पांच सितारा होटल के कमरे में Sony Xperia पर उँगलियों से खेलते-खेलते मन बात कौंधी कि कितना कुछ बदल गया है. हम भी बदल गए हैं समय के साथ-साथ, कभी दूर से किसी होटल कों देखते तों इच्छा होती कि कुछ पल के लिए ही सही एक बार ठहर कर देखा जाए कैसा लगता है. समय ने कैसी रूप धरी कि अब बस होटलों में कभी एक रात तों कभी दो और कभी हफ्ते भर रुकना आदात सी पड़ गयी. दाल के सूप कों लेंटिल सूप कह कर हम बड़े चाव से अभी-अभी पी गए. घर में होते तों दाल देखते ही नाक-भौं बन जाती. सब कुछ बदल गया है और इस संसार में गर कुछ नहीं बदलता तों वो है बदलाव. समय का पहिया कही तेज तों कहीं मध्यम गति से घूमते रहता है. चमचमाती सड़कों में भागते दौड़ते गाड़ियों का लय तों रुकता ही नहीं. रुक कर कभी मन मुड़े कहीं तों, चमचमाने के नाम पर सिर्फ सितारे साथ चमकते है घुप रात के अँधेरे में. भागती गाड़ियों के सफर से जब भी मैं थम जाता हूँ तों अपने आप कों ढूँढने, अपने अस्तित्व कों बरकरार रखने चला जाता हूँ वहीँ जहाँ आज भी बिजली के खम्भे बिन तार के बरसों से पड़े हैं. ना कोई तार, ना उसमे से गुजरती बिजली. अँधेरे दूर से गर कोई घर चमकता दीखता है तों, उसके सम्पन्नता का आभास चमक से पहले पहुँच जाती है. नहीं ऐसा नहीं कि बिजली विभाग निक्कमी है या सरकार. मेरे गाँव के लोग ही माफिया सा बन, जब भी तार कों खम्भे से जोड़ते है रात के सन्नाटे में तार गायब कर जाते हैं.
हाँ, कुछ महीने ही अपने आप कों जोड़े रखने हम गाँव पहुँचे थे. गाँव में एक चाचा की बिटिया की शादी थी. बचपन से ही हमें बहुत मानते थे और हम उन्हें और उनकी बिटिया की शादी हों और हम ना पहुंचे. सुबह से ही सबका आना जाना घर पर था. शाम हुई तों पहुँच गए चौपाल. चहल पहल बढ़ गयी थी गाँव में.. दो ही तों हैं हम जो विदेश में रहते है. एक हम और एक बबलुवा. बबलुवा वही विकास जी. हम ही ले गए थे, बड़ा स्नेह हैं उस से. थोडा पढ़ा लिखा है. छोटी सी नौकरी दुबई में करता है. अब हम आये तों गाँव के सब आ जाते है. चौपाल महफ़िल सी हों जाती है. बातों बातों में ध्यान आया अँधेरे एक कोने में लजवंती भाभी बबुआ कों कमर में थामे खड़ी है. शरमाती है, इसलिए बुजुर्गों के सामने आ नहीं पा रही थी. मैं दौड के गया तों पैर छूने लगी. कुछ कही नहीं, बस एकटुक देखते रहीं. बबलूवा कों ढूंढ रही थी मुझमे. तीन बरस हों गए थे बबुआ पेट में था तब ही की बात है. बबलूवा कों हम दुबई भिजवा दिए थे कमाने. पूछे हम “का हुआ बबलुवा फोन नहीं किया का. काहे उदास हों? आ जाएगा गर्मी में अबकी.” कुछ नहीं बोली लजवंती. सर पर आँचल संभाले और कमर पर तीन साल का बवुआ कों थामे, सर नीचे कर एकटुक सा ज़मीं कों ताकते रही. खाली पैर दौड कर आई थी हमारे आने की खबर सुन. पैर के ऊँगली से जमीं खोद रही थी और आँखों से टपटप आंसू. व्याह के वक्त सोलह की थी अब उन्नीस कि हुई होगी. इतनी नन्ही सी थी लजवंती.
