रमजान के महीने
सुबह भी रोजें की फांके सी हुई
आँखें खुली
नज़रें घूमी
बिस्तर की सलवटों को ढूँढा
सलवटें नदारद
और चादर वीरान.
तकिये के गिलाफ़
के तले छिपे
ख्वाब भी गायब ....
कमरे मैं फैली
खुसबू तेरे तन की
हवाओं मैं धूमिल धूमिल
कहाँ हो तुम?
आँखें खुली
नज़रें घूमी
बिस्तर की सलवटों को ढूँढा
सलवटें नदारद
और चादर वीरान.
तकिये के गिलाफ़
के तले छिपे
ख्वाब भी गायब ....
कमरे मैं फैली
खुसबू तेरे तन की
हवाओं मैं धूमिल धूमिल
कहाँ हो तुम?
निशा के गोद से
छुपा कर तुम्हे
बाँहों मैं ले हम
ख्वाबो मैं सजा
सलवटों को संग ले
तकीए के गिलाफों तले
सजा कर
सारी रात
हम संग थे
तों
कहाँ गयी तुम?
क्यूँ नहीं हो संग?
कहाँ हो तुम??
छुपा कर तुम्हे
बाँहों मैं ले हम
ख्वाबो मैं सजा
सलवटों को संग ले
तकीए के गिलाफों तले
सजा कर
सारी रात
हम संग थे
तों
कहाँ गयी तुम?
क्यूँ नहीं हो संग?
कहाँ हो तुम??