
सहादत के नाम पर
मर-मिटने को बिठा दिया है
कुरान और मुनके को
कल से इकबाल ने छुवा भी न था
मन में कई सवाल थे
पर मासूम के पास
कोई जवाब न थे
सुना है उसने भी,
मुसहर आये हैं...

पास के मस्जिद के
मूषक मौला
बिलों में मची
हडकंप को भांप
खेतों में आये थे
धर्मरक्षा के लिए
ईश्वर के आराधना के लिए
बलिदान के पथ पर
निकल पड़ने को
आह्वान कर गए थे.
शांत मन को बरगला
सहादत को उकसा गए थे
उस दिन,
नन्हे कबीर को
बड़ी मार पड़ी थी
मौला से, जो उसने
पुछ लिया था,
अल्लाह के सबसे प्यारे
तो मौला चाचा आप हैं
मस्जिद्द के मौला भी आप  है
फिर आप क्यूँ नहीं
खुद की बलि देते ?
सहादत पर तो पहले
आपका हक है....
नन्हे कबीर ने भी अब्बा से ही
सुना था कि मुसहर आये हैं.

हाँ, मुसहर आये हैं,
कल ही तो
कई नन्ही ताबूत
अपने कन्धों पर
मुसहर ने उठाये थे
नन्ही ताबूतों का
भार उनपर, आज भी था..
नन्ही ताबूतों से रिस
खून के कई बूंदें,
काँधे से फिसल
वर्दी में आ लगी थी
कुछ बूंदें तो
शरीर भी भीगा गयी थी
कुछ नन्ही ताबूतों में
उनके अपनों की खुशबू भी थी..
उन्ही सुर्ख दागभरे
वर्दी को साफ़ करने
साबल कुदालों छड़ियों को
चमकाते मुसहर आये हैं

अब
फिर, एक संहार होगा
फिर, कुछ घर बिखरेंगे
फिर, कई अनाथों का जन्म होगा
फिर, कई मासूम बिलखेंगे
फिर, कई सुहागनें बेवा बनेंगी
फिर, कई मोहरे मिटेंगे
फिर, नए मोहरे बनेंगे
सियासत के चौपड़ पर
खुनी खेल का नया रंग बंधेगा .
फिर, नए दाव सजेंगे
फिर, नए मोहरे बनेंगे
फिर मुसहर आयेंगे .....
क्रम यूँ ही बनेगा
सियासत के नाम फिर
कई प्यादों का बलिदान होगा  

सुना है मुसहर आयें हैं
सुना है फिर मुसहर आयें है

इंसानों का मोल क्या बस एक प्यादे सा है कि धर्म के नाम पर, इतिहास के नाम पर, कुर्सी के नाम पर कौड़ियों के मोल ख़रीदे जाते हैं. ईस्तमाल कर फेंक दिया जाता है. सत्ता के नाम पर इंसान का मोल क्या बस कौड़ियों जैसी ही है? जब चाहे मार दिया जब चाहे फेंक दिया गया.... इंसानियत कहाँ छोड़ आये हैं हम इन्सान....सियासत करने वाले अब बंद करें हैवानियत....

Note: I do not intend to  hurt any caste, religion or  Religious Sentiments…I respect all religion, respect humanity.  i do not agree with any acts of terrorism or sympathize any terrorist.. I strongly condemn the same.

पहला कदम....

My Inspiration : My Dream
कोरे कागज़ पर जब आढे तिरछे लाइनों को खीच खींच कर ड्राइंग बनाना सीखा तो त्रिकोण के तीनों कोण से प्यार सा हो गया. तीन कोण बनते और उसके ऊपर एक आधा सा सर्कल. कुल मिला के एक पहाड़ से बन जाते. बीच के कोण से दो लम्बी टेढ़ी लाइन खींच हमारी नदी बन जाती. नीले क्रेयोन से आसमान और नदी बनते, संतरे रंग से सूरज. पहाड़ों के साथ हमारा प्रेम गहरा सा था. हरे रंग के पहाड़ होते पर लाल नीले पीले बड़े-बड़े फूलों से उन्हें सजाया जाता. यूँ कहिये तो पहाड़ बड़े ही रंगीन बनते और कभी कभी तो उन पर लम्बी धारियाँ होती या बॉक्स से चकौर डिजाईन. यूँ था हमारा प्यार पहाड़ों से. पहाड़ों से परिचय तो शिलोंग के दिनों से ही था. तिकोन पहाड़ियों से लगाव कब इतना प्रबल हो उठा कि पीठ पर सामान, बगल में कैमरा और ट्रैकिंग निकल पड़ने का सपना प्रबल होता गया. शिलांग, गंगटोक की पहाड़ियों पर कई बार गए पर हर बार यही हुआ यही महसूस हुआ कि पहाड़ियों की उचाई हमारे तिकोन की पहाड़ियों से काफी छोटी  हैं.

