आज उसी मंज़र में हूँ उसी माहौल में हूँ जहाँ कभी हम अपने जिंदगी के साथ सबसे हसीं पल जिया करते थे. कमरे में सब कुछ एक निश्चित जगह पर थे जहाँ उन्हें होना चाहिए एक सलीके से लगी हुई किताबे, सजी हुई एक एक सामान, कोने पर सजे हुए ताज़े रजनीगन्धा फुलो का गुलदस्ता, साफ़ की हुई हमारी जीत के मेडल्स, बंद टीवी, सब कुछ अपने सलीके से सजे हुए. . कमरे में आज वैसी ही मध्हम रौशनी करती हुई अन्गिनत से मोमबतिया सितारों से टिमटिमा रही हैं ...कमरे में एक कोने पर सजी हुई एक गद्दी, जिसने गलीचे को बड़े सालीनता से थाम रखा था और दीवाल के ओट लिए रंग बिरंगी गद्दियाँ जो हमारी बड़ी ही पसन्दीदा जगह हुआ करती थी. याद है यही वो जगह हुआ करती थी जहाँ हम जिंदगी के कई कई घंटे, अनगिनत पलों को यादगार बनाते थे याद हैं ना तुम्हे ...
देखों ना अभी वही गीत चल रही है जब तुमसे हमारी मुलाकात हुई थी..माहौल ना जाने क्यूँ आज भी वैसी ही है ...याद है वो गाना वो शब्द ....
ऐ ज़िंदगी गले लगा ले हमने भी तेरे हर इक ग़म को
गले से लगाया है ....
गले से लगाया है ....
हमने बहाने से, छुपके ज़माने से
पलकों के परदे में, घर कर लिया तेरा सहारा मिल गया है ज़िंदगी
ऐ ज़िंदगी ...
पलकों के परदे में, घर कर लिया तेरा सहारा मिल गया है ज़िंदगी
ऐ ज़िंदगी ...
वही उसी गद्दे में बैठा ये गाना सुन रहा था. मेरी कमजोरी जो तुम अच्छे से जानती थी... यदि गाना बहु पसंद होता तो मैं उस गाने मैं खो सा जाता ... आँखें बंद करे उसी गाने को बार बार चलाता. उस दिन भी वही हुआ था, आँखें बंद कर के खोया हुआ था... तुम आहिस्ते से आयीं और मेरे गोद मैं सर रख कर गुनगुनाने लगी. आँखें खोली तों देखा तुम्हे... लगा पल सारे थम गए हैं. खुले हुए ज़ुल्फ़, कुछ बिखरे लटें जो कुछ तुम्हारे चेहरे को ढांपते, कुछ मेरे गोद मैं खेलते दिखे.. आँखों को बंद कर के तुम भी खो गयी थी. सुन्दर कमली आँखें हमेशा की तरह काजल के कजरिया मैं सजे हुए, दिल के कई अरमान दिखा रही थी, आँखों के बीचों बीच चाँद सा गोल बिंदिया थी जो अरमानों से सजी आँखों को देखने में लिए मजबूर करती .. मध्यम लो तुम्हे सजा रहे थे... सारे पल तुम तक आ कर थम गए थे...रोक कर अपने उमड़ते भागते जिंदगी से इस माहौल को समेत लिया था....गाना खत्म हुआ था और मैं एक बार फिर चलाने की कोशिश करता की आँखें खुली तुम्हारी और ना कुछ कहा..बस हाथें थाम ली रोक दी की ना चलाऊ फिर से.. आँखों से आँखों की बात हुई और थाम दिए संगीत को... एक सन्नाटा एक पल के लिए...ना कोई शब्द ना कोई बातें ..बस आवाज़ थी एक सन्नाटे की जिसे सुन पा रहे थे और एक और आवाज़ थी तुम्हारी धडकन की. बड़े अनमोल पल थे एक अनमोल सन्नाटा करती ..पर कह बहुत कुछ रही थी.
