Nov 16, 2014

बचपन, एक ज़िद...

Credits..
दो-तीन  दिन पहले ही गुज़रा था बाल दिवस. रेडिओ टीवी सभी जगह बाल दिवस का शोर था. घर से बाहर निकला तो बच्चों का शोर कहीं नहीं था , न ही कोई रेला दिखा. पास के घर के शीशे की खिड़की पर नज़र पड़ी तो, ए.सी घर में रह रहा मयंक, मोटी ऐनक पहने, किताबो में नज़र गडाए, जोड़-जोड़ से पढ़ रहा था, पास बैठे मास्टर जी, (उप्प्स, ट्यूशन मास्टर कहिये) मयंक की रट्टा सुन रहे थे. बाल दिवस पर दिखा ये दृश्य  मजबूर कर गया, इन मासूम बच्चों की खोती हुई बचपन पर सोचने को  और मन कर गया टटोल कर अपनी बचपन खीच लाने की... कुछ शब्द...बचपन को निहारने की...

आज का बचपन.......

बचपन, एक ज़िद,
घंटों टीवी के सामने बैठ,
सीरियल देखने की

बचपन, एक ज़िद,
सोफे पे बैठ,
घंटों विडियो गेम खेलने की

बचपन, एक ज़िद,
परीक्षा की तैआरियों को
टालते रहने की

बचपन, एक ज़िद,
लड़ के आने पर
माँ को अपनी बात समझाने की

बचपन, एक ज़िद,
रो कर,
अपनी बातें मनवाने की

बचपन, एक ज़िद,
क्रिकेट के टीम में बाबा के लिए
अव्वल होने की

बचपन, एक ज़िद
किताबों में घुस, बाबा के लिए  
अव्वल नंबर लाने की

बचपन, एक ज़िद,
रो धो के, औरों के लिए  
अव्वल नम्बर लाने की

कई बार आज की बचपन हमे धकेल कर अपनी बचपन तक घसीट ले जाती है और इनकी बचपन में अपनी बचपन को ठंडी साँसों में सुस्ताते पाया है ...अपनी बचपन भी कुछ अल्लहड़पंती में गुजरी..

बचपन अपनी, मस्ती से  
जेठ दुपहरी में
टूटे साइकिल से
गाँव भर घुमने की  

बचपन अपनी, मस्ती से
बारिश में भीग 
कीचड़ से सने
फ़ुटबाल खेलने को

बचपन अपनी, मस्ती से
दोस्तों के संग
कपडे के गुफा में घुस
चोर सिपाही खेलने की

बचपन अपनी, मस्ती से
शाम को, मोहल्ले में
गिल्ली डंडा खेलने की
और गिल्ली पर ट्रिपल हिट लगाने की

बचपन अपनी, मस्ती से
ठंडी  दुपहरी में
कंचे से कंचे को मार
शोर से मोहल्ले को जगाने की

बचपन अपनी, मस्ती से
कलुआ कुत्ते के पूंछ से,
खाली टिन के डब्बे बाँध
बच्चों की ट्रेन बनाने की

बचपन अपनी, मस्ती से
कांच के बुरादे से
मांझा सूत पर लगा,
गर्मी में पतंग उड़ाने की और,

बचपन अपनी, मस्ती से
कटी पतंग को लुटने  
शोर मचा कर बच्चों संग
मोहल्ले दर मोहल्ले भागने की

बचपन अपनी, मस्ती से
स्टापू के पत्थरों को तोड़
फिर से जोड़ने के लिए
बाल से मार खाने में

बचपन अपनी, मस्ती से,
दीदी का घरोंदा बनाना,
गुड़ियों को व्याहना और,
हमारा उन्हें तोड़ने में

बचपन अपनी,
कितनी सरल
कितनी स्वछंद
कितनी अल्लहड़पन से भरा

आज,
इनका बचपन
कितना अस्वाभाविक
कटना जटिल
कितने बंधनों से बंधा
बचपन के गोद में बैठे हैं यूँ
जैसे मशीन से बंधे हैं वो


क्यूँ नहीं कर सकते हम अपनी शिक्षा व्यवस्था में सुधार, क्यूँ नहीं हम आज के बचपन को अपने बचपन सा स्वछंद नहीं कर सकते.... क्यूँ पैदा होते ही बचपन का गला हम रेत देते हैं...दुनिया का हवाला दे कर...
स्वछंद करे हम इनका बचपन.... मासूम सी बचपन को मासूमियत से ही सीचें, अपने अरमानों से नहीं.......


1 comment:

लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.