कहते हैं ना , हैं हम भारतीय दुनिया के लोगों से बिलकुल ही अलग होते हैं. तेज भागती, सरपट चलती रेलगाडी पर सफर करने का लुत्फ़, हम नहीं उठा पाते. जब तक रेलवे के डब्बे में हमे अपने ही आरक्षित सीट पर कोई और आ कर हमे थोडा सरका कर, खुद आ कर बैठ ना जाए, चने वाले के गरमा गरम कुरमुरी हम खा ना ले, ग्लास से भरी गरमा गरम चाय ना पीले, सफर का लुत्फ़ नहीं आता. खिडकी से रास्ते, पगडंडियों, लेम्प पोस्ट, पहाड कों जब तक भागते हुए देख ना ले, सफर जैसे पूरा ही ना हुआ हों. सरपट भागती इस जिंदगी की सफर में हम भी बहुत कुछ तेज रफ़्तार से पीछे छोड़ आये हैं.
याद है, बचपन की ड्राइंग की वो कॉपी, जिनमे हम बनाते थे, छोटे छोटे तिकोनों सी पहाड़, उनके बीच से निकलती नीले रंग की नदी, एक पेड़, एक लाल रंग की सूरज, एक बादल, दो चिड़िये. सब कुछ बस ड्राइंग क्लास में बनते और फिर मार्क्स से उनकी ग्रेडिंग होती और सब कुछ भूल जाते. अब हमे भी कोई एम् एफ हुसैन तों बनना नही था कि अपने ड्राइंग पर ध्यान देते और कोरे उन कागजों कों रंगीन बनाते. अरे भई, माँ बाप के सपने भी कुछ होते हैं, हमें तों इंजिनियर बनना था या डॉक्टर. फैसला तों इनक्यूबेटर के रुई के पालने में ही हमे सुना दिया गया था. इसीलिए कभी अपने रेलगाडी कों खुद ही वेकूम मार कर रोक कर, सोचा नहीं, ड्राईंग कॉपी के तिकोने पहाड़ कों कहीं मैं पसंद पसंद करता हूँ ..या नीले रंग के उस नदी में ड्राइंग की किताब कों ही खुद ही बहा डालू. ना पहाड बने और ना ही कॉपी नदी में बही, बस बंद हों किताबों के ढेर में खो गए. खैर, जिंदगी की रेलगाडी भाग रही थी और हम उस पर सवार. कहाँ से आज कहाँ हम पहुँच गये. अब, जब रफ़्तार कम हुई है, पीछे मुड कर देखा तों कई अधूरे इच्छायें छूट गए थे, अब वो दिख रहे थे. खिडकी से कुछ और सर बाहर निकाल कर पीछे इच्छाओं कों देखा. कोंई पीछे छूटे बिजली के खम्बे से चिपके पड़े थे, तों कुछ खेतों में मस्ती कर रहे थे. एक दो थे, जो हांथों में हाथ डाल पगडंडियों पर टहल रहे थे. हाँ, पर हम से वे पीछे छूट ही गए थे...इन्ही पीछे छूटे इच्छाओं में से एक था पेंसिल से लकीरों के साथ खेल पाना. ड्राईंग की कॉपी अब रंगीन होना चाहती थी. दूसरी इच्छा थी शब्दों से खेल पाने की जो अकेले किसी पेड़ के नीचे आज तक सुस्ता रहा था.
आज रमजान के महीने की शुरुआत, ४८ डिग्री की गर्मी, एक भी फिल्म का दुबई में रिलीज ना होना, शायद एक माहौल सा बन गया था घर पर ही पड़े रहने की. करने कों कोई काम सूझ ना रहा था. पीछे छूटी इच्छाओं कों खींच कर लाया और उसे आज खेल गया. पेंसिल की लकीरों कों कोरे कागज पर खेल गया. हमने पहली बार कुछ बनाने की कोशिश कर ही डाली. पेश है ये लकीरें...
क्या कहते हैं आप, क्या लकीरें ढल पायी है?
एक और कोशिश है यहाँ. हाल ही में हमारी मुलाकात जापान के हाईकू पद्धति से हुई. कविता लिखने की इस शैली हमे बहुत भा गयी. कभी पढ़ा नहीं था कोई भी कविता इस शैली में पसंद इतनी आई कि हम भी कोशिश कर गए. दो कोशीशें है शब्दों कों हाईकू में ढलने की. बताईयेगा सफल हुई या नहीं ये प्रयास.
अंगार......
जली अंगार
आस में प्रेम की
दहके मन
बदरी ........
कारी बदरी
बहे मनोवेग में
खुले जुल्फे
hi ashu!
ReplyDeletehamein aapka sab kuchh pasand aayaa:)
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