चारदीवारी के तंग दामन में
खुरचा,
नोचा,
चिल्लाया
रक्त रंजित हुआ
पर
अधियारे के घुप आँचल से
खुद कों रिहा
ना कर पाया मैं
सहसा,
शायद,
कोई एक
सुबह थी
सन्नाटे के घोर अँधेरे में
लौ एक अंदर
आ फूटी थी
भरी आँख से
भीगे मन से
जर्जर
रुखे-भूखे तन से
लौ कों हमने
इक बार छुआ था
कोमल शांत
लौ की लौ से
रुखे तन पर
जीवन रस से
स्नान हुआ