Mar 12, 2012

एक खुली खत जिन के नाम....

जानती हों, अनजान सी पहचान प्रेम की हंडिया में, चाहत की गर्म लौ पर हौले हौले पक एक रिश्ते में परिवर्तित हों उठते हैं. और यही रिश्ते जीवन सफर के राह में सज जाते हैं. इन्ही राहों पर अनजान से दो लोग साथ साथ हमसफर बन जिंदगी के लंबी डगर नाप जाते हैं. डगर में उतराव हों या चढ़ाव, रिश्तों कों हमसफर बना दोनों पथिक भावविभोर हों पार कर जाते हैं. ऐसे ही डगर पर चलते चलते कब थक गया था पता ही नहीं चला. पलक झपकी तों पाया हमसफ़र कुछ कदम आगे था, थकी हुई कदम कों महसूस किये बिना.  क्लांत शिथिल मन, दुर्बल तन, रुधित कंठ, अश्रु पूर्ण नैन, घुटनों पर खड़ा जाते हुए देखते रहा. ना कोई आवाज़ लगायी ना कोई स्वर फुटा बस विस्मित हों देखता रहा स्वार्थ से परिपूर्ण उसकी तेज कदमें. गीली आँखें सुखी तों बहुत दूर निकल चला था मेरा हम सफर. और राह वही की वहीँ पड़ी थी बेजान रिश्तों सी. शांत हवा की मंद झोंको सी, शुष्क गर्मी में बरसात सी, तेज गर्मी में छाँव सी नर्म उँगलियों कों मेरे बालों में उंगलियां फिरोती तुम थी. हाँ तुम ही थी “जिन”. लंबी डगर में, उँगलियों कों अपने उँगलियों में सहेजे, थके माथे  कों अपने कंधे में संभाले, जुल्फों की छांव बिखेरती तुम ही थी “जिन”. कब सजे उस राह कों छोड़ मैं तुम संग एक नयी राह बना गया, एक नन्ही पगडण्डी जो काँटों से भरी थी, एक नयी राह. तुम साथ थी तों चलता ही गया रक्त रंजित हुए पग, घायल हुए तन पर तुम साथ थी, तों आह भी नहीं निकली एक बार भी. बस पथिक सा चलता गया.. जानती हों “जिन”, रिश्ते राहों से होते हैं, कभी टूटते नहीं खत्म नहीं होते, बस उनमें दोराहे होते हैं. कहीं ना कहीं हर राह एक दूजे कों काटते हैं मिलते हैं, और सारे राह कभी ना कभी पगडंडियों से ही शुरू होती हैं.   

क्या पता था, चलते चलते हमारी पगडण्डी वही राह के सामने खड़ी हों जायेगी. दोराहे पर एक बार वही हमसफ़र आंधी कों ओट लिए मुझे साथ उड़ा ले जाएगी. आज फिर वहीँ राह पर मैं हूँ और विस्मित सी खड़ी रह गयी तुम, पगडण्डी की उस कोने में. टीले के मुंडेर पर बैठा मैं देख पा रहा, पीछे छोड़ आये क़दमों के अपने छाप कों. आज भी पगडण्डी पर चमकते नगीनों से हमारे कदम चमक रहे हैं. आज भी तुम्हारे कदमों की छाप मेरे क़दमों के साथ सजते हैं..आज भी संकरी सी छोटी पगडण्डी डगर की सबसे खूबसूरत है आज भी खुशी वहीँ सजी है. राह भले बदल गए हैं, पर ना जाने क्यूँ ऐसा लगता है कि कहीं ना कहीं एक दोराहा फिर सजेगा, और फिर एक पगडण्डी राह बनेगी. डरता हूँ समय का वेग तुम्हे उड़ा ना ले जाए कहीं...


3 comments:

  1. प्यार की पगडण्डी पे पड़े प्रेम पद्चिन्ह अक्सर समय की आंधी में धूमिल हो जाते हैं !!

    स्वागत है आपकी रचना का..

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  2. जिन से जिंदादिली के संबंध बने रहें।

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  3. शुक्रिया आपके शुभकामनाओं के लिए...
    जिन तों हमारी जिंदगी है तभी तों उन्हें हम zin(dagi) पुकारते हैं.....

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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.