Jun 2, 2013

Body's Right Signals

बहुत दिनों बाद चौपाल आया था. काम की अनचाही व्यस्तता, चौपाल की भरपूर जिंदगी से हमे रुकसत कर रखी थी. झारभरी पगडंडियों से चप्पल पटकता आ पहुचा था, मैं. हमेशा की तरह रास्ते में ददुआ चाचा दिखे, कपडे से चाय के पत्तियों कों छानते हुए. “चाचा का हाल चाल है, चाय पिलाईये”, कहा मैंने. ददुआ चाचा कों देखा की कपडे कों निचोड़ निचोड़ कर चाय निकाल रहे थे. चाय छननी के ज़माने में कपड़े से चाय कों छानते देख कर हंसी आ गयी. चाय रिस-रिस कर निकाल रहा था कपड़े से. चाय की प्याले से पहली चुस्की ली ही थी कि याद आ गया वो वाक्या जब कुछ ऐसा ही हादसा हुआ था.
बात उन दिनों कि है जब अन्नपूर्ण देवी कि प्रकास्ठा से हम फलने फूलने लगे थे. फले फुले क्या थे पुराने सारी पतलूनों ने हमसे मुह मोड लिया था और कमीजों के बटन हमसे विद्रोह कर टूट-टूट कर छिटकने लगे थे. अन्नपूर्णा माँ के संग हमारी माँ बड़ी खुश थी कि उनकी गरमा-गरम पराठे, मिठाईयों के संग उनका बेटा फलफूल रहा है. पतली सींक से छरहरे बदन पर चर्बी का लेप चढ़े जा रहा था. पत्नी नाराज़ हों उठी थी, ऐसे डील-डौलपन से. लोगों के मिश्रित भाव से तंग आ कर एक दिन मेरे आईने ने भी कह ही दिया बहुत हुआ अब और नहीं फूलो वर्ना मुझमें भी नहीं समा पावोगे. चलता तों लगता शरीर में स्प्रिंग लगे हैं. पेट में पड़े मिठाई हिल हिल कर मजे लेते. यूं कहिय्र तोंद निकाल आया था और चलता तों स्प्रिंग से हिलते. बड़ा गन्दा सा अनुभव होने लगा. मन में भाव आते ही   क्या था कूद गया मैदान पर. सुबह कि शुरुआट फलों से और दिन भर गिन कर खाना. मौका मिलते ही सिर्फ पानी और जूस पीना. वजन घटने लगा था. आईना खुश थी तों मैं भी खुश होता गया. बड़ी उटपटांग से क्रिया होने लगे. अच्छा खासा वजन गिरने लगा.
कुछ महिनों बाद फिर से छरहरा सा हों गया, पर आदतें हमने नहीं बदली. कलकत्ता कि गर्मियों में पसीने बहुत आते थे. एक पल आया कि बस चलता तों पसीना आना शुरू हों जाता. अचानक एक दिन ख्याल आया कि मैं जितना पानी पीता हूँ उतना या तों पसीने से निकाल आता हूँ या मूत्रालय तक कि दौड में. उन दिनों मूत्रालय तक कि दौड बढ़ने लगी. हाल ये हुआ कि पानी पीता या मिट्ठे- खट्टे जूस पीता, पन्द्रह मिनट में दौड पड़ता निकालने के लिए. मूत्रालय तक कि दौड इतनी बढ़ गयी कि राह चलना भी दुभर होने लगा. पहुचने में देर क्या होती शरीर कांपने लगता. देर सबेर पतलून पर छींटे दिखने लगे. पानी नहीं पीता तों प्यास से हालत खराब. शर्मा कर किसी से पूछता भी नहीं. दोस्तों से बातें कि तों कहा ये सब डाईट का कमाल है. चलो पानी ही तों पीना है पानी पी लो नहीं तों कोक पीलो, कुछ ना दिखे तों जूस पी लों. अच्छा है इसी बहाने शरीर कि गंद निकाल आएगी और भूख कम लगेगी तों चरबी का भी स्वाहा हों जायेगा. जो हों रहा है होने दो. उस वक्त लगा कि सब सही ही कह रहे हैं. हमने तरल पदार्थों से दोस्ती ही कर ली. देखते-देखते एक ही महीने में चमत्कार सा दिखा- पतलून इतने ढीले हों गए की बेल्ट से बांधता  तों स्कर्ट की याद दिलाती, चेहरे मोडेल से सटीक दिखने लगे, आंखें धंस आई थी, बाल उड़ने लगे. लोगों ने कहा बहुत ज्यादा डाईटिंग का कमाल है. चिंता छोडो मस्त रहो. कभी कभी सोचता शरीर तों बिकुल छननी सी है, कुछ भी खाओ, अपना हिस्सा रख कर बाकी निकाल ही देती है, ददुआ चाचा की छननी याद आती.  
