Apr 19, 2012

फटफटिया

रास्ते से उठते शोर सुना तों बस यूं लगा कि ना लिख पाने कि शून्यता अचानक ही समाप्त हों गयी, उंगलियों की हरकते प्रारंभ हों गयी. हाँ भई कुछ मिला था चौपाल पर, जो यादों के झुरमुटों से निकल कर शब्दों में ढल पन्नों में उतर जाने कों व्याकुल थी. गर्मियों की छुट्टियों में आसाम के जंगल और वादियों से निकल हम सपरिवार, अपने गाँव चले आते थे. मेरे बाबा कों जितना शुकुन वहाँ मिलता अपनों के बीच, हमे उतना ही आनंद. एक तों पढाई से छुट्टी, ऊपर से शैतानों के मंडली में शहरी बन कर शेख बधारने का गुरूर. दालान पर छुप कर सारी शैतानियों कों सजाने का  आनंद और ऊपर से निक्कर पहन कर जेठ दुपहरिया में नंगे-बदन बदमाशी की आजादी. शहर में रह ऐसा रूप कहाँ धर पाते. बाबा जितने सख्थ थे, गाँव पहुँच कर उतने ही नम्र हों जाते. सो आनंद ही आनंद मिलता गाँव जा कर. गाँव के चौपाल पर जमींदार दद्दू के बेटे लोहवा जमींदार चाचा का आना जाना हम बच्चों कों बहुत आनंद देता. लोहवा चाचा कों गाँव के सबलोग बहुत पसंद करते. छह फुट से ऊपर ही होंगे शायद, गोरा रंग, डील-डौल बदन, पहलवानी का शौक जो था. उस ज़माने में चाचा कलफ में मंझे सफ़ेद कुर्ते और पेंट पहन, बड़े आकर्षक दिखते. लंबे घुंघराले बाल और कड़क मुछ, देखते ही सब पर छा जाते. पर हमे उनके व्यक्तित्व से ज्यादा पसंद उनके बुलेट मोटर साईकिल प्रभावित करती. जितना रुबाब उनके व्यक्तित्व का था उतना ही मोटर साईकिल का. निकलते चलाते हुए तो ,मोटर साईकिल की फट-फट की आवाज़ से गाँव गूंज उठता. अब पुरे गाँव में एक ही तों मोटर साईकिल थी. उन दिनों बुलेट खरीद पाना संपन्न परिवार ही कर पाते.  बुलेट के आवाज़ भी बड़ी करारी थी.  जहाँ लोगों ने फट- फट की आवाज़ सुनी, मुंह से निकल पड़ती.. “फटफटिया जी कहाँ चल दिए सबेरे सबेरे?”  गाँव वाले नाम ही बदल डाले थे लोहवा चाचा का. अब अंगरेजी में बुलेट या मोटर साईकिल कहाँ कोंई कह पाता. काम रोक कर एक पल उन्हें देख ही लेते और ठंडी आह भी ले लेते.. आखिर हर किसी का एक सपना तों होता ही हैं ना. हमे क्या, हमे तों लोहवा चाचा के आने का इन्तेज़ार रहता. दिखे नहीं कि उनके पीछे सारा मंडली दौड पड़ती सब खेल छोड़-छाड कर. एक साथ चिल्लाना शरू “फटफटिया चाचा आ गये, फटफटिया चाचा आ गये”. खाली पैर उनके पीछे दौडना, पत्थर हों या ईट. क्या फर्क पड़ता है? चाचा जो आये हैं. बड़ा स्नेह रखते थे चाचा बच्चों से. दो-दो तीन-तीन शैतानों कों एक साथ फटफटिया में पीछे बिठाते, एक आगे पेट्रोल टंकी पर, बस लाद लेते और हर बच्चे कों थोड़े थोड़े देर घुमा लाते. हम तों हम थे, थोड़े शर्माते, थोड़े शहरी तहजीब दिखाते, हम अलग ही रह जाते. चाचा अलग से हमे ले जाते. अलग भाव भी था हमारा.. आखिर बीएससी का बेटा जो था. हाँ भई, बीएससी का बेटा. मेरे बाबा गाँव के पहले थे जिन्होंने मेट्रिक से बीएससी तक सफर पहली बार पार किया था पुरे गाँव में. तों एक इज्जत थी उनकी पढ़े लिखे होने का और बीएसी कह्लाने में रुतबा अलग से था. लोहवा चाचा हमे अकेले ले जाते, जाते वक्त माँ कों आवाज़ लगा जाते, “भौजी, शहरिया के तनी गाँव देखा लावत हईं”. फिर क्या था अपनी ऐश चालू...