भागते भागते ज़िन्दगी के इस दौर पर आ गया, जहाँ शरीर की ताकत सपनों से हराती दिखी. डायबेटिक्स, ब्लड-प्रेशर, कोलेस्ट्रोल जैसे सुख-रोगों ने आ धरा. रोज़ के इधर उधर के टेंशन तो शायद फ़ोकट में हमे मिली हैं. इन सब में पहाड़ों पर ट्रैकिंग का सपना छुटता  सा गया. पिछले साल हमने सुर पकड़ा है (वैसे क्रेडिट किसी और को जाता है) कि 2015 तक कम से कम बेस केम्प तक तो जरूर पहुचेंगे. हाँ, जानते हैं कि एवेरेस्ट बेस केम्प पहुचना बहुत कठीन नहीं है पर अपने सुखरोगों को हरा कर ही हम निकल सकते हैं. इस प्रण के साथ पिछले एक साल से हम रोज़ डेढ़ घंटे ब्रिस्क्वाल्क और जॉगिंग करते हैं. पांच किलो वजन घटा चुके हैं अब लगभग नार्मल वजन है. दस किलोमीटर की  तैयारी रोज़ की है.


पहले कदम के हिसाब से हमने काठमांडू जाने का निश्चय किया है. कुछ दिनों के लिए शब्दों के टंकण से, चौपाल से हम विदा लेंगे. सपनों के पहली कदम पर आप से शुभकामनायें की आशा रहेगी... लौट कर ढेर सारे शब्दों से चौपाल फिर सजायेंगे.... यूँ ही आते रहिएगा....       

Dec 22, 2014

छोटी सी बात : बड़ी खुशियाँ

शायद बात बहुत बड़ी नहीं है, पर एक ब्लॉगर के लिए बहुत मायने रखता है, जब ब्लॉग से निकल कर आपकी रचनायें कहीं और प्रकाशित होती हैं. BlogAdda में linked मेरी एक रचना...Read More... :   की फर्क पेंदा है : गर नन्हें फरिस्तों का खून हुआ है

छोटी सी बात हैं पर खुशियाँ बड़ी दे गयी...






Dec 21, 2014

मूछें हो तो नत्थू लाल जैसी...

CREDITS
कलमों पर सफेदी चढ़ आई है, तब जा कर किसी ने बात की है, दाढ़ी मुछों की. बात करने का मौका आज मिल ही गया. वर्षों से सिर्फ नत्थू लाल जी के ही मुछों पर बात हुई और जितने नत्थू लाल जी अपने मुछों के कारण प्रसिद्ध हुए उतने तो बच्चन साहब भी अपने मूंछ के लिए न हुए थे. आज सोच रहा हूँ कि आपके मार्फ़त दिल की भड़ास हम भी निकाल ही ले. बचपन में बाबा को दाढ़ी बनाते देख कर, बहुत मजा आता था. चिकने मुलायम दाढ़ी खुजलाते हम भी सोचते कि कब बडे होंगे और कब मूंछ उगेंगी और कब दाढ़ी बनेगी. शायद, बड़े होने की जल्दी हमें इन्हें उगाने के लिए ही थी. जब चिकनी खेत पर काले-काले, नन्हें-नन्हे पौध उगने लगे तो बड़ा फक्र होता कि अब हम बडे हो रहे हैं. ज़मीन उपजाऊ थी, तो फसल भी हरहरा के उगे. कुछ ही वर्षों में चिकने गाल पर काले दाढ़ी और मुछ उग आये. बचपन से कौमार्य का फासला बड़ी तेज़ी से पार हो जाता है. होठों के ऊपर मूछें और चिकनी गाल पर भरे भरे दाढ़ी हमे बडे होने के सर्टिफिकेट लगते. अच्छा लगने लगा था, इनका यूँ आ जाना. रेज़र और ब्लेड से कई वर्षों तक दोस्ती नहीं हुई थी.