काम के सिलसिले में नए नौकरी पर कलकत्ता से दुबई चला आया. होटल में रुका था कुछ दिनों के लिए. अच्छी कंपनी थी सबकुछ पहुचते ही मिल गया था, लैपटॉप, फोन, इन्सुरेन्स कार्ड. एक शाम हमेशा की तरह सर का दर्द उठा. आम सी बात होगई थी सर दर्द का होना. हफ्ते में दो तीन बार ना होए तों लगता गर्लफ्रेंड कही भाग गयी  हों. आज भी गर्लफ्रेंड आई थी सर पर चढ कर दर्द दे रही थी. दर्द इतना बढ़ गया किदावा का कोई असर ही ना था. ठन्डे पानी और खौलते पानी से सर धोया कोई असर ही ना था. रात कों गर्लफ्रेंड ने जोर लगाया और मुझे लगा कि दर्द से सर फट जाएगा. छाती में दर्द होना शुरू हुआ, लगा की शायद हार्ट-अटेक हों जाएगा.  नयी जगह थी डॉक्टर की भी जानकारी नहीं थी. सो किसी तरह रात काटी. अगले दिन सबेरे सबेरे हॉस्पिटल पहुँच गया मन में ये सोच कर शायद कुछ गडबड है.
हॉस्पिटल के रिसेप्शन पर खानापूरी हुई और इन्सुरेंस कार्ड भी दे डाली.  इन्सुरेंस कार्ड देख कर शायद नर्स की आँखें चमक उठी थी. कुछ ही पल में हमे मेडिकल रूम में दाखिल करवा दिया. नर्स कों देख कर मैं सिहर उठा. इतने भी काले लोग होते हैं पूछ बैठा मैंने खुद से. उनकी गतिविधियों कों देखा कर लगा मैं किसी गेरेज में कार बन कर आया हूँ. मोटे से सुई कों घोंप कर खून निकाला, प्रेसर चेक किया, तारों से भरे ईसीजी के जाल बिछाए गए, बगल के कमरे में ले जा कर एक्स-रे लिया. कार के मेकानिक यानी की डाक्टर साब से तों अब तक मुलाकात ही नहीं हुई थी. मन ही मन सोच भी रहा था भांड में जाए कौन सा हमे पैसा देना है. इन्सुरेंस वाले बिल भरेंगे. घंटे भर के जद्दो-जहद के बाद मेकनिक यानी डाक्टर साब दिखे..कहे कुछ नहीं हुआ है ...बस सर दर्द के दावा दे रहे हैं खा लेना. और फिर कुछ होए तों वापस आ जाना. हम उठाने लगे थे की मन में आया पैसा दिए हैं थोड़े मूत्रालय तक के दौड की बात कर ही ली जाए. हमने एक ही साँस में सर झुका कर बयां कर दिया. की का हाल है हमरा. डाक्टर साब मुस्कुरा कर नर्स कों कहा अरे इनका मिठास भी देख लो.. सुई निकाला और फिर खोंब दिया. मोती सा एक दाना उंगलीपर आ गया. मशीन से रिजल्ट आया तों दिल बैठ गया. अरे भई इतने नंबर तों हमारे स्कूल में भी कभी नहीं आये थे. ११० के मार्फ़त हमारा सुगर ४५० आया था. एक दो और टेस्ट लिए और डाक्टर बाबु ने फरमान सुना दिया “ इतने जो वजन गिरे हैं, पतलून में जो फ्रिल आये हैं, सर के बाल उड़े हैं, जिन बातों पर आपको गर्व हों रहा था, दरअसल से आपको डाईबेटिकस हों गयी है. यूं ही कुछ दिन और छोड़ देते तों आप बहुत ज्यादा हलके हों जाते. आप या तों कोमा में होते या फूल-स्टॉप हों गए होते. आपको डाईबेटिकस है और ये सब उसके होने के निशान. बहुत मिठाई खा लिए बहुत मस्ती कर ली, अब सबेरे सबेरे उठिए वर्जिस कीजिये, दावा लीजिए और मिठाई से या मिठास से दूर ही रहिये.”
उस दिन से आज तक वर्जिस, कम खाना, अच्छा खाना, और नियम से रहने की आदत हों गयी है.
ये वाकया जब भी याद आता दिल कहता “कुछ भी हों, छोटी सी छोटी हरकत भी गर शरीर करे उन्हें यूं ही छोड़ नहीं देना चाहिए, उनके बारे में बात उन्ही से करनी चाहिए जिनको पूर्ण ज्ञान हों. डाक्टर से बातें करनी चाहिए बे-झिझक बिना किसी शरमाहट के. आज यही करता हूँ वर्ना छननी समझ कर उन दिनों मैं शरबत, कोल्ड ड्रिंक पीता रहता और डाईबेटिकस से ग्रसित शरीर कों रोज मिठाई से लादता रहता. क्या पता आज ये पोस्ट लिख भी पाता? शरीर हाल-ए-बयां करती है बस समझने की देरी है.”

अब निकलता हूँ मैं ....चाय खत्म हों गयी थी... ददुआ चाचा फिर से एक खेप बना कर छान रहे थे.. अंगरेजी में कहते हैं ना कि “  Moral of the Story is “Body gives You the Right Signal, Don’t Ignore It”


Written for Indiblogger contest : http://bit.ly/K6TIoa     The Moral of The Story Is...!

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