Aug 5, 2011

निर्दयी निर्मोही मौत

एक कविता पढ़ी थी फेसबुक पे अंशु त्रिपाठी के लिखे हुए एक खूबसूरत रचन...कुछ शब्दों से हमारे प्रतिकिर्या:

ऐ मौत!
तू छीन लेती है मुझसे
मेरे प्रियजनों को,मेरे अपनों को
शायद
तुझमें दिल नहीं है
तभी तो दिल के टूटने का दर्द
होता नहीं महसूस तुझे
अपनों से बिछुड़ने का
अकेलेपन का
तुझे अहसास नहीं होता??पर मैं तो हूँ मानव
और
ये हिम्मत है मुझमें
क़ि
टूटने और बिखरने के बावजूद
फिर उठूँ
और
समेटूं अपने आप को
और देखूं भविष्य की ओर
उनकी यादों को सीने से लगाए हुए
जो फिर लौट कर नहीं आ सकते.
अंशु.
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...कुछ शब्दों से हमारे प्रतिकिर्या.
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मौत ने जब सुनी होंगी
कटाक्ष अंशु शब्दों को
कराह वो आज उठी होंगी
निर्दयी निर्मोही क्रूर
शब्दों से त्राह उठी होंगी..

कहाँ छिनती है हमारी ये बाहें
जिंदगी से खेलते लोगों को?
शाख पर जीवन रस से
सूख चुके पर्णों का ही तों
आलिंगन वो करती हैं

एवज में उन्हें
सहेज कर,
सजा कर
समेट कर
आत्मा को
नव काये  में ढाल  कर
नव जीवन का निर्माण करती हैं...

एक पल ठहर के तों देख
ये निर्दयी निर्मोही मौत
क्या क्या कर जाती हैं ?
 

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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
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