जमी हुई धुल को फूंक कर डायरी के कवर को साफ़ कर एक बारगी देखा तो माया डर गयी. न जाने कितने
बरस हो गए थे. कुछ पन्नों को मोड़ के हासिये में सी दिया था. कभी पन्नों के किसी और के पढ़ जाने के डर से तो कभी उन लम्हों को मिटा जाने के लक्ष्य से, डायरी के कई पन्ने उसने खुद ही फाड़ डाले थे. डायरी का एक पन्ना जो हासिये से सिला था, हाथ फिरोया तो, सुखी शुष्क गुलाब के फूल का एहसास एक सिहरन दे गयी. जद्दोजहद में थी सीले इस पन्ने को हासिये से हटाया तो, पुराने कई दबे अरमान निकल आयेंगे. हिम्मत कर हटाया तो दिखा, शुष्क वो गुलाब की फुल उसके अरमानों की तरह सुख चुकी थी. पीली पड़ी पन्नों पर उसने लिखा था,
“बाँहों को बाँहों से
नैनों को नैनों से
सांसों को सांसों से
लबों को लबों से
तन को तन से
प्रेम को प्रेम से
सजने-सजाने के अरमान संजोती रही
सही-गलत का वास्ता दिखा
तुम मुझे इस फुल सी बहला गए....
....love this moment of togetherness today…
wish we could love and make this moment special one in our lives…. ”
माया ठहर गयी थी इस पन्ने पर. पन्ने पर गीले से कई बूंदें आज भी भीगी थी. बहुत रोई थी उस दिन. प्रणय के साथ बिताये पल एक एक पन्ने पर रुके हुए थे. बहुत खुश थी प्रणय के साथ. ज़िन्दगी के कई स्वर्णिम लम्हे साथ गुजारे थे. कहाँ पता था, एक दिन गुलाबों से भरी डायरी, बंद कमरे के ताख पर रख, गाय के बछड़े सी किसी और के खूटे से बाँध दी जाएगी. “काश.... कुछ पल जी लेती” माया बुदबुदाई....बंद डायरी को गोद में रख, भीगी आंखें बंद कर, आराम कुर्सी पर वो हिलने लगी. खट-खट की आवाज़ शायद समय को रिवाइंड कर रही थी.
न जाने कितने गुलाब के फुल यूँ ही डायरी के हासिये में बंद हो जाती होंगी. कितने एहसास खिलने से पहले ही बंद किताबों में दब जाती होंगी. जीवन के अनेकों लम्हे कभी मिट जाते हैं तो कभी मिटा दिए जाते हैं. कभी संस्कारों के नाम पर लम्हों का बलिदान, कभी समाज के नाम कुर्बानी. लम्हों को हम समय का प्रसाद समझ क्यूँ नहीं जी पाते. पूरी तरह जी जाने का नाम ही तो ज़िन्दगी है. प्रकृति की भेंट को हम स्वरचित नियमों से क्यूँ नकार जाते हैं? कई बार इस पर विचार किया था और हर बार नकारात्मक सा उत्तर ही मिलता. प्रकृति का गर कोई विरोध होता तो वो हमे भेंट ही क्यूँ करती. स्त्री-पुरुष की संरचना प्रकृति ने तो बहुत सोच समझ के किया होगा. माँ के गर्भ से निकलना, देह का नश्वर हो जाना, शरीर में आत्मा की संरचना, बालपन की अठखेलियाँ, यौवन का वेग, सब कुछ तो प्रकृति की अवतार ही तो है, प्रतिबिम्ब ही तो है हैं, तो फिर हमें उनके रूप का विरोध क्यूँ?
