Apr 12, 2012

दीया

कल रात कों चौपाल पर आया तों देखा मजलिश सजी हुई थी.. हंसी ठट्ठे से माहौल गमगामाया हुआ
था. हम भी जम गए. बड़े दिनों बाद अपने कार्यकर्म से थोड़ी फुरसत मिली थी. कभी देश पर बातें शुरू होती तों कभी कल ही आई सुनामी पर. सब अपने अपने विचार दे रहे थे. हंसी माहौल से जी हलका हों चला था. जब भी मन भारी हों उठता, तों मैं चला आता था चौपाल..दो-तीन चुहल बाजी कर  लेता तों मन हल्का हों उठता. मुनवा भी वहीँ था, सर पर अब भी काला गोगल लगाये, गले में लाल लाल स्कार्फ बांधे, काजल लगाये ससुरा एक दम बन कर घुमते रहता. एक आँख नहीं सुहाता हमे. मोटरसाईकल पर तों ऐसे लदा रहता की लगता है कर्ण कों जन्म से कवच कुंडल मिली थी और मूनवा कों मोटर साइकल. ना उमर का कोई लिहाज करता ना ही ओहदों का. एक नंबर कर मवालि था ..जैसा दीखता है वैसा ही करता है... जिसे तीसे छेड़ते रहता. हंसी मजाक में कह ही गया -”का आशु भैया, सुने हैं कि कोई पूछ रहा है आजकल आपसे कि हम दिया किस लिए जलाते है? का जवाब दिए हैं भईया.” अब इसे कैसे पता चल गया था इस बारे में, सोचने लगा. दरअसल एक चिटठा है हमारा, तिनिमिनी-फ्रेम्स, ब्लोगस्पोट पर. उसी के उद्घाटन पर हमारी खुद खीची हुई प्यारी तस्वीर है एक दिया की. उसी पर किसी आगंतुक ने वो सवाल पूछा था. हमने कोई जवाब तों नहीं दिया.. सोच रहे थे क्या जवाब दे.. पर ये मूनवा मवाली कों कहाँ से पता चल गया नहीं समझ आया. हम हंस कर कुछ कहे नहीं, पर समा तो छेड़ छाड का था, सो सब पीछे पड़ गए.. “का आशु बाबू बात का है, बड़े सवाल पूछे जा रहे हैं?”.

मूनवा कहने लगा “आशु बाबू, बोले नहीं का, जब करेंटवा से बलब्वा ना जले तों दियवा जलाते है”.. ठहाके शुरू हों गए थे... अब बारी बारी से सबका प्रपंच चलने वाला था.. बंगाली बाबू कों तों थोड़ी सी हवा चाहिए होती, सुन कर रोमांचित हों उठे थे.. कहने लगे “ आर केऊ दिया जालाय ना जालाये, आमार आर तोमार बोउदी तों करेंट ना रोहे तों ही भालो लागता है, दिया जालाके बारी (घर) में थाकने(रहने) में खूबी मोजा.. बोउदी तों चूल (बाल) खुल के बोयिठ गिया, दिया जाला के, तों बास आमार तों अवोस्था खराब...”  “बस दादा बस और आगे नहीं” ..मूनवा काटते हुआ बोला.. अन्ना भी कहा चुप रहने वाले थे.. “अईयो रे सब कुछ भी बोलता... अम् तों मुरुगन स्वामी के सामने दिया नही जलाता तों दिन शुरू नहीं कर पाता...”. झट से दोनों हाथ जोड़ कर अन्ना ने मुरुगन स्वामी कों नमन कर डाला. मूनवा मवाली का मवाली पार्टनर गोतमवा भी मचल उठा, बम्बईया स्टाइल में कहने लगा “ये लाईट और दिया बोले तों ना, अपुन के चौल में, दिवाली में जो दिए जलाते ना ..भन्नाट दिया जलाते...है.. दिवाली मालुम ना तुमको... वो जो रामजी  जंगल में टाइम पास कों जाते, उधर रावन विल्लैन बन के राम के माल कों उठा के ले जाते... फिर राम फाईटिंग कर के जब वापस आते ना..तों उसके बूढवू लोग ना अपने गावउ में  दिया जलाते ..उसी कों दिवाली मनाते अपुन लोग भी ..अपने पास की खोली वाली माल भी ना, उसी वख्हत हॉस्टल से आती.. तों हम भी दिया जलाते आवुर बताते भी –रे माल तेरे लियर सब कुछ किया अपुन...”  “हरी ओम्, हरी ओम्” कह कर जोर से आवाज़ आई और डकार भी...हाँ पंडित जी थे... “परनाम पोंगु जी” पंडित जी कों देख कर सब छेड़ते हुए सब ने सलामी ठोंकी.. सभी पोंगा पंडित ही बुलाते.. चौपाल आते ही रामदेव बाबा जैसे उनके पंडिताई चालू हों जाती और लोग खिसकने लगते...किसे ज्ञान की पड़ी है आजकल? डकारा जोड़ से और तोंद पर हाथ फेरते हुए बैठ गए और कहने लगे “का रे मव्लिईया खूब बढ़िया रे खूब बढ़िया... पढ्ल-लिखल रहिते तों अयीएसन म्लेच्छन जैसे बात नहीं करते... सीता मईया तोरे माल लगत हव, आवुर वनवास तोरा टाइम पास? अरे बक्लोल्वा ओकर माँई-बाबु ना पूरा अयोध्या वासी दिया जलईले रहे...तब दिवाली कहलायिल. अरे तबे का उत्सव है रे बकलोलवा. अरे भाई...(सबसे मुखातिब हों कर कहने लगे) दिवाली तों हमरे बच्पनवा में मनावल जात रहे. पूरा गाँव में दिया जलता, लक्ष्मी की पूजा होती.. ब्रह्म-भोज होता. हर जजमान कुछ ना कुछ ब्रह्म-दान करते. बड़ा अच्छा दिन होता, महीनो तक तों ब्राह्मणों के घरों में दिवाली बनी रहती ..अब तों पाप कर्म बढ़ गए हैं.. दिवाली कहाँ कोई मनाता है और कहाँ ब्रह्म-भोज....” पेट पर हाथ फेरते पुराने दिनों के व्याखान चालू हों गया, अब ये रुकने वाला ना था...पोंगुवा शुरू नहीं हुआ की अब बंद नहीं होने वाला... खिसकना चालू हों गया था, कोई ना कोई बहाने के हाथ धरे, लोग निकलने लगे...चौपालक गपोड-विद्या किरकिरा  हों गया था... हम भी निकल पड़े, बुदबुदाते:

