डूबी है कश्ती कहीं तों
क्यूँ पूछते मल्हार से
दृढ़ कितने बाजुएं थी?
जोर कितने खेंप में,
दृष्टि कितने पाक थी
और मंजिलें क्या साफ़ थी?
डूबी है कश्ती कहीं तों
डूबा तों मल्हार भी
पाक उसके ख्वाब थे
और नेक उसकी चाह भी
टूटी है कश्ती जहाँ पर
बिखरे वहीँ ख्वाब भी
डूबी है कश्ती कहीं तों
बिखरा है मल्हार भी
मिथ्या थे ना भाव उसके
और ना ही था भ्रमित
बिखरी है कश्ती गर तों
फंसा भंवर में खुद भी
ना तोड़ पाया भंवर वो
लड़ ना पाया लहरों को
डूबी है कश्ती जहाँ पे
छूटी उसकी खेप भी
लुटी उसकी चाहतें और
लुटे उसके ख्वाब भी
बटोर गर पाया भंवर से
बटोर पाया ख्वाब को
संजोया है आज भी वो
चाहत उसके साथ की.
जानता है आज जब कि
पूछता वो ख्वाब ही
सांच क्या धेयय थे उसके ?
और थे सांच क्या प्रेम भी ?
है घमंड मन में बसाये
है डटा वो आज भी
प्रेम से दिल में बसी जो
सजदे में है सजी वो
वो कभी तों साथ होगी.
पूर्ण उसकी चाह होगी...
ना हुआ गर पूर्ण तों क्या
बसी वो दिल में, आज भी
दिल में ही सजदे सजेंगे
मन ही मन में प्रेम भी ..
डूबी है कश्ती कहीं तों
पूछते क्यूँ मल्हार से
दृढ़ कितने बाजुएं थी?
जोर कितने खेंप में ?
१४/२/१२
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.