योग एवं वात्स्यायन के देश में प्रेम पर आप्त्ति : खुद पर शंका, खुद पर विरोध का आभास ही तो है. प्रेम के विशाल विषय को दो टुक में कह जाने की क्षुद्र प्रवृति आज के भागती दौड़ती ज़िन्दगी के चिन्हमात्र हैं. वात्स्यायन प्रेम के चिन्ह, कामसूत्र के कई अध्याय चुम्बन, आलिंगन, स्पर्श आदि की जगह पश्चिमी शब्द “सेक्स” ने ले लिया है. कई कलाओं से बधित इस कला को अब सिर्फ “स्खलन” से बाँध दिया गया है. “सेक्स” शब्द इतना शंकिर्ण है जैसे कुरेद कर मक्खन निकालना ही धेय्य मात्र रह गया हो. प्रकृति के नायाब अविष्कार, शरीर की तो कोई अब समझ भी नहीं रखता, चरम शिखर तक पहुच जाना ही धेय्य है. यौवन में शरीर का खिल उठना, हर अंग का संवेदनशील हो जाना, स्पर्श मात्र से शरीर का चहक उठना, एक भेंट ही तो है प्रकृति का. हर एक समय के लिए प्रकृति ने नियम बाँध रखी है, फिर यौवन के इस भेंट को स्वीकारने का विरोध क्यूँ?
आधुनिक समाज का परिवर्तन, दौड़ भाग की भौतिकवादी ज़िन्दगी आज हमें सिर्फ दौड़ना ही सिखाती हैं. इस भागमभाग में हम इन्सानों ने ना जाने कितने नियम बना लिए हैं, कि रुक कर दो पल जीना भी भूल गए हैं. हमने अपने आप को समाज में ढाल तो लिया, पर बदले में नियमों के झड़ी लगा ली. प्रेम करना भी अब नियमों में बंध गए. प्रेम का एहसास कभी समाज के ठेकेदारों से डर के, तो कभी किसी और के विरोध से डर कर खुद की मौत में मरने लगे हैं. अब ठेकेदारों का कहना है प्रेम सिर्फ विवाह के बंधन में बंधने का नाम रह सा गया है. विवाह से पूर्व और विवाह के अलावा प्रेम वर्जित है. ये ठेकेदारों ने जब नियम बनाये होंगे तो वो खुद जरूर या तो प्रेम से ओतप्रोत होंगे या वियुक्त. प्रेम में पड़ा इन्सान ऐसे नियम नहीं बनाता. हम ऐसे नियम नही मानते, प्रेम ईश्वर का वरदान है और प्रकृति की देन. ज़िन्दगी का क्या भरोसा आज हम हैं कल नहीं. फिर इस जीवन को क्यूँ न जीए?
आधुनिक भागमभाग में पहले शिक्षा की दौड़, फिर नौकरी की. नौकरी जब कुछ संभल जाए तो ही विवाह की बातें सम्भव हैं. इस दौड़ में ज़िन्दगी की दौड़ एक तिहाई तक तो दौड ही जाती है या यूँ कहिये जवानी आधी निकल ही जाती है. ठेकेदारों की बात सुने तो जीने को सिर्फ आधी जवानी ही रह जाती है. फिर समय की कमी. कहाँ हम जी पाते हैं कुछ भी पल. ज़िन्दगी की गणित में जवानी का तो कोई मोल ही नहीं रहा. लोगों का कहना माने तो विवाह से पूर्व प्रेम, वासना है, lust हैं. शकिर्ण दिमाग की शकिर्ण सोच. सिक्के के दो पहलु की भांति, जब आप प्रेम हैं तो सब सही, नहीं तो सभी गलत. ये तो देखने भर का नजरिया है कब प्रेम, प्रेम रहे कब वासना बन जाए. एक बार एक ठेकेदार ने कहा जवानी के जोश में प्रेम से लोग भटक जाते हैं. परिपक्वता नहीं रहती. बहुत हँसे थे हम. विवाह करते ही परिपक्वता कैसे जन्म ले लेती है कि सब कुछ उचित हो जाता है. विवाह महज एक बंधन का प्रतिक ही तो है. गर विवाह बंधन की गारंटी है, तो भागती इस ज़िन्दगी में ज़िन्दगी का ही कोई मोल नहीं, तो गारंटी किस बात की. विवाहित होना प्रेम करने की योग्यता कैसे हो गयी?
