Nov 30, 2015

पगडंडी...

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ज़िन्दगी के छोटे मोटे खुशियों से ही ज़िन्दगी का जन्म होता है..... हर कदम के पदचिन्हों के अपने मायने होते हैं...हर कदम के अपने शोर होते हैं......हर रास्ते के अपने अर्थ होते हैं...जो समेट कर, रुक कर हर कदम देख पता है,,वही जी जाता है    

पगडंडियों पर लेख पढ़ा तो,
समझ न आया कि
पगडंडियों पर लेख!!!
पगडंडियों की भी कोई अस्तित्व होती है?
पगडंडियों को भी कोई मान देता है?
पगडंडियों से जाले बुनता, गिनता  
मैं भी शब्दों में उलझ सा गया
पगडंडियों को भी कोई मान देता है?

पगडंडियों का जन्म भी, राहगीर ने
कभी चाहे, कभी अनचाहे कदमों से
मर्म घास के तिनकों को रौंदते हुए होगा.
पदचिन्ह छोड़ते राहगीर ने कभी
सोचा भी न होगा कि दुहरा कर
उस पगडण्डी पर कभी चलना होगा..
पगडंडियों को भी कोई मुड़ कर देखता होगा?

पगडंडियाँ भी कहाँ अपने को संभाल रखती हैं,
कहाँ राहगीर के छोड़े रूप में स्वतः रहती है.
धुप की तेज़ पड़ी तो, मैदान में विलीन हो गयी
नर्म-बरसात के बूंदों मे, कभी लहलहा उठी तो,
कभी कीचड के गड्ढों में पट गयी.
फुल के बीज गिर पड़े तो फूलों के साथ हो लिए...
राहगीर से प्रेम कहाँ था, की खुद को संजोये भी रखती..

छलावा ही तो हैं पगडंडियाँ..बदलती रहती है...
कहाँ अपने आप को संभालती है पगडंडियाँ?

जीवन से जोड़ती, गंतव्य राह से जुडती
इन पगडंडियों को भला कभी किसी राहगीर ने
मुड कर भी देखा है?
पगडंडियाँ !!! हाँ, किस राहगीर ने मुड़ कर देखा है
पगडंडियों ने राहगीर को नए राह से जब जोड़ा था
वक़्त कहाँ था, रुक कर मुड़कर देखने को ...
उस नए राह पर तो बस दौड़ना ही था..
रुकन  इंतज़ार करना तो बाद पगडंडियों को ही था..   

सड़क पर अपने मुकाम तक भाग पहुचना था राहगीर को.
राहगीर दौड़ता जाता,
मुकाम और आगे बढ़ जाता
मुकाम क्या थी,
एक अंत होती तो नए का जन्म होता..
यात्रा का समापन कहाँ था?
यथार्थ यह कब राहगीर ने जाना था?

थक कर
बदहाल हो
मुकाम तक पहुचने की अथक कोशिश में
किसी टीले के मुंडेर पर बैठ सुस्ताना चाहता है   
रुक कर अपने प्रयास को देखता है
माथे की पसीने को पोंछ जब फेंखता है
वही किसी पगडंडी को अनायास राहगीर भीगो जाता है
तब याद आती है
हाँ, किसी पगडण्डी को जन्म उसने दी थी
हाँ, वो एक पगडंडी हैं,
जहाँ उसने सफ़र शुरू की थी....
जहाँ से यह यात्रा जन्मी थी ....

जहाँ उसके पहले कदम ने किसी
तृण को रौंद पगडंडी को जन्मा था
पगडंडी...हाँ वही एक पगडंडी...

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