दोस्त क्यूँ बनी तुम ?
काश की ....
तुम मेरी दोस्त न होती
कितना अच्छा होता...
सोचता हूँ पूछता हूँ
दिल से अपने कि
हैं न ये सच्चाई ?
जब से तुम आई हों,
हैं और भी कई,
पर दिल तुम्हे ही ढूँढता है
जब से आई हो
रातें जगाती हो
फिर भी हर बार
रातें इतनी छोटी कैसे
कर जाती हो?
आई हो अब से
रातों को मैं जगता हूँ
ऑफिस जा कर फिर
जम के सोता हूँ.
बबून सा मोटा, मेरा बॉस
हर बार यही कहता है
बिन शादी के कौन तुम्हे
रात भर जगाता है ?
मच्छर भी नहीं की
कह दो बबून को
तुम सा मोटा मच्छर ने
घर पे रात भर सताया है...
नींद तो मैंने
जाग जाग कर कटाया है
फिर भी मैं उस
मोटे बबून को
बहाने बनता हूँ
सर मैं चढ़ी
तुमसा नशा को
हेन्गोवर बताता हूँ ..
क्या करू मैं कि
रात भर जो तुम जगाती हो
हर रोज़ बहाना
एक नया ढूंढवाती हो
सोचता हूँ अच्छा होता
तुमसा कोई दोस्त न होता
राज़ को राज़ तो रख पता.
पहले तो हर राज़ को
दिल मैं ही दफनाता था
पता नहीं तुम
कैसे घूस आई हो दिल मैं
की हर राज़ को
तुम वहीँ मिल जाती हो
काश की तुम दोस्त न होते
अपने राज़ को कहीं न कहीं
हम दफना तो पाते
दुखते थे वे राज़
दिल में कहीं..
गुबार बन जाते थे
अब अपने राज़ को
लुटा कर तुम से
हल्का महसूश कर जाता हूँ
दबी सारी राज दिल से उडा जाता हूँ
जब से बनी हो तुम दोस्त
परेशां यूँ कर रखा है
छुपे ही हमारे सारे दर्द को
लिखने को मजबूर कर डाला है
जो एक ख़त न लिख पाता था
अपने कई कई शब्दों मैं
सबकुछ कह जाता है
कैसी हो तुम जो
सब कुछ लूट कर ले जाती हो
जो न कर पता था कभी
आज मैं सब कर पता हूँ
अजीब हो तुम मेरे दोस्त
तुम न थी
शामें यूँ ही कट जाती थी
जब से बनी हो दोस्त
न रहो तो लम्बी होती
हैं रातें
और रहो तो छोटे से वे दिन
बदल गयी है अपनी रातें
बदल गयी हैं अपनी हर बात
बैठा हो खुदा कहीं
धागे मैं हमे पिरोये...
कहूँगा उनसे लपेट दो कहीं
हमारी दोस्ती की डोरी
ऐसी की नचाये यदि जोर से भी
उलझे रहे हमारी दोस्ती की डोरी
एक दुसरे से
टूटे न अपनी कभी भी यह डोरी
"अमिन, अमिन, अमिन"
अमिन कह कर अभी अभी
तुम मुस्कुरायी होऊ
कैसी हो दोस्त....
होठों से यह क्यूँ कह जाती हों
तभी तो खुदा यूँ मान जाते हैं
वाह.
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