Dec 5, 2012

जलन ....... [Jealousy]

मेरी रचनायें ना जाने क्यूँ बचपन से एक रिश्ता बाँध कर ही आती है. हर रचना से बचपन का यूं बंध जाना बुरा नहीं लगता. लिखने कों वैसे कुछ था नहीं पर उंगलियां चटक रही थी. कुछ ना कुछ लिखने की इच्छा अठखेलियां ले रही थी. प्रेरणा ना जाने कहाँ घूँघट ओढ़े अलसाई सी सोई पड़ी थी. काफी हिलाया दुलाया फिर भी कुछ ना आई तों रहा ना गया ट्रेन के डब्बे में सवार हों बचपन के स्टेशन तक जा पहुंचा. वैसे तों राहों में कई उतार चढाव दायें बायें होती है, पर बचपन के इस स्टेशन पर आने का एक ही मार्ग है सीधा सपाट और नन्हा सा. जब चाहो यहाँ उतार आवो. याद है बचपन में पडोसी के यहाँ टीवी देखने जाता था. एक नन्हे से ड्राईंग रूम में ना जाने कितने लोग अट जाया करते थे. हाँ जगह भी कितना था चाचा जी के यहाँ, फर्श पर दरी, सोफा, दीवान, कुर्सी. कितना जगह होता था. फिर भी कम हुई तों कुर्सी मेज़ रूम से बाहर और तशरीफ की टोकरी का आगमन. हाहा बहुत ही प्यारे दिन थे. रिमोट भी नहीं होती थी. फिल्म शुरू हुई तों खत्म तक एक ही चैनेल. सारे विज्ञापन भी देखे जाते. एक से एक विज्ञापन आते. और कमरे के सभी बच्चे एक साथ गा उठते. चाहे वो टोबू साईकिल की विज्ञापन हों या निरमा के. सभी गाने याद रहते.
इन्ही विज्ञापनों में एक विज्ञापन बहुत याद आया. सर्फ़ वाली..हाँ वही ललिता जी वाली विज्ञापन. “उसकी साडी मेरे साड़ी से सफ़ेद कैसे? सर्फ़ के धुलाई में ही समझदारी है.” याद आई ललिता जी? लेकिन मैं ललिता जी पे तों लेख लिखने से रहा, लेकिन हाँ उस विज्ञापन में जो भाव थे बड़े ही इंट्रेस्टिंग थे. एक औरत दूसरे के साडी कों देख कर एक जला-भुना सा भाव व्यक्त करती है. हाँ मैंने इसी भाव कों पकड़ने की कोशिश की है अभी. जलन की भाव. कितना भी बेतुका लगे ये पर है बड़े काम की चीज़. जलन तों आग की लौ है जो धधके तों परवाने राख बना जाए और ना धधके तों परवाने कों राख कर जाए. ये तों परवाने के ऊपर है की धधकते इस लौ से कितना वो जले. हंसी, खुशी, दुःख कितने भाव हैं पर जलन या ईर्ष्या का जो एक रुतबा है क्या कहने.
जलन की उत्पति का कोई मूल परिचय तों हमे किसी ग्रन्थ में नहीं मिला क्यूंकि लोगों ने सुख या दुख के बारे में ही पोथियाँ बांची है, ग्रन्थ में तों इनकी भरमार है. पुरुष हों या नारी, ईस्वर हों या नश्वर, असुर हों या देव सभी ने बराबर सुख की कामना की है और दुःख से दूर रह पाने की दवा ढूंढी है. जलन का तों नाम ही नहीं है कहीं. अब इन्टरनेट के ज़माने में ग्रन्थ कों ढूंढे हम तों गूगल और याहू में इस बारे में शोध किये. कुछ ना मिला तों टीवी पर ही एक प्रोग्राम से मेरे सवालों का जवाब मिला. महादेव के एक भाग में महादेव शिव ही बतलाते है इस भाव के बारे में. चर्चा पार्वती माँ के साथ हों रही थी और विषय था सागर-मंथन के परिणाम का. मंथन में अमृत देवों कों, विश शिव ने पीया, श्री की उत्पति हुई. शिव जी का वक्तव्य था अमृत देवों कों इसलिए लिया दिया गया ताकि वे निर्व्हिक हों जन कल्याण करे. श्री की उत्पति लोक कल्याण और वैभव प्रदान करने के लिए हुई,  संसार के विश कों उन्होंने खुद पिया ताकि आकाश-पाताल, धरती सब सुखी रहे. पर, ये कुछ हुआ नहीं, अमृत पी देव घमंड से चूर हुए. जिन्हें जो नहीं मिला उसे पाने कों वो आतुर हों उठे. इन्द्र देव तक गौतमी के साथ छल कर गए. और सब हुआ ईर्ष्या के जन्म से. यहीं जलन ने जन्म लिया. और मख्य सूत्रधार बने शिव भगवान. शिवे शिवे ...
जलन हों गर आप में तों आप उसे पाने के लिए दौडेंगे. उसे मिटाने के होड में आप मेहनत करेंगे. जब आप उसे पा लेंगे तों किसी और चीज़ से जल उठेंगे. तों इस दौड में आपकी प्रगति तों निश्चित ही है ना. हाँ विवेक का जलन के संग होना आवश्यक है वर्ना सही और गलत जलन की भनक ना मिलेगी. अब हमे ही देखिये जलन  कों हमने इतना महत्व दिया अपने जिंदगी में की बहुत सपने पा गया. कई आज भी अधूरे हैं पर जलन के लौ कों धधकते रखा है.

अब आप पूछेंगे ये अचानक क्या उलूल जुलूल लिखा है जलन कों ले कर. ये भी कोई विषय है. सच पूछिए तों अचानक ही कल मैं जल उठा था. अब ये ना पूछियेगा क्यूँ और कैसे. हाँ जल उठा था मैं. ये जानता हूँ कि उस स्थिति में और उस काल में, मैं वक्त के उस नजाकत में, खुद कों समा नहीं पावुंगा. फिर भी, मैं कुछ सुन कर दिल पे उठे टीस और मन की पीड़ा दबाए, चेहरे पर मुस्कान सजाये एक वीर सेनानी की तरह सुनता बतियाता रहा. भले जलन से सारा तन जल उठा था. तभी ये बात मन में आई थी ... “इतना जलनखोर मैं कब से हों गया हूँ”. सच बहुत ईर्ष्या हुई थी कुछ बातों कों सुन कर... अब रहने भी दीजिए क्यूँ कुरेद रहे है.... नहीं बता पावुंगा...हाँ मेरी गलती तों ना थी जलन खोर बनने की सब तों शिव माया है सब महादेव की देन है ..हमे तों ना अमृत मिली ना ही सुंदरी..हमे तों जलना ही लिखा था.... सो जल उठे ....शिवे शिवे हर हर महादेव .. चलता हूँ आज के लिए इतना ही

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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
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