Aug 5, 2011

क्यूँ मैं शब्दों से खेलता हूँ ?

पूछते हैं लोग आज कल
शब्दों से इस नए रिश्ते को
पूछते है अब वो आज कल ..
क्यूँ मैं शब्दों से खेलता हूँ ?
शब्दों से सुर क्यूँ रचता हूँ ?
दिल में कहीं प्यार तों नहीं?
प्रेम रस  में, कही
मैं लिप्त तों नहीं?
बगल झांक झाँक कर
आज वो कारण ढूँढ़ते हैं..
शक से हमसे वो
कई सवाल पूछते हैं
ऊँची निगाहों में
हमे देखते है
शब्दों में हम क्या रचते हैं ? क्यूँ रचते हैं?

शब्दों से हमने जब कहा
प्रश्न जब उनके उसे कहा
हँस के वो लोट पड़ी..
हँस हंस कर वो  कह पड़ी  
उन्हें क्या बताना ?
उन्हें क्या समझाना ?
में तों बस तुमसे सजती हूँ
रिश्ता तों हमारा वर्षों का हैं,,
आज सजती हूँ तों क्या सजती हूँ

उन्हें क्या समझाना उन्हें क्यूँ जतलाना
जब उनके वान से ही
मन तेरा पीड़ित हुआ
आज तू घायल हुआ
उनके जख्म से तू नासूर हुआ
छिपे दिल के
तेरे नासूर से मैं
खूब सजती हूँ
प्राण रचित हो
दिल से निकलती  हूँ
उदासियों मे  रंग भर
मैं खुद से सजती हूँ..
उन्हें क्यूँ जवाब दोगे आज ?
क्यूँ जवाब तूम दोगे अब आज .,...?
की क्यूँ मैं तुम से सजती हूँ

न रोक अपने ख्यालों को
ना रोक अपने आपको
सजा मुझे अपनेपन मैं
ढाल तू अपने सुर मैं .....
सजा तू अपने शब्द को
बस सजा तू अपने शब्द मैं ..............................

1 comment:

  1. बहुत खूब लिखा है,,बहुत गहरायी है शब्दों में ...
    जब लेखक अपने शब्दों की व्याख्या करता है ओरों के पास तो उसकी सजावट किसी को समझ नहीं अति..ये देख लेखक दुःखी हो
    जाता है तो शब्द कहती है में तो तुमसे सजती हूँ..तू ही है जो मुझे सजाता है तो कुन आश्रित है जवाब के लिए....
    की में कैसी सजती हूँ.......!!!!!!

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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.