बचपन का गाँव
चौपाल पर बैठा जब भी गुज़रे पलों की याद आती, तों सबसे ज्यादा छवियाँ बचपन के पन्नों से निकल आँखों के सामने आ जाती हैं. और इन्ही पलों को जो समय के झुरमुट में कहीं खो जाती हैं, उन्हें दुबारा निकाल कर सजा बैठता हूँ. और सच पूछिए तों मेरे ब्लॉग का नाम चौपाल भी इन्ही किसी पन्नों से आई थी. नहीं, मैं किसी गांव में पैदा नहीं हुआ था या पला बढ़ा था की चौपाल की बातें करू. छुटपन में, हम गर्मियों की छुट्टी में आसाम से बिहार के एक गाँव अपने दादा जी के पास जाते थे. जेठ की दुपहरी में भी, लू की ना तों परवाह होती ना ही अलसाये सोने की चाह. यही तों एक मौका होता अपने दिल की अरमान निकाल पाने की. जब अलसाये से सब बड़े घर में सोये रहते और धमाचौकड़ी करने की हमारी आज़ादी. निकल पड़ते हम हलफ पैंट में, बिन कुरता गंजी के. हर दिन एक नयी दिन. अड्डा भी कहाँ था, हमारा पुश्तैनी घर. घर क्या खंडहर था. बड़े खेत खलिहान के हरियाली के बीच हमारे परदादा जी के पिता जी ने अपना बंगला बनवाया था. धीरे धीरे ईंट का वो बंगला समय के साथ ढलता गया और स्थिति जर्जर होती गयी. कब, कैसे और क्यूँ एक बंगला जर्जर हुई कभी सोचा नहीं. पर हाँ हम उसे “दलान” कह कर बुलाते थे. वहाँ गाँव के बुजुर्ग तब भी मचिया डाले शाम और सबेरे गप्पों की सिलसिला लगे करते. वहीँ एक ऊँची सी ईट की चबूतरा थी एक बड़े पेड़ की ओ़ट लिए. यही चौपाल थी जिसकी छाप हर वक्त आँखों में आज भी सजती है. नंग धडंग हाफ पैंट में कई कई शामें और सुबह गुज़रे थे, बालपन की दिमाग से इतनी समझ आती कि लोग दूर-दुनिया की बातें करते, घर बाहर के परेशानियां हल होती, साधू संत आते तों बिचार-विमर्श भी लंबा होता. यही था चौपाल, मेरा अपना चौपाल.
दालान के ओ़ट में हमारे नटखट दिमाग के प्लान बनते. गर्मी से जब नंग बदन पसीने में नहा जाती तों, दौड के खेतों में घूस पड़ते. हरी लंबी ईख के खेत में छुपते-छुपाते, बदन कों पत्तों के तेज धारों से कटते कटाते पहुँच जाते अपने चाचा के यहाँ. अब गांव में तों हर कोई चाचा ही था. सबसे प्यारे थे हमारे ददुआ चाचा. ददुआ चाचा का व्यक्तित्व भी क्या, लंबी सफ़ेद मटमैली दाढ़ी, काला शरीर पसीने से लथपथ-चमकती. आँखों में एक शरारत फुट पड़ती हमे देखते ही. हम पहुंचे नहीं कि दांत निपोर कर डंडा ले कर हमे भगाना शुरू करेगे. फिर हंस के रेहट के पास रुक जायेंगे. अब समझ आता है कि वहीँ पर क्यूँ रुकते. रेहट पर रुक कर कहते “बदमसवा रुक स, अब भागल नयिखल जात (बदमाश ठहरो, अब और भाग नही सकता). हमे भी पता था..अब ददुआ चाचा कहेंगे कि इस गर्मी में अब नहा लिया जाए. बहती लू में, फिर क्या बैलों कों खोले, कोल्हू के बैलों कों रेहट के संग जोत डाला.. कुंवे से ठंडी ठंडी पानी रहत के दोनों से एक एक कर के गिरती और हम नहाते रहते.. जब पूरी तरह नहा लेते तों ददुआ चाचा कि बारी होती, फिर हम सब मिल बैल कों हांकते और चाचा नहाते. गन्ने के खेत के एक कोने में मचान होता था, जहाँ नहा कर ददुआ चाचा हमे ले जाते.
मचान भी क्या गेहूं या धान के पुवाल से बनी होती. गर्म हवा चलती पर बड़ी प्यारी ठण्ड लगती. ददुआ चाचा का फिर कहानी शुरू होती. अपने ज़माने की, अपने बचपन की, अंग्रेजों की. कभी झूठी कभी सच्ची क्या पता.पर बड़ा मन लगता. मचान पर लेटने का एक अलग ही आनंद होता. लेते लेते खुले आसमान का सूनापन, झरझर बहती हवा, खेत से पत्तों के हिलने की सरसराहट, ऐसा लगता की जादू सा माहौल बन गया. बचपन में कहाँ इतनी समझ थी पर हाँ मंत्र-मुग्ध सा एक शहरी लड़का गाँव के जादुई अनुभव में कब सो जाता, पता ही नहीं चलता. शाम होती तों ददुआ चाचा मुझे खास कर, क्यूंकि दुबला पटल हल्का सा था मैं, अपने कंधे पर उठा कर ले जाते वापस घर. और रास्ते में ढेर साडी मिठाई मिलती.