दीदी की शादी हुई और विडियो भी हुई, न होती तो उन दिनों अपशकुन सा माना जाता. पहली बार विडियो के टेप वीसीआर में डाले गए और पूरा परिवार बैठ कर शादी की विडियो देखने लगे. फ्रेम बढ़ने लगे और कई मिनटों बाद हम खुद को देखे. सच पूछिये तो माँ से पूछना पड़ा कि थका हारा सा ये काले मुछ दाढ़ी में कौन है. झेंप सा गया था मैं माँ के हंसी पर. उस दिन, पहली बार एहसास हुआ कि आईने सच नहीं बोलते. हमे तो खुद पर बहुत गुमान था. आईना टूट गया था. शादी की टेप ख़तम भी नहीं हुई थी कि हम बाबा का रेज़र-ब्लेड हाथ में ले कर बाथरूम में, आईने के सामने खड़े थे. उसी दिन हमने ब्लेड को रेज़र के उपर पहली बार चढ़ाया था. ब्रश से साबुन घसे और रेज़र का परिचय दाढ़ी से करवा डाला. मुछों का निकलना अपशकुन माना जाता था, परिवार में. सो मूछें रही बहुत दिनों. कुछ दिनों बाद मूंछ भी मुड़वा लिए. अब फिर वैसा ही चिकना गाल और चिकना चेहरा दिखा जैसे वर्षों बाद हमने बचपन पा लिया हो.

रेज़र की मुलाक़ात अब रोज़ होती, दाढ़ी मुछों से. रोज़ रोज़ के काम में एक बोरियत का जन्म हो जाता है, वैसा मेरे संग होना कोई नयी बात न थी. पर अब थक गए थे इन मुलाकातों से. जगजीत सिंह साहब के साथ अपना परिचय हुआ और उनके ग़ज़ल बहने लगे. कहते हैं, बाथरूम में ही दुनिया के बड़े बड़े फलसफे लिखे गए हैं और हम एक ग़ज़ल न बना पाए ये कैसे हो सकता था. जगजीत साहब के गाने को तोडा-मोरोड़ा गया और एक नए शब्दावली से नयी ग़ज़ल बनी :

ये दौलत भी ले लो,  ये शोहरत भी ले लो
मगर मुझको लौटा दो, बचपन की बातें
वो कोरी सी गालें,   वो नि-मुछै चेहरे.
ना दाढ़ी बनाना,   न गाल कटाना
बिन बात के मुछों, पर हाथें फिराना
ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
मगर मुझ को लौटा दो, बचपन की बातें

Dec 18, 2014

की फर्क पेंदा है : गर नन्हें फरिस्तों का खून हुआ है

CREDIT
एक और दहसत..... देखते-देखते नन्हे नन्हे बचों को खून कर दिया गया. दहसत के चौपाल पर फिर चर्चे हुए होंगे. लोगों ने जश्न मनाई होगी. कोई एक मुखिया खड़ा हो कर इनकी बलिदानी पर इश्वर का शुक्र अदा किया होगा. ढेर हुए आतंकी को शूरवीर का खिताब दे कर ईश्वर के राह पर चलने  को  एक उदहारण सा दिखाया होगा. मुखिया के किसी मुखिया ने किसी की तिजोरी भरी होगी. आम इन्सान इंसानियत के मौत से डर कर इश्वर की प्रार्थना की होगी, कुछ लोगों ने मोमबत्ती  जला  कर शांति पूजन की होगी, कुछ लोगों ने सोसल मिडिया में अपना विरोध जताया होगा. ऐसा ही कुछ हमारे देश में हुआ था... निर्भया की मौत पर भी यही काण्ड हुआ था... उस वक़्त भी मैंने एक ही बात कही थी : “ क्या हुआ गर रेप हुआ : की फर्क पेंदा है?(Read more...) क्या हुआ, कुछ नहीं बदला,  दो साल बाद भी....