अब गाँव में पक्की सड़क तों थी नहीं. कभी कच्ची सड़क पर और कभी पगडंडियों से होते हुए चाचा हमे बुलेट के पेट्रोल टंकी पर बिठाए ले जाते खेतों के तरफ. खेत पर आते और शरारत भरे नज़रों से फटफटिया रोकते और हसने लगते. हमे समझ आ जाता कि अब क्या करना है.. बस मस्ती का टाइम हों गया है. पेट्रोल के टंकी से उतर पीछे सीट पर जल्दी से खड़े हों जाता. फटफटिया चाचा गमछा निकाल कर हमे खुद से बाँध लेते और हम निकल पड़ते खेतों में. निक्कर पहने, नंग-धडंग बदन, अपने आप कों चाचा से टिकाये, दोनों हाथों कों फैलाये, गन्नों के खेतों से हमारी सवारी निकलती. ऐसा आनंद का अनुभव चाचा ने ही करवाया.. ऐसा लगता खेत खलिहान नन्हे पैरों तले सरक रहे हों, गन्ने के पत्ते लू कि हवाओं में आनंद विभोर हों हम संग गीत गा रही हों.. फटफटिया की आवाज़, गन्नों के पत्तों के लय पे ताल देते. समा बंध जाता. कई बार गन्ने के पत्तों से हमारे शरीर पर खरोंच आ जाती तों अगले दिन नहाते वक्त माँ की डाट भी सुननी पड़ती. कुछ दूर पर उनका अपना खेत था जिन पर मजदुर लोग काम करते थे. तों चाचा आवाज़ भी दे देते..”का रे टिन-चश्मा, आजो फांकी??” (मजदूर चाचा चश्मा पहनते थे जिसमे एक ग्लास थी और एक टूट गयी थी जिन्हें कागज  लगा कर रखते, इसिलए उन्हें टीन चश्मा कहते, और उन्हे चाचा हमेशा फांकी बाज कहते). हवाओं के झोंके में, खेतों की पगडंडिया फांद-फांद कर फटफटिया से जाना, ऐसा लगता जैसे कभी घुड़सवारी कर रहे हैं, तों कभी उड़ रहे हैं. आखरी पडाव मचान पर होता, जहाँ पास ही के खेत में हिरनी चाची, अपने बाबूजी के लिए खाना ले कर आती. हिरनी चाची देखने में सुन्दर थी और शायद लोहवा चाचा उन्हें पसंद करते. बाबु जी से छुप छुपा के चाची खाना ले कर आती, और दोनों संग थोडा थोडा खाते. हमारे लिए चाची अलग से मीठा ले आती. हम मचान में बैठ कर मीठा खाते. चाचा उन्हें देखते ही गाने लगते..
छ्वरी पतरकी रे
मारे गुलेलवा
जीयरा उडी-उडी जाए 
    
खाने के बाद चाचा और चाची खेतों में चले जाते गपियाने (अब समझ आता की क्यूँ?) और हम धमाल-मस्ती से थक सो जाते. चाचा-चाची हमे बीच में बिठा फटफटिया से खेत के अंतिम छोर तक आते. चाची के नर्म गोद में हम सोये रहते. हिरनी चाची कों खेत के अंत तक ही छोड़ते, उसके बाद दोनों अलग-अलग गाँव चले जाते. व्याहे नहीं थे और गाँव के लोगों से छुप कर मिलते थे जो बाद में समझ आया था हमे.