“का हुआ? मन उदास है? देखने कों मन कर रहा है बबलुआ कों??” सर हिला कर हामी भर दी. “जा कल हम तोहरा कम्पुटर से दिखाए देंगे..सबेरे घर आवेंगे. नाश्ता भी तोहरे हाथ का करेगे. चल भाग रोना बंद कर...” सुन कर लजवंती इतनी खुश हुई जैसे, बबलुआ घर पहुँचने वाला हों अभी का अभी. गाँव देहात में कहाँ इन्टरनेट, बिजली हईये नहीं है. मोबाइल पर चेक किये तों बैलेंस कम था तों मूनवा का फटफटिया उठाये और निकल पड़े Vodafone से बैलेंस खरीदने.
अगले दिन तडके उठे , मोबाइल और कम्पुटर उठा कर चले गए. नाश्ता तों लजवंती के यहाँ करना था. घर पहुंचे तों देख कर दंग. लजवंती सबेरे-सबेरे उठ कर, झाड़ू लगा कर घर साफ़ कर चुकी है, गोबर से अंगना लिप कर साफ़ कर दी है, और नहा धो कर चूल्हे में फूंक मार रही है. गिरधारी चाचा आज सबेरे सबेरे कुंआ के पानी से नहा धो कर, कलफ लगा कुरता पहन कर छत पर घूम रहे हैं. माजरा समझ आया सब तैयारी में हैं बबलुवा कों देखने के लिए, बतियाने के लिए. कंधे से उतार कर लैपटॉप बैग से निकाल कर लजवंती कों रखने दे दिया. लजवंती ने टुटा पड़ा टेबल भी धो साफ़ कर तैयार रखा था. उसी पर सजा कर सलीके से रख दी.
जमीन पर आसन पत्तल बिछा कर बड़े प्यार से सत्तू की रोटी, घर में बनी घी में लपेटी, टमाटर-बैगन का भरता, आलू का चोखा, आम का आचार (सारे मूलतः बिहारी व्यंजन है) परोसा लजवंती ने. खा कर उठा तों देखा की कमली चाची लैपटॉप के आस-पास फूल सजा पास में बैठी है. अगरबत्ती भी लगा ली..कहीं पूजा तों नहीं करने लगी? पर उनके लिए पूजनीय ही था. बड़े-बड़े आंसू बहा रही है, बबलुवा कों जो आज देखेंगी. देखते ही मुझे आंसू पोछते, रुंधे गले से पूछी “बबुआ ठीक बाडे नु, दुबराईल नईखन नु”. दुनिया के सभी माँओ का यही सवाल रहता कि बेटा दुबला तों नहीं हों गया. “हं- हं ओहिजा खाना कहा मिलता है ..तुमहो बात करती हों” चाचा ने अपना ज्ञान का सहारा लिया और मर्दों वाली सेखी बिखेर, फिकरा सुनाया.आज चाचा के तों हाल ऐसे थे कि सीना मानो कलफ लगे सफ़ेद कुर्ते कों फाड कर बाहर आ जाये. सबेरे से सब कों सुना आये हैं...बिदेश से बेटा आज बात करेगा भिडियो पे. फुलवंती दिदिया, गौरी भौजी, रानी दिदिया भी आ गयी है, पास के गाँव में ही ससुराल है. अडोस पड़ोस के लोगों ने बच्चों कों काम पर लगा दिया है भईया कही टिभी पर दिखे तों खबर दे जाना. अब गाँव का बेटा हर घर का ही तों होता है.