तुम ने उँगलियों से मेरे बालों में उंगलियां फिरने लगी .. बाँहों का हार ले सीने से लग गयी.. लब हिले..और तुम यही गाना गाने लगी....गाते गाते ये बोल आये
छोटा सा साया था, आँखों में आया था
हमने दो बूंदो से मन भर लिया हमको किनारा मिल गया है ज़िंदगी
हमने दो बूंदो से मन भर लिया हमको किनारा मिल गया है ज़िंदगी
हमको किनारा मिल गया है ज़िंदगी .... रुकी इस बोल पर और आहिस्ते से कानों मैं कहने लगी “जिंदगी तुम ही तों वो साहिल हो मेरा किनारा”
देखों ना हर कुछ याद हैं हमे, तों तुम्हे क्यूँ नहीं याद हैं ये सब...तुम्हरे ही शब्द थे वे तों फिर क्यूँ आज अपने किनारे से रूठ इतनी दूर हो.... चंचल, खूबसूरत दरिया के बिन किनारे का क्या अस्तित्व है ...साहिल का सुनापन क्यूँ नहीं भांपती क्यूँ दूर हो अपने किनारे से .....
गीतों से अपना नाता तों उतना ही था जितने जन्मों से हमारा रिश्ता... गा तो मैं नहीं पाता, हाँ अब मुस्कुराओ नहीं नहाते वक्त गाने तो सभी हैं. मैं भी अपने पसंदीदा गानों को गुनगुना लिया करता था .. तुम्हारे साथ शर्मा जाता था ...आवाज़ भी तों इतनी खूबसूरत है मेरी.. सुन ले एक बार तों हर बार सुन से पहले भाग जाना पसंद करे ... बाथरूम कि बात कुछ अलग ही थी.. वो तों हर दिन के साथियों का एक जमावड़ा हुआ करता था .,.. बरसात के धुन सुनाते शावर, आईने मैं खुद को दिखाते आईने, ताप ताप करती हुई नलका, छप छप करते बाल्टी पे थप देते मग सभी तो मेरे सगी ही हुआ करते ..अब इनके बीच तों कुछ भी गा लो कोई समस्या ही नहीं थी कोई टमाटर नहीं फेंक सकता, कोई मुस्कुरा कर कुछ अपशब्द कहता... हाँ मैं तों वहीँ गया करता हूँ आज भी कल जब तुम साथ थी तब भी... तुम अच्छा गा लेती हो पर वही ना कि कभी रियाज़ नहीं की ना सीखने की कोशिस....याद है तुम्हरा गुनगुनाना... अच्छा लगता मुझे ... बचपन से हमेशा एक सपना पाल रखा था ..एक संगी ऐसा हो जो गाना गा सकता हो , गाता हो.. तुम शायद उसी सपने में साकार हो उठती ...
याद है मुझे ..नयी नयी जिंदगी हमारी शुरू हुई थी... एक सबेरे, नींद खुली तों तुम्हरी गुनगुनाने की आवाज़ आ रही थी...जल्दी उठ जाया करती थी तुम, हर दिन तों हम साथसाथ उठा करते थे पर उस दिन तुम बिन मुझे उठाये उठ गयी थी..चाय बना रही थी और आज नहा धो कर तैयार भी हो चुकी थी...
गाना जो गुनगुना रही थी कोई एक मराठी गाना था क्लास्सिकल गाना था .. शब्द तों याद नहीं रख पाया पर सुर और लय अछे लगते ..गाते गाते तुम कमरे मैं आई.. और आईने के सामने खड़ी हो कर बालों को सुखाने लगी .. एक बार देखा था तुमने हमे पर हमने जल्द आँखें बंद कर ली क्यूँ की हम तुम्हे निहारना चाहते थे .. निश्चिंत हो की मैं अब भी सोया पड़ा हूँ.. तुम गुनगुनाने लगी पर आहिस्ते से नींद ना टूट जाए हमारी... हा हा ... हम तों जागे हुए ही थे... जानती हो तुम्हे देख रहा था तुम्हरे भीगे भींगे बाल जिन्हें सुखाने की कोशिश कर रही थी... एक दो बार बालों को यूँ पीछे के तरफ झटका, बरसात से कुछ बुँदे ज़ुल्फो से छिटक मुझ पर आ गिरे थे ... हाथों मैं चुडा भर रखी थी.. बहुत सजती थी चुडा तुम्हारे मेहंदी भरे हाथों मैं, खनकती वे चुडीयाँ, ऐसी लगती जैसे तुम्हारे गुनगुनाने पर साथ दे रही हो.. फिरोजि साडी मैं सितारों के ज़री का नक्काशी था .. उन्हें तुम संभल तों नहीं पाती पर पहनती थी... उस दिन बड़े प्यार से सलिके से संभाल रही थी. माथे पर उस दिन एक बिंदी लगायी... दसियों बार देखा, निहारा अपने आप को और गुनगुनाते हुए चली गयी.. अलसाया सा तुम्हे निहारता रहा गुनगुनाना सुनता रहा ..