लाल-लाल-लाल
एक चेहरा सजाता
एक रंग से भरता
दूजा चेहरा बिगड़ जाता
कशमकश में,
कई लम्हों
कई घंटों
कई दिनों को
व्यर्थ कर गया था.
एक ही रंग से
रुबिक के सारे चेहरे
सजा न पाया था..
नाराज़ हो
ताबड़तोड़ घुमा
सबकुछ बिगाड़ दिया..
कमरे के एक कोने में
फेंक निकल आया था
सहसा,
आज फिर
रूबरू हुआ
छोड़े हुए
उसी रुबिक से
लाल हरा पीला
नीला सफ़ेद, नारंगी
सभी रंग
हर चेहरों पर था
रंगीन
खुबसूरत लग रही थी...
यूँ जैसे ज़िन्दगी ने
अपने लम्हे
हर चेहरों पर संजोये हों
ज़िन्दगी को व्यर्थ ही
रुबिक क्यूब सा
संजोने की कोशिश करते हैं
हर रंग हो तो ही ज़िन्दगी है....
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.