कई दिनों बाद चौपाल
आया था. नहीं ऐसी कोई बात नहीं थी कि हम चौपाल पर आना ही बंद कर
दिए थे. बस हुआ
कुछ यूँ था भई कि चौपाल पर आते तो थे , रुकता भी थे, पर समय बना नहीं
पाते थे कि कुछ देर ददुआ चाचा की चाय चुस्कियों से पीते और कुछ कह पाते. बस आते, यहाँ वहां नज़र डाल कर निकल पड़ते. इस बार आये तो
कुछ ऐसी बातें निकलने को आतुर हो उठी कि बस बैठ गए कुछ बातें समेटने. बचपन की कुछ
पन्नों पर से धुल झाड कर सोचे कुछ, एक नज़र देख ही लूं.
सो बैठ गये.
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अब क्या बतायें, कहूँगा तो आप कहेंगे की फिर से ले आये हम बचपन
की बातें, गाँव की बातें. भई, जब जड़ मजबूत हो, गाँव के धुल से सनी हो, तो जूता क्यूँ न हम
ब्रांडेड ही पहने, धुल सनी पैर पर ही
दिल पसीजता है. अब बात उन दिनों की है, जब हम बाबा के कंधे
पर उनके सर के बाल पकड़ खुद को सँभालते खेला करते थे. बाबा गाना गाते, कंधे पर बिठा कर दौड़ते रहते. “जय कन्हईया की, मदन गोपाल की”. अब पुरे बोल याद
कहाँ है. बड़ा चैन मिलता था उनके खेल में. भईया लोग हमसे बडे थे तो वे ट्रेन के
डब्बे बन जाते और बाबा इंजन. पड़ोस के कुछ बदमास; लटुआ तेली, रमाकान, भभुरी भी आ जाते.
खेलते रहते खेत खलिहान में. ओका-बोका, स्टापू, पीठु, गिल्ली-डंडा क्या
नहीं खेलते थे. पर बाबा की एक जिद होती थी, सूरज ढलने से पहले
सभी को मैदान ले जाते, चौपाल से दस कदम पर
ही था और घंटे भर या तो दौड़ की प्रतियोगिता करवाते या गेंद खिलवाते. जीतने पर ईनाम
होता, गन्ने की रस, गरम गुड, आंवला के मुरब्बा, बथुआ की मिठाई, जिलेबी मिलती सभी
को. बाबा के भी बडे नायाब नायाब तरीके थे. हमेशा हमे कुछ काम दे दिया करते और फिर
तीनों भाइयों में बेस्ट ढूँढते और जो जीतता उन्हें चटनी मिलती.
चटनी. हाँ भूरी
चटनी.. सफ़ेद डब्बे से चटनी निकाल कर सभी को देते सबेरे सबेरे. और जो सिकंदर बनता
उसे दो चम्मच. काम और खेल से जुड़ा ये पुरस्कार हमे इतना भाता की जो चाहे करवा लो, हम तैयार होते... पढ़ने में भी मजा आता. हमने नाम
ही रखा था “भूरी चटनी”. भूरी चटनी की आदत
ऐसी पड़ी थी कि न मिले तो मन ही बैचैन रहता. माँ के पास जाते तो माँ मुस्कुरा एक
चम्मच चटा देती. भूरी चटनी के बारे में सुना था बाबा शहर से ले के आते थे. खेलते
कूदते कब बडे हो हॉस्टल आ गए इंजीनियरिंग पढ़ने. पहली बार आया था तो माँ ने भूरी
चटनी की डब्बे समेट दिए थे. कहा था सिर्फ एक से दो चमच दिन में लेना. अब एक बार
में एक ही डब्बे ले कर आ सकते थे. तो बाबा ने हमे दुकान दिखा दिया था कहा यहीं से
अपनी भूरी चटनी खरीद लेना. उस दिन पता चला था कि “भूरी चटनी” कुछ और नहीं “चयवनप्राश” है.
धीरे धीरे शहर की आबो-हवा और दोस्तों के
बदमाशियों में भूरीचटनी धूमिल हो गयी. समय बदलता गया, नौकरी, फिर शादी, बच्चे.. समय बदलता गया. गाँव से शहर, देश से विदेश, भारत से लन्दन और लंदन से हम खानाबदोशों
के तरह घुमने लगे. दुबई आये तो समय की व्यस्तता इतनी बढ़ गयी कि परिवार के साथ समय
कम होने लगा. कुछ पल मिलते तो बाबा की याद आती और याद आती उनके साथ का खेल. शायद अपने
बचपन के दिन, अपने बच्चों के बचपन से निकल कर वापस आता है. शायद फिर बचपन लौट आया
था. बाबा के खेल दुहराने लगे थे. कुछ समय ही होता हम अपने बच्चे के साथ खेलते. और,
ज़िन्दगी बदल गयी थी. रोटी दाल सब्जी की जगह सैंडविच, बर्गर और पिज़्ज़ा ने लिया था.
स्वस्थ खान पान कितना भी नियोमों डालते इनकी जगह तो अपनी ही है. दुबई के साथ आया
कृतिम एसी की हवा, मिनरल वाटर, और बंद माचिस की डिब्बों सी फ्लैट. अब खेत खलिहान
कहाँ की बच्चे खेल सकते. पढाई का अलग नाटक. परिश्रम लगभग ख़तम ही होती गयी. ऊपर से
धुल भरा बाहर का मौसम. बेटे को जब तब बुखार होने लगा. गर्मी ने अलग नाटक दिखाया.
परेशानी के उनदिनों
माँ से बात कर रहा था तो माँ ने कहा “बुद्धू, बाबा की भूरी चटनी याद नहीं है. भूरी
चटनी खिला, सब ठीक रहेगा.” सच, भूरी चटनी को तो मैं भूल ही गया था. फिर वो दिन है
और आज का, चार साल बित गए दुबई में, बेटा को भूरी चटनी चटाए. तब से आज तक रोज
स्कूल जाने से पहले भूरी चटनी और दूध पीने के लिए नाटक नहीं करता. जी, दूध पीने पर
ही भूरी चटनी मिलती है उसे. बहुत पसंद है उसे. आज वो बीमार बहुत कम पड़ता है और हम
हर रोज़ एक नयी ज़िन्दगी जी पाते हैं...
भूरी चटनी की बातें
सफ़ेद लाल डब्बे में
वर्षों से कैद है...
कैद हैं बचपन के कई दिन
बाबा के संग बिताये
भूरी चटनी की यादें
बेटे के साथ
वापस आती यादें.
बंद हैं आज भी
च्यवनप्राश के
सफ़ेद लाल डब्बे में...
शुक्रिया च्यवनप्राश..स्वस्थ
से भरे उन पलों के लिए...
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.