Jul 1, 2012

एक अकेला..

चौपाल पर आज सुबह सुबह तडके आया तों, देखा बच्चों ने पास की दीवार कों, जो कल ही कलुआ की मेहरारू (यानी बीवी भई) गोबर सान कर लीप गयी थी, उस पर अपनी चित्रकारी सजा दी थी. अच्छा खासा दिवार पर हुई मेहनत कों बच्चों ने खेल डाला था. कहीं पांच पंखुड़ी वाले फूल बने थे तों कहीं हसते हुए चेहरे. पर शायद एक बच्चा अनोखा सा था, दीवार के एक कोने पर कुछ संख्या बना गया था. ददुआ चाचा मिले थे तों उनकी नज़र भी वहीँ पड़ी थी, बोले “देख आशु, एक और लम्बर से खेले वाला गाँव में पैदा हुआ है” जोर जोर से हँसने लगे. "लगता है ससुरा धीरू भई अम्बानी बनेगा.” जोर जोर से हँसते हुए चाय का खाली ग्लास उठा ले गए थे. ध्यान से हम देखे तों काफी कोशिश किया था बचवा ने नम्बर लिखने के लिए. थोड़ी देर आँखें रुकी तों देखा कि हर बार उसने बाकी नंबरों से ज्यादा खूबसूरत “एक” नंबर बनायीं थी. बुरा भी नहीं लग रहा था चौपाल के पास का दीवार. हाँ, थोड़े देर में गर कलुआ की मेहरारू निकल के देखेगी तों आग बावला हों जायेगी..आज तों बच्चों की खैर नहीं. हाँ, हर बार वो अपने झोपडिया पास के इस दीवार कों लेपती, हर बार बचवा सब आ कर कलाकृति सजा जाते.

अब देखिये ना बचवा का खींचा खीची हमे किस उधेड़ बुन मैं डाल गयी. या यूं कहिये की नंबरों के साथ एक अलग ही रिश्ता था हमारा. नंबर  दिखी नहीं की उनमें रिश्ते बनाने लगता. जैसे, पहले नंबर कों चोथे से जोड़ कर, तीसरे नंबर से भाग दे तों दूसरा नंबर मिल जाएगा. बड़ा प्यारा सा ये आदत हमे बचपन से ही थी. आदत से लाचार खेलने लगा दीवार पर बनी संख्यावों से. पर आज मन भाग रहा था, बार-बार एक नंबर पर आ कर अटक जाता. कई भाषावों में हमने अंको कों लिखा देखा है. पर, अधिकतर भाषावों में पहला अक्षर हिंदी के अंक जैसे ही लिखे जाते हैं.- १, कभी देखा इस अंक कों आपने? देखा होगा तों पाया होगा कि हर भाषा में पहला अंक एक सीधी लाइन की तरह होती है. ध्यान से देखिये. ये अकेला सा खड़ा रहता हैं, ऐसे जैसे कितनी गुरूर पाल रखी है इसने. अकडा सा सीधा, एक दम तन कर खड़ा हुआ. लिखने लगिये तों बिना कलम उठाये एक ही झटके में लिख जाए. लिखते वक्त ऐसा लगेगा कितना सीधा साधा सा है, कहाँ है गुरूर, कहाँ है इसकी घमंड. छोटा सा अंक, छोटी इसकी सक्शियत, पर इसकी कीमत अनमोल. कोई भी स्पर्धा हों तों इसे पाने के लिए खून पसीना निकाल लेते हैं लोग. हिंदी के इस चिठ्ठे के टाइपिंग कों यदि देखेंगे तों इसकी सारी शख्सियत साफ़ झलक आती है देखिये “ १ ”  बिना किसी सहारे के कैसे खड़ा है, सर झुकाए, घुटने मोडे. हैं ना मनमोहक रूप. पर सच पूछीये तों बड़ा ही अकेला सा दीखता हैं ये, ना कोई साथी ना कोई सहारा, हर पल अकेला. बोल सकते तों वो भी चिल्ला उठता कि हमे यूं ना लिखा करे, अकेले खड़ा खड़ा थक गया हूँ.  पर जिंदगी के इस रेले में बड़ा अदना सा है ये. जिंदगी के राह पर चलने वाले लोगों के सपने इसे पाने के लिए तड़प उठते हैं, जब मिल गया तों फिर और, फिर और और कोई सीमा नहीं रह जाती. अपने भी तों कई बार सोचा ही होगा कि एक सपना मेरा पूरा हों जाए तों और कुछ नहीं चाहिये. सपना पूर्ण हुआ तों एक और नया सपना..हैं ना इसकी ताकत कहीं ना कहीं...अब छोडिये सारे कलयुग कि बातें. ईश्वर भी रचित हुए तों सिर्फ एक ही.लीजिए अब मैं शुरू हुआ तों बंद ही नहीं हों रहा. आप भी कहेंगे आशु भई आप तों एक लम्बर से फ़िदा हुए जा रहे हैं.

हाँ, सच पूछिए तों आज अपने आप कों ऐसा ही पा रहा हूँ. सर झुकाए, खड़ा तों हूँ पर अकेले अकेले. आधी जिंदगी से ऊपर का रास्ता नाप चूका हूँ, वैतरणी नदी कि सफर मैं “शायद” अभी सालों बाकी है. अंकों के मेले में जैसे एक नंबर अकेला है, जिंदगी के इस रेले में मैं आज खुद कों ऐसा ही पा रहा हूँ. माँ, भाई बहन सब साथ ही हैं, पर हर कोई अपनी सफर करने में व्यस्त है. रिश्ते नाते जो बने, जो जीए मैंने, हर कोई एक इन्सान सा अपने आप के सफर में व्यस्त. सब दौड रहे हैं अपनी अपनी इच्छाओं के लोभ में. कोई किसी के लिए आज रुकता नहीं, हाँ गर आप दौड कर आगे निकल आओ तों आपके साथ चलने कों हर कोई तैयार. हाँ साथ ना भी दे, तों भी साथ होने का आभास दे ही जायेंगे. इतने वर्षों के दौड प्रतियोगिता में इतना जरूर समझ गया कि बस भागना है, आगे या पीछे कहीं भी रहे. अपने ही तरह के एक और साथी कि तलाश में आज वर्षों बीत गए. कुछ लोग मिले, कुछ पल साथ दिए और चल दिए, कोई अपने सपनों के पीछे कोई, कोई अपने स्वार्थ के पीछे, और गिने गुने कुछ अपने लंबे जिंदगी के सफर कों तय करने के लिए नया हमराही चुनने. इस भागती तपती जीवन राह जो बहुत लंबी है, बिन हमराही के शायद तय भी ना हों. कई लोग हैं हमारे संग भी इस मेले में, पर कोई दूर, तों कोई बगल के पगडंडियों में चलता. साथ नहीं चलना चाहते हमारे. आज छांव सी ठंडक, जल सी निर्मल एक बार फिर हमे छोडे जा रहे है.... और सर झुकाए, बिन सहारे के “एक” की तरह मैं स्वीकार कर रहा हूँ, अपने पैरों में पड़ी बंदिशों कों एक टुक निहारते हुए ...एक की तरह..नी:शब्द.... नी:स्वार्थ भाव से .....रोक नहीं सकता, जहाँ रहो, खुश रहो....कभी चाहो पलट कर देखना, तों हर अंक की तरह मैं भी एक सा तुम में ही मिलूँगा......  

१/७/१२

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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
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