Sep 15, 2012

सर्फिया ताई

जुबां से निकली बातें कब कहानियों में और कहानियाँ कब गाथायें बन जाती हैं पता ही नहीं चलता. ऐसे ही कुछ घटनायें गाँव के बच्चे बच्चे के दिमाग में छा गयी. आप भी कहाँ भूल पाए होंगे गणेश जी के मूर्तियों का दूध पीना. एक माहौल बन गया था उस दिन याद तों होगा ही आपको भी. आपने भी कई बोतल दूध के पिला गए होंगे पत्थर के मूर्तियों में. हमारे गाँव में कभी-कभी कई अजीब-अजीब दास्तान जन्म लेते हैं. याद आ रहा है ऐसा ही दिन. अब आपको इसके प्रमुख किरदार से मुलाकात ना करवाऊं, तों कैसे समझ पायेंगे. तों चलिए, मुलाकात कर ही लीजिए. अब लिखने बैठा हूँ तों पूरी बात बतानी तों पड़ेगी ही ना.

गाँव के अंतिम छोर पे, वो जो नहरिया बहती है ना, उस से एक आध किलोमीटर और आगे, हाँ जहाँ बड़े बड़े चार पीपल के पेड़ हैं.  ये पेड़ इतने घने और भयावह नहीं हुआ करते थे. वहीँ पास में पत्थरों के बने गुफा नुमा झोपड़ी बरसों से वीरान थी जो भूतिया गुफा के नाम से आज प्रचलित है. यहीं ईंट से बनी एक मकान हुआ करती थी जहाँ हमारी किरदार रहा करती थी. घने सफ़ेद बालों में बड़ी ही आकर्षक बुढिया ताई रहा करती थी. छुटकपन में हम भी उनके यहाँ आया जाया करते थे. बड़ी स्नेहशील और हंसमुख थी. बच्चों के लिए तो कभी ऐसा दिन नहीं होता की खाने के लिए हलवा, गुड या कोई मिठाई नहीं मिलती. बुढिया ताई का नाम क्या था ये तो हमे क्या गाँव वालों कों भी शायद याद नहीं था. धोबन थी, गाँव जंवार के लोगों के कपडे धो कर अकेलेपन कों कटती और कुछ कमा कर गुजर बसर करती. एक हादसे में पति और बेटे के मौत से कई बरसों तक दुःख में खोयी रही. खुद कों संभाला तो पड़ोस के लोगों ने अपने कपडे धोने का काम देने लगे. गुजर बसर चल पड़ा. इन्ही दौरान ताई ने सर्फ़का इस्तेमाल शुरू किया. बड़े मन लगा कर कपडे धोती. धीरे-धीरे लोग उनके धुलाई के कायल हों गए. माहौल ऐसा बना कि घर बाहर यदि कोई उत्सव होता तो पहले ताई के पास सर्फ़-धुलाईके लिए कपडे भेजे जाते. सर्फ़ की धुलाई और महीन माड की कलफ और ताई के हाथ का इस्त्री. कपडे नया रूप ले लेते. गाँव की विधवा ताई अब सर्फिया-ताईकहलाने लगी.

सर्फिया ताई की उम्र बढ़ते-बढ़ते शुन्य हों गयी, फिर से झोपड और पत्थरों से बनी उनकी गुफानुमा धोबी घाट फिर वीरान हों गयी. लोगों ने शोक मनाया और धीरे धीरे लोग भुलाने लगे थे. सर्फिया-ताईकों शायद ये मंज़ूर ना था.