कैसे कैसे लोग यहाँ पर
कैसे कैसे रंग हैं मौला
नन्हे से इक प्रश्न पर
कैसे हैं बवाल ये मौला
मौला-मौला, मौला रे मौला

टूटी चप्पल कों सीधा कर के, पाँव में डाल निकल पड़ा चौपाल से, आज लाइट नहीं थी, हाँ अमावस की रात भी ना थी, पर अँधेरा ही अँधेरा छाया हुआ था. राह में पड़े लावारिस पत्थोरों कों टूटी चप्पल से ठोकर मारता चलने लगा घर की और. मुस्का कर सोचने लगा की म्वलीया की बातसे बात कहाँ कहाँ पहुँचने लगी... सवाल छोटा सा ही था जो आगंतुक ने पूछा था, “पता है तुम्हे कि दिया हम क्यूँ जलाते हैं?” सवाल पर इतना गौर नहीं किया था तब..पर जवाब क्या दे हम ये भी तों नहीं सोचा. क्या हों सकता है जवाब? “तीन शब्दों” में क्या कुछ कह पावुंगा? सन्नाटों के बीच, खुद के चप्पल के आवाज़ के साथ कदम मिलाता चलता रहा, सोचता कि क्या कहू..क्या मैं कहूँ? बहुत प्यार है उस दिया से. सवाल ये ना था की क्यूँ हम दिए कों जलाते है, गुढ़ सवाल ये था की कैसे हम दिए कों जला पाए? किसी की सौगात थी ये दीप..

नन्ही बाती का
प्रेम घृत में तृप्त
एहसासों कों
पूर्ण समेट
लौ से सजती..
और, दिए सा मैं
उन्हें अपने संग
बधा पाता

ईश्वर अराधना में
पिता की पूजा में
दिए बाती के संग
नतमस्तक हों मैं,
स्त्रोत के हर उच्चार पर
प्रेम-मीलन दुआ मांगता
मिलन “उनके” संग की
असंख्य दुआये मांगता

टूटे नाते, छूटे मिलन
अधियारे जीवन में
टूटा बिखरा जब
आज खुद कों अनुभव
कर पा रहा ..
तों फिर क्यूँ मैं
तों फिर कैसे मैं
आज
बुझी इस दीप के
अन्सुलगे बुझे बाती में
लौ फिर प्रज्वलित कर
किसी भी देव कि
आराधना कर पाता?
मैं फिर आज अपने
दिए कों कैसे फिर
जला पाता??

जब होगी गर मिलन
थामेंगी खुशियाँ
किसी का दामन
तब ही फिर जल
उठेगी बाती,
फिर सजेंगे
दीप और बाती...

नहीं जला पाया था मैं दीप उस दिन, जब हमे लगा की कुछ पल के लिए ही सही जिंदगी के साथ हम कुछ पल साथ तों थे.... प्रश्नों के घेरे, में शब्दों के लौ, में ना जाने कब हम गली के उस कोने में पहुच गए जहाँ रास्ते में बड़े बड़े गड्ढे थे. टूटे-बिखरे गड्ढों में अक्सर कोई फिसल जाया करता था. फुलवा चाची, अरे भई धोबन चाची, के घर के सामने ही था ये जगह, हर बार अँधेरा होता तों एक दीया जला जाया करती थी.आज भी चची भूली नहीं थी..आज इस अधियारे में एक दिए का यूं जलते रहना एक बार फिर उसके होने का, महत्वता का एहसास दिला गया था ....

कितना अधियारा हों जाता है सब कुछ....एक दिए के बिन


१२/४/१२

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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
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