आज भी वही प्रतिक्रिया है  “की फर्क पेंदा है?"
कब तक चलेगा ये दहसत का नंगा नाच.....  

की फर्क पेंदा है
गर
नन्हें फरिस्तों का खून हुआ है
नन्हे अरमानों का
दिन दहाड़े खून हुआ है

की फर्क पेंदा है
गर
नन्हे नन्हे बस्ते ले कर
तालीम लेते मासूम फरिस्तों का
पेशावर में खून हुआ है

की फर्क पेंदा है?
गर
बारूद की बौछौरों में
आज  फिर,
माँ के एक बेटे का
आतंकी नाम हुआ है

की फर्क पेंदा है?
गर
मस्जिद के आजान में
दहसत की  दुकान संजोये
मुल्ला
अल्लाह से दूर हुआ है

की फर्क पेंदा है?
गर
नन्हें फरिस्तों का खून हुआ है

की फर्क पेंदा है
तुम्हे
सियासत करने वालों?
तेल की बाज़ारों में
देश के मान
बार बार है तुमने बेचा.
सत्ता के
कुर्सी की खातिर
इतिहास के पन्नों
को है बेबात तुमने छेड़ा

की फर्क पेंदा है
तुम्हे
सियासत करने वालों?
कुर्सी के मोह में
दहसत की है
राजनीती तुमने
माँ के कई दुलारों को
बहका
आतंक राह पर
है भेजी तुमने....
     की फर्क पेंदा है
     तुम्हे
     सियासत करने  वालों

बस, अब बहुत हुआ...
बंद करो
ये सियासी दंगे
बंद करो
ये स्वार्थी पंगे
इन्सानों को इंसानों सा
जीने का माहौल
दिलाओ
अपनी माँ के दूध का
एक बार...सिर्फ एक बार
तो मान बढाओ.

बस, अब बहुत हुआ..
बंद करो मासूमों का बलिदान....बंद करो अब....

इन्सानों को इन्सान सा जीने का माहौल बंद हुए इतिहास के पन्नों को खुरचने से, पडोसी के घर दंगों से, जबरदस्ती धर्म के नाम पर दहसत फ़ैलाने के नहीं बदलेगा. शर्म करो सियासात करने वालो....एक बार तुम्हे भी ईश्वर के सामने पेश होना है....
शर्म करो....



#PESHAWARATTACK

Dec 17, 2014

बचकानी छुट्टियाँ ...

credits
छुट्टियाँ बचपन सी बचकानी होती हैं और बचपन संक्रामक. जी हाँ हमने ठीक ही लिखा संक्रामक. बचपन से पीछा छुटा कर हम बडे तो होना चाहते हैं और खुशनसीबी की हम बडे भी हो जाते हैं. बचपन कहाँ पता  होता है कि बड़े होने पर कैसे कैसे पापड बेले जाते हैं. पापड बेल-बेल कर एक बार फिर बचपन से मुलाकात हो जाती है, अपने बच्चों के बचपन से. फिर शुरू होती हैं एक और बचपना बच्चे के बचपन से प्रेरित हो कर. उफ़... बचपन शब्द कुछ ज्यादा ही हो गया यहाँ तक. छोटे में कहें तो लग गयी न संक्रामक रोग. हमारी बात माने तो “छुट्टी मनाओ तो नत्थू लाल के संग... नहीं तो न मनाओ”. जब से बच्चे ने जन्म लिया है अकेले छुट्टी तो मना ही नहीं सके. वैसे चाह तो बहुत रहती है बिन बीवी बच्चे के छुट्टियाँ मनाने की. अब हर बार सिंगापूर, थाईलेंड थोड़ी जा सकते हैं. शिकायत नहीं है अकेलेपन न भोग पाने की.

