चौपाल पर बैठा हुआ निश्छल, निशब्द, मौन अपने विचारों से लड़ता हुआ. सुबह की सन्नाटे में, आज चौपाल के पेड़ के पत्तों में भी कहीं सरसराहट ना थी. घोंसलों से निकलते चिड़िये भी आज मौन भाव से अपने घोंसलों से निकल कर दाना पानी के तलाश में निकल पड़े थे. मंदिर में भी कोई आवाज़ ना थी, पूजारी बाबा भी आज मंद भाव से मंत्र पढ़ रहे थे, ना कोई घंटी, ना कोई शंखनाद. इतने पास से भी पुजारी बाबा की कोई आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी. सूरज की किरणे अब भी चांदनी कों सजे रहने का मौन संकेत दे रही थी. पेड़ के ओट लिए मैं, उदास पड़ा था. और, ये सब उदासी का कारण एक ही था – “आज मुझसे खून हुई थी, मैंने खून कर दिया है”. उदास था, पर विचलित नहीं. किसी तरह का छोभ नहीं, किसी तरह का दर्द नहीं, कोई पछतावा नहीं. एक हत्या हुई है और मैं विचलित तक नहीं? कैसे निष्ठुर बन गया हूँ? जाने कहाँ से आँखों में दर्द के दो आँसू आये और आखों के कोनों से निकल कर गाल तक भीग भीग कर लुढक गए. नहीं मैं दुखी नहीं था. हाँ खुशी भी नहीं, कि आंसू साथ देते. गौर से देखा, तों ये आंसू शायद अंतिम कुछ बूंद थे, जिन्हें मैं अपने आँखों से खदेड़ चूका था. उन्ही बूंदों की अतिम बूंद थी. भीगे हुए आसुवों कों सुखाने की कोशिश कर रहा था. पलकें जब खोली तों देखा, बाबा आये हुए थे - मेरे पिता. हाँ बाबा ही कहता था. बाबा जिंदगी के अंतिम पड़ाव पार कर चुके थे और वैकुंठवासी थे. पर ना जाने कैसे, जब भी मैं उलझन में होता, जब भी विचलित होता, बड़ी बड़ी उँगलियों से भरे हथेली से मुझे थामने आ जाते. वैसे कुछ दिनों से हमारी अनबन सी चल रही थी. कुछ मुद्दों पर गलत आशा दिखा बैठे थे तों मैं नाराज था. बाबा का यूं सहसा आ जाना, इस बार हैरान कर रहा था. नाराज़ नहीं हुए बाबा? इतना कुछ होने के बावजूद भी? पर कुछ नहीं पूछा मैंने उनसे, ना ही कुछ कहा उन्होंने. दोनों ही मौन थे, भोर के आने से पहले की सन्नाटे सी.
“ये क्या है? क्या है सब कुछ?” सन्नाटे कों सरकाते मौन व्रत तोडा, उन्होंने. कोई आवाज़ नहीं आई रुंधे गले से मेरे, सुखी हुई आवाज़ कही बैठी हुई थी, गले से निकल ही नहीं पायी. बाबा ने नज़र दौडाया तो देखा, खून से लथपथ, कहीं खंज़रों के निशान थे, तों कही चोट खाए हुए. चोट के निशानों में, ज्यादातर अपनों के थे. अपनों के दिए हुए चोटों कों पहचान गए. एक लाश पड़ी थी, लाल रक्तों में डूबी हुई. कुछ नहीं कहा..एक टुक लाश कों, तों एक टुक मुझे देखते रहे. सूखे हुए आँसुवों की धार उन्हें बहुत कुछ बता रही थी. रात भर के जद्दोजहद का नतीजा ही था कि मैं उसका खून कर गया. समझ गए थे, शायद. बोल उठे:
ये क्या किया पगले?
ऐसा भी कोई करता है?
ये साथ होती हैं तभी
हम, हम होते है
ना हों तों पत्थर से
निर्जीव निर्भाव होते हैं.
फिर क्यूँ मार डाला है तू इसे
क्यूँ आघात कर डाला
क्यूँ अपने भावनावो कों
स्वयं ही मार डाला?