मिठाई की बात निकली तों कैसे हवा मिठाई की बात ना करू. गाँव में जब हम जाते तों आज कल की तरह मिठाई और कैंडी नहीं मिलती. एक हवा मिठाई वाला आता याद है मुझे. मोटे से बांस के एक छोर पर चीनी की लेप सी होती. जिसे मिठाई चाहिए होती, मिठाई वाला खींच कर एक लंबी सी सूत सा निकालते, फिर जिसे जो आकार चाहिए होती, उसके अनुसार, सांप, घडी, डंडा आदि में बदल के दे देते. फिर “हवा मिठाई हवा मिठाई” कह कर घंटी बजाता और आवाज़ लगाते. उनके आस पास लग जाती बच्चों के झुण्ड. हर कोई खरीदने की जिद करने घर भाग जाते. शहर के इस नए उस्ताद कों गाँव की रीत की क्या खबर. मिठाई लेने के लिए तों दो मुट्ठी धान देनी पड़ती. जी हाँ उन दिनों खरीद परोख्थ अनाज के एवज में हुआ करती. बच्चे माँ के पास जाते, बदले में गमछा में दो मुट्ठी धान ले आते और उसके बदले मिलती हवा मिठाई. हमने तों घर में धान देखा ही नहीं था. हवा मिठाई तों खानी ही थी. सो चले गए मिठाई वाले के पास और जा कर कहा “ए चाचा, सुनी ना... ए चाचा, हमरा भिरी अनाज नईखे, रवुआ हमरा के मिठाई मंगनी में दिही ना” (हमारे पास अनाज नहीं है, आप हमे मिठाई मुफ्त में ही दे दीजिए ना). सुन कर मिठाई वाले चाचा बोले.. “ए बवुआ, सुनीं, रावुर बोलिया त बड़ी मीठ बा, रवुआ असंही मीठ बोलब हमेशा...” (ए बवुआ(प्यार से बच्चे कों बुलाते हैं), आपकी बोली में बड़ी मिठास है, आप ऐसे ही हमेशा मीठा बोलियेगा). कह कर उन्होंने एक लंबी सी मीठी सी हवा मिठाई निकाली और सांप सा बना कर, छोटे से लकड़ी में लपेट कर पकड़ा दिया. बहुत खुशी हुई.. मीठा बोलने का इतना मीठा पुरस्कार. क्या था तब से आज तक जुबां कों मिठास में ही पिरोये रखा. अच्छा लगा था उस दिन...
बचपन के वो दिन काश फिर लौट आते, ददुआ चाचा तों रहे नहीं, रेहट की जगह पम्पों ने ले ली, हवाई मिठाई वाले आईस क्रीम बेचने लगे, मचान आज भी हैं आज भी ईख की खेत हैं..पर जिंदगी के इस भागा दौडी में पैर अपने गाँव तक पहुँच ही नहीं पाते ..सुना है आज भी दालान खँडहर सा पड़ा है पर बच्चों ने वहाँ अपना अड्डा नही बनाया... टीवी और स्कूल के बस्तों ने रुख रोक रखा है .....उन्हें कहाँ अब इन दिनों की लुत्फ़ मिलेगी गाँव में रह कर भी..
नोट :मैं कोई सदियों पहले की बात नहीं कर रहा,, आज से बस ३०-३२ साल पहले की बात है... इतना उम्रदार नहीं ... ;-)
बहुत सुन्दर यादें और बहुत सुन्दर आप का कहने का अन्दाज़
ReplyDeletebahut hi sunder...aap sahi kehte hai....kaash ek baar phir bacche ban jaye...
ReplyDeleteशुक्रिया दोस्तों.
ReplyDeleteकभी सचमुच बच्चा बन जाने का मन करता है तों कभी अपने गाँव जा कर वही रेहट में नहाने का, या गन्नों के खेत में गन्ने खाने का...
पर सब कुछ कितना बदल सा गया है...
Hi ...CONGRATULATIONS.for winning the contest
ReplyDeleteSeema Thanks Dear.................
ReplyDeleteTrust me I never ever thought in my life...the way i used to write, will even have a readership... it qulified for an Award!!!! Awsome.......... and trust me once i had this entered never ever checked... if you wud not have commented..i wud not have known even.............
thanks Seema...
thanks zin for provocating me to write....
just preserving the link
http://www.indiblogger.in/topic.php?topic=50#
Indiblogger पर कुछ एक ही हिंदी ब्लोग्गर्स को मैं जनता हूँ, आपसे मिल के भुत ही ख़ुशी हुई. बनारस - बलिया का होने के नाते, हिंदी-भोजपुरी का मेल बहुत ही मीठा लगा...हर गाँव में एक चौपाल होती है, हर गाँव में एक ददुआ चच्चा होते हैं...मैं भी गाँव में पैदा नहीं हुआ, ना ही बहुत जुदा ही हुआ हूँ, पर गर्मी की छुट्टियों में बिताये हुए दिन हमेशा याद आते...
ReplyDeleteविजयी पोस्ट के लिए हार्दिक बधाइयाँ...
शुक्रिया पुनीत ...हम कितने भी आधुनिक होने क दावा करे या चाहे कितने भी शहरों और महानगरों की ओर पलायन कर जाए .. एक बार यदि हमने गाँव के गन्ने चख लिए हों तों हर एहसास छोटा और सुखा लगता है...
Deleteगाँव में बिताए एक एक छन, एक एक दिन गर्मी के छुट्टियों के भूले नहीं भुलाये जा सकते...शुक्रिया....यूं ही कभी कभी हमारे चौपाल पर आते रहिएगा...गाँव की मीठी यादें ताज़ा हों जाएँगी...हाँ लेखों पर आपकी प्रतिक्रया चाहूँगा..
Really sweet poem! Loved the fact that its in hindi!
ReplyDeleteThanks Dear...words of appreciation means a lot....
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