बच्चों के साथ छुट्टियां हर बार कुछ नयी रही है. समुन्दर के किनारे बीवी के हाथों में हाथ ले कर कई बार रोमांटिक सी टहल कई बार की थी. बीच पर बच्चों के साथ रेत के किले बनाने में अपने दिन याद आ गए थे. अब भी हम रेत के किले बनाते हैं. उसमे किला होता है झंडे लगते हैं, छेद बनाकर दरवाज़े बनते हैं. बचों के संग giant wheel पर जब चढ़ा था तो उनके किलकारियों को सँभालने में हमारी खुद की चीखें गूम हो गयी थी. याद है वो दिन जब हम AquaticaPark गए थे, और giant waves के थपेड़ों में तैरना बच्चों से ही सिखा था.
बच्चों के संग छुट्टियाँ मनाना एक अनोखा लुत्फ़ हैं. पर उन्हें साथ ले जाने की तैयारी भी क्या कम तैयारी है अब आप ही देखिये कितने कुछ चीजें हैं...
1. WHEN :  कब है छुट्टी कब है... उफ़ शोले के स्टाइल में ही डायलॉग होती है ..कब हैं.... टाइम मिल गया तो,
2. DESTINATION  : कहाँ है जाना. कहाँ जाना है तो तय होता है की कब जाना है.
3. BUDGET : For the parents is the Biggest concern, specially when you earn a meagre sum of money.

Dec 14, 2014

प्रेम पर विरोध कैसा....

जमी हुई धुल को फूंक कर डायरी के कवर को साफ़ कर एक बारगी देखा तो माया डर गयी. न जाने कितने
CREDITS
बरस हो गए थे. कुछ पन्नों को  मोड़ के हासिये में सी दिया था. कभी पन्नों के किसी और के पढ़ जाने के डर से तो कभी उन लम्हों को मिटा जाने के लक्ष्य से, डायरी के कई पन्ने उसने खुद ही फाड़ डाले थे. डायरी का एक पन्ना जो हासिये से सिला था, हाथ फिरोया तो, सुखी शुष्क गुलाब के फूल का एहसास एक सिहरन दे गयी. जद्दोजहद में थी सीले इस पन्ने को हासिये से हटाया तो, पुराने कई दबे अरमान निकल आयेंगे. हिम्मत कर हटाया तो दिखा, शुष्क वो गुलाब की फुल उसके अरमानों की तरह सुख चुकी थी. पीली पड़ी पन्नों पर उसने लिखा था,

“बाँहों को बाँहों से
नैनों को नैनों से
सांसों को सांसों से
लबों को लबों से
तन को तन से
प्रेम को प्रेम से
सजने-सजाने के अरमान संजोती रही
सही-गलत का वास्ता दिखा
तुम मुझे इस फुल सी बहला गए....

....love this moment of togetherness today…
wish we could love and make this moment special one in our lives…. ”

MY SKETCH
माया ठहर गयी थी इस पन्ने पर. पन्ने पर गीले से कई बूंदें आज भी भीगी थी. बहुत रोई थी उस दिन. प्रणय के साथ बिताये पल एक एक पन्ने पर रुके हुए थे. बहुत खुश थी प्रणय के साथ. ज़िन्दगी के कई स्वर्णिम लम्हे साथ गुजारे थे. कहाँ पता था, एक दिन गुलाबों से भरी डायरी, बंद कमरे के ताख पर रख, गाय के बछड़े सी किसी और के खूटे से बाँध दी जाएगी. “काश.... कुछ पल जी लेती”  माया बुदबुदाई....बंद डायरी को गोद में रख, भीगी आंखें बंद कर, आराम कुर्सी पर वो हिलने लगी. खट-खट की आवाज़ शायद समय को रिवाइंड कर रही थी.

