कई दिनों बाद चौपाल आया था, दिनकर साहब के उगने से पहले. हाँ, ददुआ चाचा की पहली चाय और सवा रुपये की बोहनी ज्यादातर मेरे से ही हुआ करती थी. चाचा की पहली चाय सवा रुपये की ही होती है और उसके बाद लंबी टंगी हुई कार्ड के अनुसार जिसमे अदरख के चाय, इलायची चाय, नीबू चाय...एक के बाद एक चायों की किस्मे मिलती. अच्छी चलती है उनकी दूकान. ददुआ चाचा की चाय की चुस्कियों से दिन की शुरुआत करने की अलग लुत्फ़ होती है खास कर अदरक की चाय बहुत ही स्फूर्ति दे जाती है. अदरख की चाय की आज तलब भी बड़ी लगी थी. रात भर नींद नहीं आई थी हमें. और, ऊपर से बड़ी दिनों बाद आया भी था. शायद आपको भी लगा हों की वो लंबे लंबे चिठ्ठे नज़र नहीं आ रहे. हाँ कुछ लोगों ने तों गहरी सांस ले कर कहा भी होगा चलो कुछ दिन की फुर्सत तों मिली.. अब हर कोई कहाँ इतने लंबे छिट्ठे पढना भी चाहता है और तों और कोई लेखक लिखता तों कोई बात थी, इस अदना से टूट-पुन्जिये कों कौन पढ़े. पर सत्य तों यही है कि हम तों बस दिमाग में उथल पुथल हों रहे विचारों कों अपने प्लेटफोर्म पर ले आते हैं जिन्हें चौपाल बना रखा है. और उन्ही विचारों कों शब्दों में बसा कर एक चिठ्ठे में डाल कर रख लेते हैं.
खैर, बहुत दिनों बाद आया था. अब शायद आप भी पूछ ही बैठे कि “का हुआ आशुतोष बाबू बड़े दिनों बाद नज़र आये चौपाल पर?” हुआ ये कि बिन चौपाल पर आये तों मन नहीं मानता, पर इन दिनों zin आई हुई थी. अब जिन आये और मैं मसरूफ ना हूँ थोड़ी बात हजम नहीं होती. लगा तों यही था कि शायद मेरे कभी बुलाने पर भी वो ना आए मिलना तों दूर कि बात. पर वो आई.. कुछ पल हमने साथ गुज़ारे.. फिर वही बातें, वही शब्दों के साथ छेड़ छाड, कुछ बीते पलों की यादें और कुछ अनकहे अरमानों के सिलसिले. हम जब भी मिलते है कुछ ऐसा ही हों जाता है .. कब उदास रातें इतनी खुशगवार हों जाती है, कब रात आती है और कब चली जाती पता ही नहीं चलता. कई कई बार तों रात भर जगे रहते, घंटे दो घंटे की नींद होती और फिर निकल पड़ते रोजी-रोटी के चक्कर में. कुछ दिन थी अच्छी गुजरी एक एक पल.
