भागते भागते कभी मन उदास हो उठता है और सोचता हूँ की क्यूँ इतना भागता हूँ कभी कभी जवाब भी मिल जाती है. कभी परिवार, कभी ऐशो आराम, कभी बैंक बैलेंस की लोभ मैं आदमी को भागना ही पड़ता है . पर यदि जीवन की अंतिम पड़ाव एक सुखी लकडियों की सेज है और संचय के नाम पर दान के रूप मैं मिली हुई घी और दूसरों की खरीदी हुई आग है तो ... इतना हम क्यूँ दौड़ते है. मन की इसी व्यथा को कभी हमने शब्दों मैं ढलने की कोशिश की थी पर कोई काव्य तो नहीं बनी, पर मन के भावों को शब्दों मैं लपेट सका.. इन्ही शब्दों की प्रस्तुति ....भावों को समझाने की कोशिस.......
वाल्मीकि कहाँ हो तुम
एक दशक के अंत पर
जीवन की इस डगर मैं
बैठा सोच रहा,
क्यूँ भाग रहा हूँ
क्यूँ भागता रहा मैं
अपने, तो कभी पराये
ख्वाबों के पीछे ।
कभी चंद से सिक्कों के लोभ में
कभी प्यार, तो कभी दुलार की खोज में,
क्यूँ भाग रहा मैं, अनंत सी दौड़ में,
कौन है साथ, किसके लिए?
पीरो रहा आज मैं
उँगलियों के निर्जीव माला पिरोये
बन आज एक उंगलीमाल
क्यूँ उन नीर्जिवे सी उँगलियों से निकलती
श्राप सी धुर्गंध को माले मैं
पिरोये घूम रहा
क्यूँ दीख नहीं पा रहा
उँगलियों से टपकती
रक्त का ह्रदय पर रंगित होना...
क्यूँ समेट रहा मैं
श्रापों से भरी
अनमोल सी प्रतीत होती
मिट्टी के मोल की
व़ोह उँगलियाँ...
टपकती अश्रुवों
से भरी आंखों से
निकलता हैं क्यूँ आज ये सवाल ...
किस के लिए है ये सब उन्ग्लिमाल....
किस के लिए ?
ह्रदय भी आज कराहती,
सिसकती,
पूछती
चिल्लाती.
बंद करो ये उंगलीमाल..
बंद करो ये उंगलीमाल..
समेत रहे हो जिन
अनगिनत सी उन उँगलियों को,,
समेत रहे हो जिन
के लिए आज, ये सब कुछ....
रुको,
मुडो,
देखो,
नहीं है कोई आज भी साथ
दौड़ रहे हो तुम आज
अकेले
बस अकेले
न हैं कोई साथ.
न था कोई साथ
दशक की इस मोड़ से
देख पा रहा मैं
अकेले भागते उन पदचिन्हों को
जो छोड़ आया था
कहीं दूर मैं पीछे....
ढून्ढ रहा मैं आज
अपने अंदर छिपे गौतम को,
ले सकू मैं जिनसे मैं
बौध्त्वा को....
जगा सकू मैं अपने सोये हुई वाल्मीकि को...
दे सकू मैं आवाज़ अपने वाल्मीकि को...
फेंक सकू मैं ऊँगली मॉल को...
वाल्मीकि कहाँ हो तुम
एक दशक के अंत पर
जीवन की इस डगर मैं
बैठा सोच रहा,
क्यूँ भाग रहा हूँ
क्यूँ भागता रहा मैं
अपने, तो कभी पराये
ख्वाबों के पीछे ।
कभी चंद से सिक्कों के लोभ में
कभी प्यार, तो कभी दुलार की खोज में,
क्यूँ भाग रहा मैं, अनंत सी दौड़ में,
कौन है साथ, किसके लिए?
पीरो रहा आज मैं
उँगलियों के निर्जीव माला पिरोये
बन आज एक उंगलीमाल
क्यूँ उन नीर्जिवे सी उँगलियों से निकलती
श्राप सी धुर्गंध को माले मैं
पिरोये घूम रहा
क्यूँ दीख नहीं पा रहा
उँगलियों से टपकती
रक्त का ह्रदय पर रंगित होना...
क्यूँ समेट रहा मैं
श्रापों से भरी
अनमोल सी प्रतीत होती
मिट्टी के मोल की
व़ोह उँगलियाँ...
टपकती अश्रुवों
से भरी आंखों से
निकलता हैं क्यूँ आज ये सवाल ...
किस के लिए है ये सब उन्ग्लिमाल....
किस के लिए ?
ह्रदय भी आज कराहती,
सिसकती,
पूछती
चिल्लाती.
बंद करो ये उंगलीमाल..
बंद करो ये उंगलीमाल..
समेत रहे हो जिन
अनगिनत सी उन उँगलियों को,,
समेत रहे हो जिन
के लिए आज, ये सब कुछ....
रुको,
मुडो,
देखो,
नहीं है कोई आज भी साथ
दौड़ रहे हो तुम आज
अकेले
बस अकेले
न हैं कोई साथ.
न था कोई साथ
दशक की इस मोड़ से
देख पा रहा मैं
अकेले भागते उन पदचिन्हों को
जो छोड़ आया था
कहीं दूर मैं पीछे....
ढून्ढ रहा मैं आज
अपने अंदर छिपे गौतम को,
ले सकू मैं जिनसे मैं
बौध्त्वा को....
जगा सकू मैं अपने सोये हुई वाल्मीकि को...
दे सकू मैं आवाज़ अपने वाल्मीकि को...
फेंक सकू मैं ऊँगली मॉल को...
..उँगलियों की दुर्गन्ध इस माले को,
कई महीन पहले लिखा था .....
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.