न जाने कितने गुलाब के फुल यूँ ही डायरी के हासिये में बंद हो जाती होंगी. कितने एहसास खिलने से पहले ही बंद किताबों में दब जाती होंगी. जीवन के अनेकों लम्हे कभी मिट जाते हैं तो कभी मिटा दिए जाते हैं. कभी संस्कारों के नाम पर लम्हों का बलिदान, कभी समाज के नाम कुर्बानी. लम्हों को हम समय का प्रसाद समझ क्यूँ नहीं जी पाते. पूरी तरह जी जाने का नाम ही तो ज़िन्दगी है. प्रकृति की भेंट को हम स्वरचित नियमों से क्यूँ नकार जाते हैं? कई बार इस पर विचार किया था और हर बार नकारात्मक सा उत्तर ही मिलता. प्रकृति का गर कोई विरोध होता तो वो हमे भेंट ही क्यूँ करती. स्त्री-पुरुष की संरचना प्रकृति ने तो बहुत सोच समझ के किया होगा. माँ के गर्भ से निकलना, देह का नश्वर हो जाना, शरीर में आत्मा की संरचना, बालपन की अठखेलियाँ, यौवन का वेग, सब कुछ तो प्रकृति की अवतार ही तो है,  प्रतिबिम्ब ही तो है हैं,  तो फिर हमें उनके रूप का विरोध क्यूँ?

योग एवं वात्स्यायन के देश में प्रेम पर आप्त्ति : खुद पर शंका, खुद पर विरोध का आभास ही तो है. प्रेम के विशाल विषय को दो टुक में कह जाने की क्षुद्र प्रवृति आज के भागती दौड़ती ज़िन्दगी के चिन्हमात्र हैं. वात्स्यायन प्रेम के चिन्ह, कामसूत्र के कई अध्याय चुम्बन, आलिंगन, स्पर्श आदि की जगह पश्चिमी शब्द “सेक्स” ने ले लिया है. कई कलाओं से बधित इस कला को अब सिर्फ “स्खलन” से बाँध दिया गया है. “सेक्स” शब्द इतना शंकिर्ण है जैसे  कुरेद कर मक्खन निकालना ही धेय्य मात्र रह गया हो. प्रकृति के नायाब अविष्कार, शरीर की तो कोई अब समझ भी नहीं रखता, चरम शिखर तक पहुच जाना ही धेय्य है. यौवन में शरीर का खिल उठना, हर अंग का  संवेदनशील हो जाना, स्पर्श मात्र से शरीर का चहक उठना, एक भेंट ही तो है प्रकृति का. हर एक समय के लिए प्रकृति ने नियम बाँध रखी है, फिर यौवन के इस भेंट को स्वीकारने का विरोध क्यूँ?

आधुनिक समाज का परिवर्तन, दौड़ भाग की भौतिकवादी ज़िन्दगी आज हमें सिर्फ दौड़ना ही सिखाती हैं. इस भागमभाग में हम इन्सानों ने ना जाने कितने नियम बना लिए हैं, कि रुक कर दो पल जीना भी भूल गए हैं. हमने अपने आप को समाज में ढाल तो लिया, पर बदले में नियमों के झड़ी लगा ली. प्रेम करना भी अब नियमों में बंध गए. प्रेम का एहसास कभी समाज के ठेकेदारों से डर के,  तो कभी किसी और के विरोध से डर कर खुद की मौत में मरने लगे हैं. अब ठेकेदारों का कहना है प्रेम सिर्फ विवाह के बंधन में बंधने का नाम रह सा गया है. विवाह से पूर्व और विवाह के अलावा प्रेम वर्जित है. ये ठेकेदारों ने जब नियम बनाये होंगे तो वो खुद जरूर या तो प्रेम से ओतप्रोत होंगे या वियुक्त. प्रेम में पड़ा इन्सान ऐसे नियम नहीं बनाता. हम ऐसे नियम नही मानते, प्रेम ईश्वर का वरदान है और प्रकृति की देन. ज़िन्दगी का क्या भरोसा आज हम हैं कल नहीं. फिर इस जीवन को क्यूँ न जीए?