थोड़ी बदली बदली सी थी वो. बात बात पर शिकायत, बात बात पर ताने, कभी आंसू तों कभी ठहाके, कभी नफरत तों कभी प्यार.. इतना कुछ कैसे बदल गया था जब भी सोचा एक ही जवाब मिला की सब हमारी ही देन थे. सपने कुछ देखे थे साथ साथ और जब बारी आई निभाने की तों हम नहीं निभा सके. और वो यही समझती है कि कहीं ना कहीं मैंने उन्हें बहलावे में रखा. खैर, हम मिल तों नहीं पाए, प्यार आज भी उनसे उतना ही है, अब तों और बढते ही जा रहा है ...सेंसेक्स की भांति तों नहीं कहता क्यूंकि आजकल इसका भी कोई भरोसा नहीं, पल में ऊपर तों पल में नीचे. कल रात जब घर लौट रहा था, उन्ही के ख्यालों में खोया चले जा रहा था. रास्ते में खेतों के हरियालि के बीच एक बंजर जमीन थी. किसी कों वहाँ कभी रुके हुए नहीं देखा था और ना कभी रुका था. बड़ी भयावह सा टुकड़ा था. सूखे तिनकों से भरा, सुखी टूटी हुई जमीन ... बड़ी ही भयावह लगती. शाम होती तों रास्ते छन छन कर लेम्प पोस्ट के लाइट इसे और भयावह बना देते. कल नज़र गयी इस जमीन पर तों ठिठक गया. एक साया थी. दूर से देखने से ही लगा कि कोई तों बहुत दुखी है. थोडा पास गया तों आँखें फटी रह गयी. फटे काले साडी में लिपटी, बालों कों अस्त व्यस्त किये कोई लड़की थी.. हलके लाईट में भी गालों पर लुढकते आन्सूवों के राह चमक कर बता रहे थे कि रों रही थी ये... और पास गया तों सर पटक कर बैठ गया..ये कोई और नहीं थी मेरी अपनी जिंदगी थी जो मेरे ना होने से टूट सी गयी थी, बिखर गयी थी, पर उठने की जिंदगी जी पाने की एक और अथक प्रयास थी ...हाँ मेरी zin ही थी.
शब्द नहीं थे कि कुछ पूछता कि क्यूँ हों इस हाल में, क्यूँ हों इतनी दुखी, किस बंजर लम्हे कों इस बंजर मैंदान में फेंक रही हों...कई सवाल थे..कई सवाल कर सकता था पर कर ना पाया..क्यूँकि जवाब जानता था..हर सवाल के जवाब मुझसे ही हों कर गुजरते. कोई सवाल नहीं किया हमने. आँखों में भरे आँसुवों से उनसे यही पूछ पाया कि क्यूँ हों इस हाल में, क्या बना डाला है अपने आप कों? कल तक तों सिर्फ शिकायतें थी हमसे ही, आज फिर क्यूँ आज शिकायतें तुम्हे अपने आप से हों गयी? कल तक का साथ क्या सिर्फ दिलासे देने के लिए था?” पूछ नहीं पाया था शब्दों के हवाले से कुछ भी, मौन प्रश्न आँखों से ही निकल पाए. काँधे पर हाथ रख, झंझोड़ा उसे तों कोई शब्द ना थे. मौन प्रश्नों के जवाब मौन लबों से हों अश्रुपूर्ण आँखों से निकल पड़े – “भुला जाना चाहती हूँ तुम्हे पूरी तरह से. छोड़ दो मेरे ही हाल पे चले जाओ यहाँ से दूर कहीं भूलना चाहती हूँ मैं तुम्हे ..” सर पर हाथ धरे धरे मैं बंजर जमीन पर बंजर सा गिर पड़ा.. कुछ देर तक अपने बंजर होने का एहसास सता गया. बंजरता कों सींचते आँसुवों कों समेट निकल पड़ा. ना चाह कर भी उसे उसी माहौल में.. छोड़ जाना तों शायद मेरी खासियत है, ऐसा एक बार कहा था उसने मुझे...
राह चलते चलते ना जाने कहाँ आ गया था पता ही नहीं चला...सोच रहा था उसके बारे में और उसके ख्यालों के बारे में. सोच रहा था कि कोई प्यार ना करे तों दुःख नहीं होता क्यूंकि किसी कों प्यार करना या ना करना, उसी के हाथों में होता है और प्यार कोई हमसे करे इस बात कि जबरदस्ती हम नहीं कर सकते. कोई हमसे घृणा करे ये भी कहीं ना कहीं मान पाना आसान होता है. क्यूंकि कुछ तों हम में ऐसी कमी रहती हों जो औरों के लिए जरूरी होती है और यही कारण होती है कि हम घृणा कर जाते हैं किसी से भी.. किसी का प्यार करना और घृणा करना हम सह सकते हैं. पर किसी का किसी कों भुला देना और यह कह देना कि भुलाना चाहती हूँ, कैसे मुमकिन हैं. बर्दास्त नहीं हों पता है हमसे. हमारे लिखे हुए एहसास कोई पेंसिल कि लकीर तों नहीं कि रब्बर लगाया और मिटा डाला. मंज़ूर नहीं था उसका यूं हमे भुला जाना..
