नींद खुली तो देखा हर रोज़ की तरह सूरज की लालिमा चुपके से खिडकियों से झांकती पास के दिवार को इंगित कर रही थी. अलसाया से मैं उठा और निकल पड़ा अपनी दिनचर्या पर. दो चार चक्कर बागीचे में, और फिर थोड़ी पहलवानों सा दंड पेल आ गया था मैं अपने सबसे पसंदीदा जगह पर.. अरे भाई वही चौपाल पर. आज कोई नहीं आये थे. न तो बंगाली बाबु न ही मद्रासी, मिनी जी का तो कोई आता पता ही नहीं था. बस वहीँ बैठ सूरज के किरणों से दो चार नैन मटकके हुए. अपने मन ही मैं कई बातें जमे पड़े थे जो उथल पुथल रहे थे. यूँ ही बैठा था की दूर से मिट्ठू बाबु आते दिखे. चाल पर बड़ी तेज़ी थी शायद खुश थे. बड़े ही साधारण सा व्यक्तित्व था उनका जो दिल मैं आता वो चेहरे पर झलक आती. आते ही बोल पड़े क्या "आशु बाबु, केमोन आछेन." हमने कहा "बस यूँ ही. क्या बात है आप बड़े खुश हैं आज. मिजाज़ में लग रहे हैं. " कहने लगे, " मत पूछिये, सबेरे सबेरे आपकी बोउ दी ने हमे खुश कर डाला. उन्हें पता चला कहीं से कि अँगरेज़ लोग आज कल HUGGING DAY मनाते हैं.
जनवरी के महीने में. अब हमे तो अंग्रेजी सभ्यता का तो ज्ञान नहीं था सो हम मन नहीं पाए. सो बोउ दी आज सबेरे सबेरे चाय पिलाने के बाद बस हमसे चिपक गयी. HUG कर के हमे "HAPPY BELATED HUGGING DAY" कहा. अब अनायास ही कोई यदि ये सब कर जाए तो कितनी ख़ुशी होती है. आज तो बोउ दी ने दिन बना दिया...." एक ही सांस में कहते गए बिना रुके. बडे खुश थे. फिर दो चार pal यहाँ वहां की सुना कर निकल पडे... शायद आज वो भी कुछ करने के मूड में थे बोउ दी के लिए..... बस निकल पड़े......
में भी मुस्कुराता लग गया अपनी उधेड़ बुन में ....सोचने की नयी ले मिल गयी थी. कितनी खुशी देती है अँगरेज़ वाली HUGGING . यूँ पूछिये तो बात में दम भी है. अरे दम न होती तो मुन्ना भाई की जादू की झप्पी इतनी लोकप्रिय कैसे हो जाती. इंजीनियरिंग पढाई करने वालों की ज़िन्दगी में बहुत बड़ी कीड़ा पलती है. बात मिली नहीं की लग जाओ बाल की खाल धुंडने में.. अब हम भी तो वैसे ही है न... लग गए झप्पी की झांप निकालने. अब देखिये झप्पी तो जन्म से जनमती है. पैदा ही नहीं की बस झप्पियों की बुहार. खुश ही तो मिले, रोये तो मिले, अच्छा काम किया तो मिली, जिसे देखो झप्पिया दे जाता. तो लाजिम है की झप्पियों से प्यार हो ही जाएगा. अफ़सोस तो यही होता है ये बरसात धीरे धीरे उम्र के साथ कम होने लगती है.
इन्ही झप्पियों में सबसे प्यारी झप्पी जो हम कभी भूल नहीं पाते, जिनमे छुपे रहने का मन कभी खत्म ही नहीं होता, जो हर pal गर्मी ही लाता, वो था माँ की झप्पी. जो जन्म से मरण तक जब तक हो, मिलती ही रहती है. जब तक साथ हैं, तब तक ममता के इन बाँहों का एहसास रहता है; जब न रहे तब भी अप्रत्यक्ष सा हमे थामे रखता है. ममता का शायद कोई अंत, हमे नहीं दिया ऊपर बैठे उन "साहब" ने. जब भी ज़िन्दगी के थपेड़े हमे नोच खाती, पटक कर अपने परीक्षाओं मे हमे हरा जाती, दुर्बल बना किसी निर्जन से पल मैं बिठा जाती, तब अनायास से न जाने कहाँ से मजबूत बाहें आ कर थाम जाती. फिर उँगलियों को थाम, हमे उनसे जीता जाती. पिता के उन बाँहों की मजबुतिया कहाँ किसी मे ढूंड सकते हैं कहीं.
