जगी मैं कुछ अलसाई सी
सिलवटों की चादर में
सिमटी मैं अलसाई सी
बिखरे बावरी अंगडाई में
टूटी मैं, टुटा मोरा अंग अंग
क्यूँ हुआ है बावरा ये मन
क्यूँ पगलाया ये अंग अंग
सूने सूने इस छण में,
छनकी पायल छन-छन
क्यूँ बावरी हुई हैं बूंदे
करती हैं ये क्यूँ छन छन
खनकी मेरी कांच की चूड़ी
करती हर पल खन-खन
क्यूँ उभरी है ये मेहंदी
बजती उनपर चूड़ी छन-छन
मिलन दूर है अभी और है
पिया मिलन कों और देर हैं
हुई बावरी है यूं अंग अंग
क्यूँ सजी हूँ, मिलन सजी हूँ
बावरा-बावरा मन हुआ है
थिरका ठरका मोरा हर अंग.
कब आवोगे सैयां मोरा
कब सजावोगे हर अंग मोरा.. कब आवोगे सैयां मोरा
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.