हमारे एहसासों कों
कैसे मिटा पावोगी?
किन-किन बातों से
हमे भुला पावोगी?
रचे हैं हमने शब्दों से
कई कई छंद
किन-किन छंदों से
हमे हटा पावोगी?
सजाये हैं हमने
कई कई एहसास
किन किन अहसासों से
हमे मिटा पावोगी?
जानता हूँ कि जुड
ना पा रहे हैं
हमारे मंजिल कहीं...
किनारों से दूर, कैसे
कोई मंजिल सजा पावोगी?
पर जानता हूँ
पहचानता हूँ
बस में है सब कुछ तेरे..
पर संग जीए सारे
एहसासों कों कैसे भुला पावोगी?
गर जिद है तुम्हारी कहीं
हमे भूल जाने की
चाहत है तुम्हारी कहीं
हमे अपने ख्वाबों से
मिटा जाने की,
तों
ना कर संकोच,
ना झिझक,
ना हों और उदास
इकरार हमने ही
पहले किया था
पहले कदम हर बार
हमने ही लिया था
तों आज भी
भुला जाने की
जिद कों तेरे
खुद ही
आगाज़ दे जावुंगा
मेरी खुद की परछाई
तुझसे दूर ले जावुंगा
शब्दों से ही नाता बना था
शब्दों से ही पहचान हुई
शब्दों में ही खेले थे हम
शब्दों से ही मिलते थे हम
शब्दों में ही आशा सजे थे
शब्दों में ही ख्वाब बने थे
शब्दों से ही छंद जन्मे थे
कहे अनकहे रंग बने थे
इन शब्दों से ही
नाता अपना
शब्दों का शब्दों से ही
नाता अपना
शब्दों के ही मिट जाने से
रुक जाता है
नाता अपना
रुक जायेंगी अहसास अब मेरे
रुक जायेंगी ख्वाब हमारे
ना मिल पाएंगी
शब्द हमारे
और ना मिल पाएंगी
परछाई
भुला पाने कि जिद है गर तेरी
सह लूँगा ये जिद भी तेरी
आखरी शब्द हैं ये
अब मेरे
आखरी शब्द के खत है
मेरे
ना अब कोई आवाज़
सुनोगी
ना कोई
आगाज़ सुनोगी
तुमने ही शब्द थे मुझमे सजाये
आज मैने तुझ पर ही लुटाए
अब ना आवुंगा मैं कभी भी
मंज़र में इन शब्दों के
शब्दों के इस रेले में
गूम हों जवुंगा मैं भी
इस मेले में.
विदा लेता हूँ मैं,
अब सबसे,
आखरी चिठ्ठे के पन्नों से
अब ना मुझ्से
कोई शब्द बनेंगे
ना कोई भी खत बनेंगे
ना कोई
परछाई होगी
ना ही कोई
शब्द होगी .
................शुक्रिया शब्द............. विदाई
कह कर अपने आप से जहाँ बैठा था बैठा ही रह गया घर भी नहीं पहुँच सका, शब्दों कों अलविदा कह पाना शायद बहुत मुश्किल है एक लत सी लग गयी है ..देखे कब तक रोक सकूंगा ..तब तक के लिए विदा ....
५/४/१२
nice post ! :D
ReplyDeleteHere's an award for my favorite blogger - Versatile Blogger!
WOOOOOOOOOOWWWWWWW GREAT THANKS FOR THE AWARD...
ReplyDeleteMY 1ST ONE ....FEEL GREAT ...
THANKSSSSS
बधाई वर्साटाइल ब्लागर चुने जाने के लिये।
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति ...पर शब्दों को अलविदा न कहें ...
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन अभिव्यक्ति है....
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन अभिव्यक्ति है....
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