संगीत के इस सुर को अपने जिंदगी मैं पा मन बहुत प्रफुल्लित हुआ करता.... उधेड़ बुन मैं था ख्यालों में, तुम आई दो प्यालों के साथ ..हमे जगाने ... कितनी बदमाशिया करती थी सबेरे सबेरे कभी पानी के छीटे कभी गरम चाय के प्याली मैं उँगलियों को डूबा देना.. कभी हमारे होठों के पास पाने होठ बिन छुवाए रखे रखना ... मैं तुम्हारे साँसों को महक सकता उस वक्त और तुम्हरो होठों को हमे चूमने का इन्तेज़ार करता... पर तुम तों तुम ही थी ना ..... संगीत सी भरी तुम और सुर से भरी हर सुबह देखों ना कहाँ खो से गए हैं... इतने दुर क्यूँ हो? क्यूँ नहीं आज भी सबेरा तुमसे सजा होता? चाय की गर्म प्यालियों मैं आज डूबी उंगलिय क्यूँ जलती नहीं ? क्यूँ पानी केछीटें हम तक नहीं आते.... ?? क्यूँ ???
संगीत ना होता तों हमारे पल भी कितने फींके होते...याद है एक बार हम मिले थे, बहुत उदास थी तुम.. लग रहा था वर्षों से रोई हो .. कई बार पूछा तों ना कुछ कहा ना कुछ बोली.. सिसकियों मैं ये गाना चला दिया ... थोड़े हम परेशां भी हुए की क्यों तुम उस गाने को चला रही थी ....गाने के बोल सुने तों लगा की सब तुम्हारे ही बोल हैं ...
रात ढलने लगी बुझ गए है दिए
राह तकते है हम जाने किसके लिए
कोई आहात नही राहे सुनसान है
आरजू के नगर सारे वीरान है
क्या करे हम सोचके हम भी हैरान है
इस तरह कितने दिन किस तरह हम जिये
राह तकते है हम जाने किसके लिए
कोई आहात नही राहे सुनसान है
आरजू के नगर सारे वीरान है
क्या करे हम सोचके हम भी हैरान है
इस तरह कितने दिन किस तरह हम जिये
राह तकते है हम जाने किसके लिए...
संगीत भले ही बहुत सुन्दर था, पर छुपे उन शब्दों मैं हमारे सवालों का जवाब था.. जवाब मैं सवाल कई थे.. किन सवालों का जवाब दू किन सवालों का नहीं ... इन सवालों का काश मैं जवाब बन पाता ... देखों ना आज भी तुम्हारे सवालों का जवाब तों है..राह भी है..... राहें भी ऐसी – जटिल, पेचीदा, उलझा हुआ... पर इन सवालों के जवाब के लिए जो राह चुनना है चुनेगे हम..समय समय समय..बस इन्ही की जरुरत हैं हमे ..
पर देखों ना आज तुम्हारे उस संगीत से भरे सवालों में, तुम बिन, हमारे भी बोल जुड गए हैं..... देखों ना सुनो ना :
दूर तक अब कोई संगी साथी नही
कोई दीपक नही कोई बाटी नही
क्या करे ज़िन्दगी बताती नही
ग़म जो एक ज़हर है कोई कब तक पिए
राह तकते है हम जाने किसके लिए...
कोई दीपक नही कोई बाटी नही
क्या करे ज़िन्दगी बताती नही
ग़म जो एक ज़हर है कोई कब तक पिए
राह तकते है हम जाने किसके लिए...
राह तकते है हम अब बस तेरे लिए...
लिखते लिखते ना जाने कब ये कमीने नटखट आँसू आँखों छोड़ कर गलों पर रुखसत हुई पाता ही नहीं चला....उंगलियां भी शब्दों को लपेटती थक सी गयी हैं.. ये सब जब भी महसूस कर रहा था ... यादों के रेले से इन्हे शब्दों मैं पीरो रहा था .... ख्वाबों मैं अपनी जिंदगी सजा रहा था .. काश ये संगी जिंदगी के संग होते...
इन्तेज़ार मैं ख्वाबो के साकार होने का ........................
22 jul’2011
IMAGINATIONS HAVE NO BOUNDARY.........................................
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.