सर्फिया ताईके दसवीं बरसी पे, एक बुढिया आ बैठी उनके भूतिया झोपड पे. बरसात का मौसम था, बच्चों की एक टोली, जो पास के मैदान में फ़ुटबाल खेल कर आ रहे थे, बुढिया कों देखा तो ठिठक गए. उन्हें देखते ही बुढिया बोली, “खूब खेले हों बरसात में तुम सब, निक्कर बनियान तो देखो. और कीचड़ नहीं था का मैदान में? आज तो निक्कर की धुलाई के संग तुम्हरी भी धुलाई धोएगी अम्मा तुम सब की. आह रे का किये हों तुम सब.मासूम सा चेहरा बना कर एक बच्चा बोला, “का करे आजी, गेंदवा खेल रहे की बरसात आये गयी, सो भींग गए.एक नटखट बोल उठा, “अरे आजी तनी कीचड़ में खेल कर तो देखो, जो मजा आवत है फिसलन में कि अम्मा का डाट के कौन सोचत हैतीसरे से रहा नहीं गया तो बोला अरे अजिया, देख ना ई बदमस्वा हमार निक्कर उतार कर खूब कीचड़ में सान दिया..अब बच्चे तो बच्चे हैं हर कोई कुछ ना कुछ बोलते रहे. बुढिया बोली अब सोच लो माँई के धुलाई ना तो एक उपाय है हमरे पास इस से बचे खातिर” “ ऊऊ का आजी, बोलs ना, ना तो माईं से पहले तो बाऊ जी धोहिये हमराएक बच्चा बोल उठा. बुढिया बोली हमरा के जदी खूब बढ़िया छंद कविता सुनईब तब हम कुछ उपाय करब”.  मार के डर से बचने के लिए सब सोचने लगे. फिर हल्कू चाचा का बेटा तेजू बड़ा तेज था उसे आगे किया गया. उसने याद किया और बोला अजिया रे सच्चे से, उपाय बतावोगी ना? तो सुनो”.

ओका बोका तीन त लोटा
हरिया चंदवा मुश्हरवा के बेटा

निक्कर छोड़, फेंक के बस्ता
माई के गाली, बाऊ के लाठी
ले के बाल, फटल जुता
भागल सब मोहल्ला के चूंटा

बुनी पानी कीचड़ कादा
छप-छप पच-पच कीचड़ कादा
खूब खेले मोहल्ले का बेटा
हरिया चंदवा मुश्हरवा के बेटा

हर-हर धर-धर पकड़-पकड़
गेंद मार-मार के पकड़-पकड़
हार जीत के कहाँ सोचला
खेल खेल में खेले कादा

ओका बोका तीन त लोटा
हरिया चंदवा मुश्हरवा के बेटा


सुन कर बुढिया बहुत हंसी, हँसते हँसते बोली सब खोलो निक्कर गंजी, और गुफा में फेंक दो और जब हम बोले तों ले आना. अब क्या था निक्कर गंजी सब खोल कर फेंक दिए गुफा में. ताई ने जब कहा अब एक जाओ अंदर और सब कपडे ले आओ. अंदर से जब एक ने जा कर कपडे लाये तों सभी के हवा गुल. अरे माई रे ई तों कड़क धुला है, मजा आई गवा रे.सब खुशी खुशी कपडे पहन के छाती फूला कर अपने अपने घर चले गए.रास्ते भर बुढिया ताई के नाम की जयकार करते गए, करते भी क्यूँ ना अम्मा भी इतना साफ़ कपड़ा नहीं धो के देती की सब कुछ नया नया सा लगे.

  एक नारा लगाता ये हों...
  दूसरा पूछता का हों....
  सब लोग झुण्ड के एक साथ आवाज़ देते बुढिया ताई की जय हों...
"  ये हों... का हों ... बुढिया ताई की जय हों ... ये हों... का हों ... बुढिया ताई की जय हों ...  " एक माहौल बना डाला था सबने मिल कर .....जो देखते हँसते बच्चों के इस नए लीला पे...पर किसी ने रोक कर माजरा के बारे में ना पूछा.

बचपन में अजूबा भी कहाँ अजूबा लगता है? सबने अपने घर जा  कर जब कहानी सुनाई तों बड़ों ने तों सर पकड़ लिया.. "अरे पगला सब भुतिया गुफा काहे गए थे". एक दो कों तों जम के मार भी पड़ी. बात गाँव भर फ़ैल गयी. अब विज्ञानं के युग में कुछ वैज्ञानिक मन भी तों होते हैं. मानने कों नहीं तैयार बैठे होते. फिर क्या था एक लाइन सी लग गयी, हर कोई गन्दा से गन्दा कपड़ा लाते और एक छंद बनाते, बुढिया कों पसंद होती तों कपडे गुफा में जाते और धुल कर उन्हें मिल जाता. एक से एक कविता सुनाते.

ददुआ चाचा अपने पीली गंजी धोती ले कर आये थे जो बेटा के व्याह में ससुराल से पीली धोती बन कर आई थी उसकी रंग फींकी पड़ी तों उम्र और धूल की रंग पड़ गयी थी. दो धोती में से एक धोती पहने थे एक साथ लाये थे. कहाँ खरीद पाते थे चाय के दुकान की आमदनी से. सोचा शायद बुढिया कुछ करामात ही कर जाए.