राम ने जैसे ब्रह्मा अस्त्र निकाला था, उसी राम सा हमने कुर्ते से मोबाईल निकाली और लैपटॉप पर लगा डाला. सब ऐसे देख रहे थे कि कितना बड़ा काम हों रहा था. नज़र पीछे की तों देखा पीछे चादर बिछा कर चाची, चाचा, दिदिया, पड़ोस के बन्दर बच्चों की टोली और मोटी ताजी गुन्वंती चाची और ना जाने कौन कौन सब आ गए थे ...बेट्वा से बात करने ..लैपटॉप से yahoo messenger लगा के video chat par online हुआ तों बबलुवा ओंलाइन था, मौजूद था..लैपटॉप पर बबलूवा का फोटो आते ही बच्चों ने जोड़ की ताली बजायी, चाचा का सीना फूल आया, चाची साडी के आँचल से आंसु पोछ-पोछ कर रोने लगी, लजवंती का बेटा एकटुक घूरे जा रहा था. पिता कों कहाँ देखा था कभी. आज चाचा के आँखों में आंसू भर आये थे बच बचा के उन्हें रोक रखा था. लजवंती? लजवंती कहाँ गयी, देखा पास के कमरे के परदे से छिप कर उन्हें देख रही थी...लाज आ रही थी. हम कहे “अरे इहवा आव काहे छुपी हों” सर हिला कर समझा दिया हमे सकुचाते हुए सास ससुर के सामने उनसे कैसे बातें करे. और उनके सामने इतने बरस बाद कैसे आये. एकटुक उसे देखता रहा, सोचता रहा कि कितने साधारण से लोग आज भी है दुनिया में. उनसे मिलने की जोश भी क्या जोश थी, हरे रंग की जगमगाती साडी, आँखों में काजल, सर पे आँचल, हरी हरी चुडिया, लिपिस्टिक से होठ लाल..अभी तों वो काम से उठी थी और इतना जल्दी सज कैसे ली. सब लोगों ने एक एक कर बात किया, काफी देर बात हुई. चाची कों इशारा किया तों लजवंती के लिए सब कों घर से बाहर करवा दिया हम भी निकल आये. जेठ के सामने थोडा तों शरमाना बनता है .निकले तों लजवंती ने पीया से मुलाकात की...काफी देर बात हुई. बबलुवा से पता चला कि बहुत रोई थी लजवंती..वो भी रों पड़ा था बेटा कों देख कर. कितना बड़ा हों गया था. तीन बरस हों गए थे, पास के घर के फोन से बात तों हों जाती पर अपने परिवार कों देख पाना कितना शुकुन दे जाता है. बात खत्म हुई तों चाची दलही पूरी और खीर बनाने निकल पड़ी (दाल भरा हुआ पुरी और खीर तब बनती है जब कोई अपना खास कर बेटी घर आती है), लजवंती बेटे कों सीने से लगाये उसे सुलाने के बहाने आँसुवों कि लड़ी सजाने लगी, बन्दर छोरे गाँव में खबर देने निकाल पड़े, चाचा ने तों आज कसम खायी थी कलफ लगे कुर्ते कों सीने के जोड़ से फाड़ देने की, जो मिलता उन्हें बताते...
छोटी सी एक मोबाइल, एक इन्टरनेट, एक लैपटॉप कितनी खुशी दे गयी... शायद भगवान राम बनवास से लौटे हों और खुशिया जग भर में. हम हाथ में स्मार्ट फोन पर कितना भी खेल जाए आज भी एक दुनिया है जो हम लोगों से कहीं बहुत दूर, साधारण लोग, साधारण सोच और उससे भी साधारण उनकी खुशिया.... उन्ही साधारण लोगों में छिपे हमारे अपने...कैसे भूल पावुंगा कभी कि एक VODAFONE की SIM, एक इन्टरनेट, एक मोबाइल कितनी खुशिया सजा जाते है...
7may12
आपकी मार्मिक पोस्ट पढ़ कर जी भर आया !
ReplyDeleteBeautiful post-the whole picture comes alive before my eyes...i do hope you win this award.
ReplyDeleteअति उत्तम, श्रेष्ठ पोस्ट लगा मुझे इस कांटेस्ट के लिए. चौपाल से दुबई तक की ये कहानी और अपनों की बातें मुझे भी अपने गांव की याद दिला दी!
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी रचना है, सच ही है आज हम बाहर रहकर मोबाइल फोन और इन्टरनेट को कुछ खास महत्व नहीं देते क्यूंकि यह हमारे लिए रोज़ कि ज़िंदगी से जुड़ी एक आम बात है मगर यही चीज़ आज भी उस सादा मगर बेहद खास दुनिया के लिए किसी राम बाण से कम नहीं। समय मिले आपको तो कभी आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/
ReplyDeleteप्रतिभा जी शुक्रिया... आपके बारे आपके ब्लॉग से जानकरी हासिल हुई..आपका यहाँ कमेंट्स दे जाना मेरे लिए बहुत बड़ी बात है... दिल गदगद हों उठा..यूं ही कुछ कह जाया करेंगी तों नौसिखिए कों हौसला बढ़ेगा ..शुक्रिया
ReplyDeleteइंदु जी और जनक जी... गाँव की छवि कभी हटती ही नहीं मेरे दिमाग से.. कभी भी कहने की कोशिश करता हूँ तों उंगलियां नहीं रूकती...बस लिखते जाती है...मेरे प्रयास कों पसंद करने के लिए शुक्रिया..