जीवन डगर मैं बढ़ते बढ़ते कब कितने बाहें हमे साथ दे जाती है, कभी भाई के रूप में, कभी बहन के,कभी दोस्तों के रूप में, कभी सखाओं के रूप मे. अनगिनत से बाहें ज़िन्दगी में आती है, हमे संभालती है, दुलारती हैं. इतना कि ज़िन्दगी के इस वर्षों भरी लम्बी डगर कब उछाले मार क़दमों तले निकल जाती है, शायद हम उनकी ओट भी नहीं ले पाते. ज़िन्दगी के क्रूर इस डगर मे हमे भी अनायास सी दो बाहें मिली...
ममता से भरी, स्नेह से ओत प्रोत, आशाओं को धापे, ज़िन्दगी सेड भरपूर, हंसी की थत्ते भरी दो बाहें जिनकी छाप आज भी मन से नहीं जाती हैं . पल दो पल का साथ ही सही, पर जीवन के एक अनमोल भेंट के रूप मे आई थी. जब भी दिल उदास हो जाता है, उन बाँहों का एहसास एक बार फिर जीवित कर जाती है. कद से कई गुना बड़े पेड़ के छावों मे सजी उन बाँहों में, सब कुछ भुला अपने आप को विलीन कर खो जाना, आँखों के कोने से उन्हें देखना, उँगलियों का जुल्फों में खेलना, सब कुछ एक सौगात सी थी. प्रेमिका के रूप में, तो कभी एक सखा के रूप में, वे बाहें कितनी एहसासों भरी थी. जब भी कोई उदास होगा जब कोई हताश होगा, ममता भरी वे बाहें, एक सौगात दे जायेंगी.
कभी कभी सोचता हूँ:
कभी कभी दिल मे
ख्याल आता है.
तू नहीं है पास पर
तेरी बाँहों का एहसास है
पल भर के जीए
उन हसीं लम्हों का
एहसास आज भी है..
तू नहीं है पास
पर तेरी साँसों का
मेरी सांसों को
गर्म कर जाने का
एहसास आज भी है
कभी कभी दिल मे
ख्याल आता है..
उँगलियों को तेरी
जुल्फों में फस कर
अटक जाने का
एहसास आज भी है
सोचता है मन कभी कभी
की काश तुम कहीं पास होती
कहीं आस पास होती...
तुम्हारी बाँहों का एहसास
ज़िन्दगी को एक बार फिर
सपनों से सजा जाती...
बैठा में चौपाल पे सोचता रहा, खोये इन झ्प्पियों को ढूढता रहा. सोचता हूँ आज सूरज की बढती ताप में ऊँघता -----
"क्यूँ नहीं है ज़िन्दगी
पेंसिल सी लिखी
शब्दों की चादर जैसी,
कुछ पल हम मिटा सकते,
कुछ पल हम फिर सजा सकते
नहीं निराश मैं
नहीं हताश मैं
जीवन के
इस उठा पटक से
पहियों सी इसकी चक्र मैं
आज कुछ पल आसमां पे हैं
तो कभी पातळ पे.
क्या पता
फिर कभी सजा जाये
तोहफे में एक बार
उन खोयी बाँहों को सजा जाए...
नहीं हुआ हूँ हताश मैं
नहीं हूँगा कभी हताश मैं...."
आज के लिए बस इतना ही, उठू अब.. दिन के ताने बाने का बुनना भी शुरू होना है. कई दिनों से तकियों की झप्पियाँ भी ढून्ढ रहा था ओ गूम हो गयी हैं कहीं. तकियों की झप्पियाँ? खैर फिर किसी दिन इनका खुलासा किया जाएगा..
साहब का दिया हुआ है सब कुछ...अपने ऊपर बैठे "साहब" (GOD) का दिया सर आँखों पे ....क्या दिया क्या लिया उन्होने सब के लिए हमारा सलाम ....
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.