आज स्त्री हो या पुरुष, सभी पढ़े लिखे हैं. स्कूल, कॉलेज, मीडिया, टीवी, अखबार सभी ने अपने तरफ से योगदान कर आज के समाज को इतना ज्ञान दे चुके हैं कि स्कूल में भी पढ़ रहा बच्चा अपने जीवन की दिशा देखता है, कहाँ जाना है ढूँढता है. कॉलेज से पास हुआ नहीं की करोडो के व्यवसाय चलाता है, मंगल तक यान भेजने की क्षमता रखता है, बड़ी से बड़ी आविष्कार करने की क्षमता रखता है..फिर प्रेम करने की योग्यता विवाह के बाद ही क्यूँ? आज की स्त्री इतना बल रखती है कि खुद को सुदृढ़ करने के संग एक पूरा परिवार, एक व्यवसाय सब कुछ सँभालने की क्षमता रखती है. तो प्रेम के मामले में वो अबला कैसे हो सकती है? शक्ति के देश में आज स्त्री पुरुषों का साथ देती है. शिव के अर्धनारीश्वर का रूप तो अब प्रबल हुआ है. स्त्रीत्व एवं पुरुसत्व का सही चिन्ह तो आज के युग में आया है. आज दोनों उतने ही प्रबल हैं जितने शिव –पार्वती या रति-कामदेव के छवि. कामदेव गर शक्तिशाली हैं, परिपक्व हैं, नितिसंगत हैं, तो रति भी कम नहीं. आज रति को भी उंच-नीच का ज्ञान है, न्याय अन्याय का ज्ञान है, फिर आज रति और कामदेव के मिलन पर विवाह का बंधन क्यूँ?
आज के इस युग में, हम नहीं मानते प्रेम की कोई वैवाहिक योग्यता से बांधना एक सूझ है. प्रकृति के हैं हम, तो प्रकृति के बनाये नियमों को माने. अपने शरीर के संरचना, शरीर के वेग, शरीर के मुरादों की यथाशक्ति सूझबुझ से आदर करें, न कि इन्सानों के बनाये दकियानूसी नियमों को पालन कर खुद कुंठित जीते रहे. इच्छाओं की शक्ति को निर्बल न कर एहसासों से अपने ज़िन्दगी को सीचें, कुछ लम्हे बनाये, कुछ पल जीये. प्रेम को वासना, pre-marital sex के शब्दों से परे करे. प्रेम करे और ज़िन्दगी जीए. डायरी के पन्नों में दबे सूखे से एहसास, हासिये से बंधी पन्ने और पन्नों पर भीगी अक्षरें धुल की परतों सी रह जाती हैं. अपने आप को मिथ्या नियमों से मुक्त करे और प्रेम करें.
CREDITS |
“बाँहों को बाँहों से
नैनों को नैनों से
सांसों को सांसों से
लबों को लबों से
तन को तन से
प्रेम को प्रेम से
सजने-सजाने के अरमान संजोती रही
सही-गलत का वास्ता दिखा
तुम मुझे इस फुल सी बहला गए....
....love this moment of togetherness today…
wish we could love and make this moment special one in our lives…. ”
MY SKETCH |
न जाने कितने गुलाब के फुल यूँ ही डायरी के हासिये में बंद हो जाती होंगी. कितने एहसास खिलने से पहले ही बंद किताबों में दब जाती होंगी. जीवन के अनेकों लम्हे कभी मिट जाते हैं तो कभी मिटा दिए जाते हैं. कभी संस्कारों के नाम पर लम्हों का बलिदान, कभी समाज के नाम कुर्बानी. लम्हों को हम समय का प्रसाद समझ क्यूँ नहीं जी पाते. पूरी तरह जी जाने का नाम ही तो ज़िन्दगी है. प्रकृति की भेंट को हम स्वरचित नियमों से क्यूँ नकार जाते हैं? कई बार इस पर विचार किया था और हर बार नकारात्मक सा उत्तर ही मिलता. प्रकृति का गर कोई विरोध होता तो वो हमे भेंट ही क्यूँ करती. स्त्री-पुरुष की संरचना प्रकृति ने तो बहुत सोच समझ के किया होगा. माँ के गर्भ से निकलना, देह का नश्वर हो जाना, शरीर में आत्मा की संरचना, बालपन की अठखेलियाँ, यौवन का वेग, सब कुछ तो प्रकृति की अवतार ही तो है, प्रतिबिम्ब ही तो है हैं, तो फिर हमें उनके रूप का विरोध क्यूँ?
