Jan 5, 2012

टूटे से कई मंजील


कभी कलकाता के सड़कों पर गलियों के पुरानेमकानों के ऊपर आपने गौर किया है? कभी एक ज़माने की हुस्न मकानों मैं गिने जाने वाले माकन आज जर्जर हो पड़े है ... कभी ये मकान बोल सकते तो ऐसा ही सुनाई पड़ता.... 







टूटे से कई मंजील

स्याह सी रात में
शायद बहुत ही
दिनों पहले की बात हो..
गलियों मैं टहलते जा रहा था
अँधेरी सुनसान सी
अमावश की रात
अपनी तन्हाईयो के साथ
अंतर्द्वंद मैं खोया
लावारिश पत्थरों को
बिखेरता चला जा रहा था


अचानक अंधेरे कोने से
सिसकती आवाज़ ने
अंतर्द्वंद को तोडा
तन्हाईयो को छोड़ा
लावारिश पत्थरों को
शांत किया.

सुना फिर से
सुबक रही थी कोई...
रुका और सुन ने लगा
सिसकती हुई धक्द्कों को
रुदाली की रुदन को

सुना फिर,
हाँ कोई रो रही थी
तन्हाईयो को तोडती
वीरानो को तोडती...
सिसक रही थी.

पूछा जब मैने,
तो आवाज़ आई
मैं हूँ,
कई सदियों से खड़ी  हूँ
मौसम के थपेड़ों को सहे
इन के लिए आज भी खड़ी  हूँ।


दुल्हन बनी थी मैं, उस रोज़
जब इन से हमारी
पहली मिलन की रात थी
कितनी खुशिया थी
कितनी हंसी थी उस रात.


मिल कर हमनें
कितनी खुशियाँ हैं बाटी
वक़्त के थपेड़ों को झेल
हमने इन्हे कई
सुकूनों भरी रातें दी...

जीवन के रंगों को सजाया
जन्म के हर रीत को हमने गोद मैं समेटा
कभी ख़ुशी तो कभी गम
हर वक़्त हमने इनका साथ दिया

आज, अरसों बीत गए
जन्म बदलते गए
हम प्रेयशी सा उन्हे चाहते रहे.
पर, आज जब सदियों बाद
मैं जर्जर हो पड़ी हूँ
थकी तो नहीं पर टूट चूँकि हूँ.

देखो न अब
आज मेरे ही गोद मे
खेले ये लोग
हमसे घबडाते हैं,
हमारे जर्जर होने का
मजाक उड़ाते हैं
पास आने से भी
कतराते हैं
अब रुदाली सा
रुदन सुन भी
कोई पास नहीं आते हैं...


मैं टूट चुकी हूँ
अब तो बस एक चाह है
मिटटी से बनी
मिट्टी मैं ही
पूर्ण मिलन की चाह चुकी है...
व्यथा सुनाती रही,
सिसकती रही

व्यथा सुन रो पडे हम
आन्सूवों को संभाले
तन्हाईयो को समेटे
लावारिस पत्थरों को
बिन हिलाए
निकल पडे हम
सिसकता उन्हे छोड़ कर


क्या करते हम
जीन पत्थरों से
बनी थी वो कई मंजीलें
अब जर्जर हो चली थी
बंधी हुई रेत अब
बिखर चुकी थी
मंजिलों से लदी वो मकान
अब टूट चुकी थी


गिर न जाए वो किसी पर
उनपर खतरे की
ख़त चिपक चुकी थी
"सावधान!!! कमज़ोर हैं"

टूटे से कई मंजील
अब जर्जर हो चुकी हैं
टूटे से अब ये मंजीलें
city o joy की
सिर्फ पहचान बन चुकी हैं....

टूटे से कई मंजीलें अब बेजान हो चली हैं.....


१२/१/२०१०


3 comments:

  1. apki kavita man ko chhoo gayi...yon hi likhte rahiye

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  2. ashu,

    aap bahut acha likhte ho....yeh kavita padkar school ki hindi ki kitaabon ki kavitaayein yaad aa gayi ...

    regards
    rahul

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  3. shukriya ana jee....

    shukriya rahul jee...par ek sawal hai..school ke dinon main padhi kavitayain upar se guzar jaya karti thi... un dinon humey to kabhi ras nahi mila kavitawon main .khelne main dhyan kuch jyada hi lagaya tha... kahin aap waise hi to nahi mean kar rahe ki..sab kuch upar se nikal gayi...haha.... thanks anyways....haan gar mere upar likhe vichar galat hain... to tahe dil se aapka shukriya... apne humey bahut upar bitha diya ..humari level waisi nahi hai... bhai...

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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
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