सात बरस का हूँगा जब एक और गर्मी की छुट्टियों में हम गाँव आये थे. बाबा ने आसाम में हमे रामायण की सिनेमा दिखाई थी. बड़े प्रभावित हुए थे हम, राम जी से और सिनेमा से. अब क्या था हमेशा राम सजने का भुत छाया रहता और तीर-धनुष चलाने का. आज की तरह तों सब कुछ रेडीमेड नही मिलती, तों बांस की कमान और रस्सी से तीर-धनुष खुद ही बनाते. तीर के रखने का तरकश भी बनता- पोंड्स पावडर के डब्बे कों काट कर. उसे बाँध लिया जाता पीठ पर और तीर भी रख लिए जाते. राम बन कर निक्कर पहन गर्मी में सुबह से शाम हम गाँव घूमते रहते. फटफटिया चाचा देखे हमे तों बहुत हँसे. चौपाल पर जितने काका-काकी चाचा-चाची जो भी देखते, हंसी नहीं रोक पाते, और हम राम-सा गर्व महसूस करते. हमें देख फटफटिया चाचा कहे “चल शहरिया राम जी, आज तोहरा फटफटिया रथ पे ले गाँव घुमा दी.” और क्या था, हम खड़े हों गए नीले निक्कर पहन कर नंग-धडंग, तीर-धनुष और तरकश थामे. बच्चों का तों आज नया खेल भी था. लंबे से रस्सी में ढेर सारे टीन के डब्बों कों बंद रखा था. गाय के पूंछ में लगने वाला टिन का ये रस्सा चाचा के फटफटिया में बाँध दी गयी. राम जी की सवारी निकल पड़ी. फट-फट फट-फट, धींग-ढांग आवाज़ से गाँव मोहल्ला गमगीन हों गया. किसी ने प्लास्टिक के बाल्टी की ढोल भी बना ली थी और बनाये जा रहा था. राम जी की जय का नारा भी लगता. चाचा के फटफटिया पर खड़ा मैं राम और मेरे पीछे बानर सेना के रूप में गाँव के बच्चे. जो देखा वही हंसा और तालिया बजायी. सिनेमा के एक सीन में राम सीता के वियोग में क्रंदन करते और एक बांह ऊपर कर चिल्लाते “सीते हे सीते..कहाँ है आप सीते?” ना जाने कैसे वही दिमाग में आया फटफटिया पर चढ़े-चढ़े. एक हाथ से धनुष संभाले चाचा के कंधा कों पकडे और दूसरे हाथ कों हवा में ऊपर कर हम भी चिल्लाने लगे “छीतें, छीतें कहाँ हैं छीतें....” बहुत समा जमा. गाँव में घूमने लगी राम और राम की फटफटिया रथ की सवारी...बहुत दिनों तक राम जी की सवारी की चर्चा रही और हम “शहरिया राम जी” कहलाने लगे.  

भुलाये नहीं भूलते ये दिन.. ना जाने कब, उस दिन हमारे परिवार के लोगों ने भी देख लिया था, आज भी दीदी जब भी मिलती है, हाथ हवा में उठा कर हमे “छीतें, छीतें कहाँ हैं छीतें....” की आवाज़ से चिढाती है. चेहरे पर मेरी मुस्कान आज भी राम जैसे ही आती हैं. पर अब सब  कुछ बदल गया है.  अब गाँव में पक्के रोड हैं, कई मोटर बाईक है, पर सड़कों पर राम सजते बच्चे और बाईक के पीछे बच्चे भागते बच्चे, कुछ अब पढाई के बस्तों में बध गए हैं और कुछ  टीवी के रामायण और एकता कपूर के सिरियलों से बंधे पड़े हैं. लोहवा चाचा ने हिरनी चाची से व्याह कर ली थी. पांच बच्चे हुए उनके. पर अब चाचा गाँव में बूढ़े अकेले पड़े हैं, चाची स्वर्ग-सिधार गयी और बच्चे विदेश. बच्चों से स्नेह रखने वाले चाचा के पास अब कोई नहीं है ...बस है तों आज भी वो फटफटिया..आँगन के एक कोने में धुल फांकती.. ओंधी सी पड़ी रहती है... शायद हिरनी चाची की यादें और तेज फट फट की आवाज़,  बाईक पर पड़ी धुल के सामान चाचा के संग हों...