रे बुढिया, तू है ताई
या है हमर माई

लो आई गए हम भी,
सुन तोरा बड़ाई
संगे लाये हैं तोरा मन को,
भाय अईसन चौपाई

बिटवा हमरा जब बियाह करा था
दुल्हिन ने जब मढवा में
पहला पाँव धरा था
बुझ गए थे हम भी तबहू,

अब न लौटेगा हमरा, बिटवा कबहु
बिटवा दान हम उसी दिन कर आये थे
ससुरार मै सातों बचन निभाना
अईसन अशिरवाद हम दे उसे गए थे

विदाई मैं  बुढवा  के बप्पा  (समधी)
हमरे गले लग के,   थोडा ढाढस बंधाया
कहन लगे ... अब रीत बदली है
अब तो लड़की के ससुरार से ही
बिटवा की  डोली निकलत है

ई लो तोहर भेंट बुढऊ,
कुरता कम्बल और कमंडल,
धोती दुगों पकड़ा कर वो
हमरे बुढ़ापे की सारी कमाई
नाक के निचे से उड़ियाइ गए वो

बच गया है हमरे पास बस अब
गंजी लोटा, कम्बल, कमंडल और ई दुगों धोती
एक पहने हैं जब धोती, दूजी धुप में लहराती,
पीयरी में आई थी तब ये
अब पीयरी सी बन आई है.

एक झलक तू देख ले इसको
फिर से पीयरी कर जा इसको
मान लिया है तुझको मैं माँई
धो दे ना ई धोती रे ताई

रे बुढिया, तू है ताई
या है तू हमर माई.....या है तू हमर माई

ताई ने ददुआ चाचा का मान रखा, कलयुग के मर्यादा का मान रखा और बदल डाली पियरी.
बंगाली दादा भी आ गए. पत्नी से जितना प्रेम उन्हें था डरते भी बड़े थे. छुप छुपा कर अपनी पसंदीदा खादी की बंडी ले आये थे. उनकी पत्नी ने ही एक दिन गुस्से में बंडी पर चाय गिरा डाला था. मन पे गिरे दाग तों प्रेम रस से धुल गए थे पर बन्डी पर गिरे दाग नहीं धो पाए थे. आज रहा नहीं गया तों चले आये थे. कविता पाठ तों आता ना था. कहीं से एक शेर सुना था जिन्हें याद कर रखा था सुनाने लगे अपनी बंगला-हिंदी में :
मेरे जनाने के पीछे... गौर फरमाईयेगा ताई”, सीना फूला कर बंगाली बाबू गर्व से बोले..
मेरे जनाने के पीछे..फिर दोहराया,
मेरे जनाने के पीछे  सारा जमाना निकला
पर वो ना निकला जिसके लिए मेरा जनाना निकला

सारा गाँव हंसने लगा. मनचला तों बोल ही दिया.. बंगाली बाबु जनाना कों कहाँ ले आये ज़नाज़े में. शेर तों ये है बाबु :
मेरे जनाज़े के पीछे सारा ज़माना निकला
पर वो ना निकला जिसके लिए मेरा जनाज़ा निकला

बुढिया ताई भी पोपले मुंह से हंस पड़ी. "कहा चलो बाबु तुम भी धुलवा ही लो आज"

अब तों गाँव में फ़ैल चूका था, बुढिया के बारे में. कोई भी दाग, कैसी भी गन्दगी आज भूतिया गुफा में  कोई भी कुछ भी साफ़ करवा सकता है. धर्म ग्रन्थ ले कर पोंगा पंडितों ने भुत होने का दावा किया और पुरे गाँव कों प्रकोप से बचने के लिए मंगल यज्ञ का प्रस्ताव भी दे डाला. वैज्ञानिक ज्ञान वालों ने तों गुफा के अंदर जा कर देखने के लिए जिद मचाने लगे. किसी तरह तों गाँव के बड़े बुजुर्गों ने रोक डाला. गाँव के कुछ बुजुर्गों ने विचार विमर्श कर के निष्कर्ष निकाल ही डाला. आज के ही दिन दस साल पहले तों सर्फिया-ताईका देहांत हुआ था. ताई का गाँव से इतना प्रेम था और हम उन्हें भूल आये थे. हों सकता है अपनी याद दिलाने के लिए सर्फिया-ताईआई हों.