आधुनिक भागमभाग में पहले शिक्षा की दौड़, फिर नौकरी की. नौकरी जब कुछ संभल जाए तो ही विवाह की बातें सम्भव हैं. इस दौड़ में ज़िन्दगी की दौड़ एक तिहाई तक तो दौड ही जाती है  या यूँ कहिये जवानी आधी निकल ही जाती है. ठेकेदारों की बात सुने तो जीने को सिर्फ आधी जवानी ही रह जाती है. फिर समय की कमी. कहाँ हम जी पाते हैं कुछ भी पल. ज़िन्दगी की गणित में जवानी का तो कोई मोल ही नहीं रहा. लोगों का कहना माने तो विवाह से पूर्व प्रेम, वासना है, lust हैं. शकिर्ण दिमाग की शकिर्ण सोच. सिक्के के दो पहलु की भांति, जब आप प्रेम हैं तो सब सही, नहीं तो सभी गलत. ये तो देखने भर का नजरिया है कब प्रेम, प्रेम रहे कब वासना बन जाए. एक बार एक ठेकेदार ने कहा जवानी के जोश में प्रेम से लोग भटक जाते हैं. परिपक्वता नहीं रहती. बहुत हँसे थे हम. विवाह करते ही परिपक्वता कैसे जन्म ले लेती है कि सब कुछ उचित हो जाता है. विवाह महज एक बंधन का प्रतिक ही तो है. गर विवाह बंधन की गारंटी है, तो भागती इस ज़िन्दगी में ज़िन्दगी का ही कोई मोल नहीं, तो गारंटी किस बात की.  विवाहित होना प्रेम करने की योग्यता कैसे हो गयी?

आज स्त्री हो या पुरुष, सभी पढ़े लिखे हैं. स्कूल, कॉलेज, मीडिया, टीवी, अखबार सभी ने अपने तरफ से योगदान कर आज के समाज को इतना ज्ञान दे चुके हैं कि स्कूल में भी पढ़ रहा बच्चा अपने जीवन की दिशा देखता है, कहाँ जाना है ढूँढता है. कॉलेज से पास हुआ नहीं की करोडो के व्यवसाय चलाता है,  मंगल तक यान भेजने की क्षमता रखता है, बड़ी से बड़ी आविष्कार करने की क्षमता रखता है..फिर प्रेम करने की योग्यता विवाह के बाद ही क्यूँ? आज की स्त्री इतना बल रखती है कि खुद को सुदृढ़ करने के संग एक पूरा परिवार, एक व्यवसाय सब कुछ सँभालने की क्षमता रखती है. तो प्रेम के मामले में वो अबला कैसे हो सकती है? शक्ति के देश में आज स्त्री पुरुषों का साथ देती है. शिव के अर्धनारीश्वर का रूप तो अब प्रबल हुआ है. स्त्रीत्व एवं पुरुसत्व का सही चिन्ह तो आज के युग में आया है. आज दोनों उतने ही प्रबल हैं जितने शिव –पार्वती या रति-कामदेव के छवि. कामदेव गर शक्तिशाली हैं, परिपक्व हैं, नितिसंगत हैं, तो रति भी कम नहीं. आज रति को भी उंच-नीच का ज्ञान है, न्याय अन्याय का ज्ञान है, फिर आज रति और कामदेव के मिलन पर विवाह का बंधन क्यूँ?

आज के इस युग में, हम नहीं मानते प्रेम की कोई वैवाहिक योग्यता से बांधना एक सूझ है. प्रकृति के हैं हम, तो प्रकृति के बनाये नियमों को माने. अपने शरीर के संरचना, शरीर के वेग, शरीर के मुरादों की यथाशक्ति सूझबुझ से आदर करें, न कि इन्सानों के बनाये दकियानूसी नियमों को पालन कर खुद कुंठित जीते रहे. इच्छाओं की शक्ति को निर्बल न कर एहसासों से अपने ज़िन्दगी को सीचें, कुछ लम्हे बनाये, कुछ पल जीये. प्रेम को वासना, pre-marital sex के शब्दों से परे करे. प्रेम करे और ज़िन्दगी जीए.  डायरी के पन्नों में दबे सूखे से एहसास, हासिये से बंधी पन्ने और पन्नों पर भीगी अक्षरें धुल की परतों सी रह जाती हैं. अपने आप को मिथ्या नियमों से मुक्त करे और प्रेम करें.  

Enjoy the feeling of being in love… practice love making…
listen to reflections of sensuality in love….
Be in Love…
love is not about making yourself happy…
it’s more of giving the joy to your partner with all the love….
Practice the art of safe love…and keep loving


written for : indiblogger contest:YES or NO to Pre-Marital Sex

Dec 11, 2014

स्वच्छता : धन की बचत...