हमारी जिंदगी भी बदल गयी, चाचा के फटफटिया से ऐसा प्रेम हुआ, बाबुजी ने कॉलेज जाने के लिए बाईक दिलाई. लोहवा चाचा का अनुकरण कर खूब बाईक दौडाई. जिंदगी के दौड भाग में अब हम बाईक से कार पर आ गए. देश छोड़ विदेश आ गए.. आज भी फटफटिया चाचा की सवारी का अनुकरण नहीं कर पाए.. बस अब एक ही सपना है, एक बार अपने फटफटिया में तेल भरवाए, धनुष सा कैमरा लटकाए, तरकश की झोली में कुछ सामान ढाले, लेविस के जींस पहने, ना कोई मोबाईल, ना कोई फोन निकल पड़े खेतों खलिहानों से होते, दरिया कों छूते, पहाडों के टेढ़े मेढे रास्तों में फट-फट की ढोल बजाते, किसी छोटी पर पहुँच वैसा ही महसूस करना चाहता हूँ जैसे फटफटिया चाचा के पीठ पर खड़े उड़ पाने का एहसास  ले पाता था.. फटफटिया चाचा के जगह ZIN कों साथ ले जिंदगी जीने कों निकल पडू. ना कोई बंधन ना कोई हार ना कोई जीत बस “एक जिंदगी-स्वछन्द जिंदगी.”

एक बार फिर शोर आ रही है पास के सड़क पर, Harley Davidson और  Enfield  के बाईक सवारों का कारवां बीच-बीच में दुबई के सड़कों पर निकलता है. और जब भी इनकी आवाज़ सुनता हूँ लोहवा चाचा के फटफटिया की याद आती हैं... अधूरा पड़ा सपना और दृढ़ होने लगता है.... निकलता हूँ यादों के इस कारवा से यथार्थ की ओर....

१९/४/१२

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8 comments:

  1. आशु, यार आपके हिंदी लेख पढ़ अलग ही ख़ुशी होती..."छीतें, छीतें कहाँ हैं छीतें....” और 'जीयरा उडी-उडी जाए' का अपना ही रस है.. :)
    एक बुल्लेट से पुरे गाँव का खांचा खिंच देना एक अद्भुत कला है...

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    1. पुनीत शुक्रिया... अब बात जब गाँव-जंवार की हों तों रस तों रहेगी ही ना...नन्हे मन में गाँव एक कुछ पल इतने छाप छोड़ गए इनका हमे इल्म ही ना था..शब्दों में ढालने की हर कोशिश रस से रसित हों जाती है...
      शुक्रिया पसंद करने के लिए.

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  2. आपके हिंदी ब्लॉग में वह बात लगती है जो प्रेम चाँद के कहानियों में हुआ करती है ! अतिउत्तम के अलावा कोई शब्द नहीं है मेरे पास ! देश से दूर पर देश में रहने का अच्चा उधाहरण है आप...

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    1. जनक जी.आप दूसरे व्यक्ति हुए जिन्होंने प्रेमचंद के छाप अदना से इस जान के कुछ शब्दों में पाया... मन गदगद हों उठता है सुन कर... गुस्ताखी माफ पर कहाँ वो महा लेखक और कहाँ मेरे कुछ शब्द.... उनकी लेखनी की प्रतिबिम्ब तक आंक पाना मुश्किल ही है...
      हौसला अफजाई के लिए बहुत शुक्रिया..अब कितना भी हम विदेश में रहे..धन के लोभ में ...अंतर्मन तों आज भी गाँव की तरफ ही झुका है...
      शुक्रिया....

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  3. A very explicit post,the whole scene came alive before my eyes.

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    1. शुक्रिया इंदु जी... you stopped to comment itself is an indication that my words did its work of portraying the picture i had in my mind.. thanks for liking my post...

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  4. बहुत रोचक लेख लिखा है। बहुत खूब!

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  5. शुक्रिया अनूप जी...

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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
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