इतने में गाँव के लाल बुझ्हकड़ जी आ गए. थोडा मुआयना किया. कभी गुफा पे नज़र दौडाई, कभी खंडहर पर, कभी बुधिया ताई पर. मूछों कों मरोड़ मरोड़ कर सोचा फिर अचानक मूछों कों मरोड़ कर ऊँचा किया और गाँव वालों के तरफ मुखातिब हुए...और एलान किया :
" लाल- बुझ्झकड बुझ गए और ना बुझा कोई"
दोहराया
" लाल- बुझ्झकड बुझ गए और ना बुझा कोई
मशीन गुफा में बईठा के कोई "सर्फ़" से कपडा धोए.. "

बात सुन कर गाँव के लोग हंसने लगे.. कहाँ से बिजली आएगी भई, यहाँ तों दूर दूर तक बिजली कहाँ की बुढिया अचानक बिजली लाएगी मशीन वास्ते...
वहाँ गाँव में कोलाहल था सर्फिया ताईके आगमन से. एक और कोलाहल ने जन्म लिया...

चोदह साल की विनीता आ बैठी थी सर्फिया ताई के यहाँ. जोर जोर से रों रही थी. माँ-बाप के सपने कों पूरा करने के वास्ते पास के गाँव के स्कूल में पांच किलो मीटर चल के जाती. आज कुछ बदमाशों ने उसे पकड़ के इज्जत लुट ली. सफ़ेद शर्ट और खाकी स्कर्ट चिथरों में थी और शरीर और कपडे खून से रंजित थे. किसी तरह से भाग कर जान बचा कर आई तों किसी ने राह में कहा था कि ताई सारे दाग धो देती हैं. वहीँ पास एक कोने में बैठ कर जोर जोर से माँ के सुनाये लोरी गाने लगी. "चंदा मामा दूर के ..." टूट गयी थी विनीता अपने नन्हे सपनों के तरह..

चंदा मामा दूर के
पुए पकाए गुड के
आप खाए थाली में
मुनिया कों दे प्याली में
मुनिया रानी बिटिया  है
प्यारी सबसे  गुडिया है

राज कुमार जब  आयेंगे
गहने से तुझे सजायेंगे
लाल सिंदूर तुझे सजा कर
फूलों के डोली में बिठा कर
गुडिया कों ले घर जायेंगे

गुडिया गयी टूट
सब कुछ गया लुट
अब गुडिया कैसे जायेगी
कैसे अब वो जी पाएगी
कैसे कहीं वो जा पायेगी

खून के काले दाग छुड़ाएगी
अब कैसे ये मन से धो पाएगी
बोल ना अजिया
कैसे तू ये दाग छुड़ाएगी

गुडिया गयी टूट
सब कुछ गया लुट
सब सपने गए छूट .... ये बुढिया ताई बोल ना कैसे तू दाग छुड़ाएगी ...बोल ना ताई कैसे तू गुडिया की दाग छुड़ाएगी.....

सुनकर छोरी की व्यथा, आँखों में आंसू भर आये. ताई उठी, धीरे-धीरे अँधेरे में लंगडाती-लंगडाती बडबडाती, आंसू पोछती निकल गयी..

ना रे छोरी सब दागिया
हम खुद  धोवत है पर
ई दागिया ना धुलत है
ना धोवत हैं इन दागिया  कों
ना धो सकत है कोई उनको

इंसानों के सुन्दर बगियाँ में
ई हैवान कहाँ से आवत है
कीचड़ में भी फूल खिलत है
ये कीचड़ कहाँ से आवत हैं

सब दागों कों धोवत हैं सर्फिया
ई दाग ना वो धोव पावत है

इसके बाद कभी नहीं दिखी बुढिया ताई कभी नहीं आई "सर्फिया" ताई

note: it all started off for a contest: http://www.indiblogger.in/topic.php?topic=61






2 comments:

  1. Amazing amazing....
    I haven't read something so simplistic and touching...
    aakhri chhand ki panktiyan sunkar to sach mein bohot achha laga...keechad mein bhi phool khilat hai, yeh keechad kahan se aavat hai...

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    1. thanks Aparna. if you have liked it so much ..please do visit the post again..it has been re written.. trust me you wont regret coming again on this post for sure..
      thanks for your encouragement...

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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
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