स्वच्छ भारत... ऐसा लगता है एक नयी जागरूकता आई है अपने देश. शुक्रिया मोदी जी सोये हुए अपने देश को आज़ादी के क्रांति के बाद एक बार फिर से एकता के सूत्र में बांधने के लिए. एक और आन्दोलन की आगाज़ राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के १५०वीं जयंती के उपलक्ष्य पर महात्मा के नाम सौगात देने के प्रयास के लिए. अथक धन्यवाद. मानस पटल पर एक नयी उर्जा की सृजन हुई है, हर कोई झाड़ू ले कर निकल पड़े हैं देश की सफाई के लिए: कूडा- करकट की सफाई, दिन प्रतिदिन कार्य के कार्य में व्यवधान देते घूसखोरों को सफाई, आलस से सफाई. अपने आप और अपने परिवेश की सफाई के लिए जब ये नयी उर्जा के बारे में सोचते हैं, ऐसा लगता है मोदी जी ने एक नए फार्मूला का ईज़ाद किया है और उस फार्मूला को सभी इस्तेमाल करने में जुड़ गए हैं. कहीं न कहीं इस सफाई के पद्धिति की नींव तो हमने बचपन से संस्कारों में पाया था. हम कहीं न कहीं अपने इस पद्धिति को भूल आये हैं.

अनेकों धर्मों से जुडी ये नायब देश में हर नागरिक चाहे वो शहरी हो या किसी के कोने में रह रहा एक अनपढ़ इन्सान किसी न किसी आस्था से किसी न किसी धर्म से खुद को बांधता ही है. और गर हम ध्यान से किसी भी धर्म को ले, उस आस्था का जन्म हमारे किताबों या ग्रंथों के ईजाद होने से पहले ही हुआ था. उन दौरान भी ज्ञानी, ऋषि, पैगम्बर, सभी आम इंसानों से कहीं बहुत ज्यादा ज्ञानी थे. उन दिनों लोगों को अच्छे व्यवहारों को अपनाने के लिए ईश्वर का या एक परम आस्था का वास्ता दे कर पालन करने की बातें बताते. वे बातें ही धर्म के किताबों में दिखे. स्वच्छ व्यवहार की ज्ञान तो सभी धर्मों में उपलब्ध हैं. हिन्दू के चरकसंहिता में तो पूर्ण विवरण हैं.
-    हिन्दू धर्म के अनुसार पूजा के पूर्व स्नान कर अपने आप को शुद्ध करना अनिवार्य है जो स्वस्थ जीवन का मूल मंत्र है.
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Dec 10, 2014

24-7 way of driving a Secured Life

I am not a writer. I am not a poet. I am not even a Song Composer. I am not a role model and I don’t follow Safety Begins with me” forced me to nourish my experiences into a post. I only have four years driving a four wheeler and twenty plus years on two wheelers. A scar on my face when I was eight, a broken watch of my wife,  a near to death experience in front of a bus wheel, a car collapsing incidence involving my uncle and his entire family; are the few of the incidences when I believed Safety comes first. These incidences make me say and believe in phrase “meri to fatati hai” on roads. I am not sure how to use the phrase in English, but yes this is what I hear from people when they encourage me to go unsafe. I would prefer to stay safe than to please a moron who in return would always say “teri to fatati hai”.

I am a person who would buy an Insurance to cover my family, save out a good portion of my salary to ensure my family is financially protected when I am not there. I care for my family  and strongly believe that my own safety is the foremost thing  for my family’s safety. A person who spends almost  quarter of his office time driving is exposed to Risks that can be compared with any high risk job like that of a fire fighters’. So how can I ignore my own safety. Above all, I work for a company where all their meeting starts with Safety Messages.

For me safety is first and is active  24 by 7.   Yes, it’s 24 by 7 alertness, right from lighting a gas oven to driving a car. I have my own definition of it. I use the formula as “24-7” on Roads. Let me share it with you.
two        : before you board in,
four       : when I am on driving seat , and
seven    : while driving on roads.