योग एवं वात्स्यायन के देश में प्रेम पर आप्त्ति : खुद पर शंका, खुद पर विरोध का आभास ही तो है. प्रेम के विशाल विषय को दो टुक में कह जाने की क्षुद्र प्रवृति आज के भागती दौड़ती ज़िन्दगी के चिन्हमात्र हैं. वात्स्यायन प्रेम के चिन्ह, कामसूत्र के कई अध्याय चुम्बन, आलिंगन, स्पर्श आदि की जगह पश्चिमी शब्द “सेक्स” ने ले लिया है. कई कलाओं से बधित इस कला को अब सिर्फ “स्खलन” से बाँध दिया गया है. “सेक्स” शब्द इतना शंकिर्ण है जैसे कुरेद कर मक्खन निकालना ही धेय्य मात्र रह गया हो. प्रकृति के नायाब अविष्कार, शरीर की तो कोई अब समझ भी नहीं रखता, चरम शिखर तक पहुच जाना ही धेय्य है. यौवन में शरीर का खिल उठना, हर अंग का संवेदनशील हो जाना, स्पर्श मात्र से शरीर का चहक उठना, एक भेंट ही तो है प्रकृति का. हर एक समय के लिए प्रकृति ने नियम बाँध रखी है, फिर यौवन के इस भेंट को स्वीकारने का विरोध क्यूँ?
आधुनिक समाज का परिवर्तन, दौड़ भाग की भौतिकवादी ज़िन्दगी आज हमें सिर्फ दौड़ना ही सिखाती हैं. इस भागमभाग में हम इन्सानों ने ना जाने कितने नियम बना लिए हैं, कि रुक कर दो पल जीना भी भूल गए हैं. हमने अपने आप को समाज में ढाल तो लिया, पर बदले में नियमों के झड़ी लगा ली. प्रेम करना भी अब नियमों में बंध गए. प्रेम का एहसास कभी समाज के ठेकेदारों से डर के, तो कभी किसी और के विरोध से डर कर खुद की मौत में मरने लगे हैं. अब ठेकेदारों का कहना है प्रेम सिर्फ विवाह के बंधन में बंधने का नाम रह सा गया है. विवाह से पूर्व और विवाह के अलावा प्रेम वर्जित है. ये ठेकेदारों ने जब नियम बनाये होंगे तो वो खुद जरूर या तो प्रेम से ओतप्रोत होंगे या वियुक्त. प्रेम में पड़ा इन्सान ऐसे नियम नहीं बनाता. हम ऐसे नियम नही मानते, प्रेम ईश्वर का वरदान है और प्रकृति की देन. ज़िन्दगी का क्या भरोसा आज हम हैं कल नहीं. फिर इस जीवन को क्यूँ न जीए?
आधुनिक भागमभाग में पहले शिक्षा की दौड़, फिर नौकरी की. नौकरी जब कुछ संभल जाए तो ही विवाह की बातें सम्भव हैं. इस दौड़ में ज़िन्दगी की दौड़ एक तिहाई तक तो दौड ही जाती है या यूँ कहिये जवानी आधी निकल ही जाती है. ठेकेदारों की बात सुने तो जीने को सिर्फ आधी जवानी ही रह जाती है. फिर समय की कमी. कहाँ हम जी पाते हैं कुछ भी पल. ज़िन्दगी की गणित में जवानी का तो कोई मोल ही नहीं रहा. लोगों का कहना माने तो विवाह से पूर्व प्रेम, वासना है, lust हैं. शकिर्ण दिमाग की शकिर्ण सोच. सिक्के के दो पहलु की भांति, जब आप प्रेम हैं तो सब सही, नहीं तो सभी गलत. ये तो देखने भर का नजरिया है कब प्रेम, प्रेम रहे कब वासना बन जाए. एक बार एक ठेकेदार ने कहा जवानी के जोश में प्रेम से लोग भटक जाते हैं. परिपक्वता नहीं रहती. बहुत हँसे थे हम. विवाह करते ही परिपक्वता कैसे जन्म ले लेती है कि सब कुछ उचित हो जाता है. विवाह महज एक बंधन का प्रतिक ही तो है. गर विवाह बंधन की गारंटी है, तो भागती इस ज़िन्दगी में ज़िन्दगी का ही कोई मोल नहीं, तो गारंटी किस बात की. विवाहित होना प्रेम करने की योग्यता कैसे हो गयी?
आज स्त्री हो या पुरुष, सभी पढ़े लिखे हैं. स्कूल, कॉलेज, मीडिया, टीवी, अखबार सभी ने अपने तरफ से योगदान कर आज के समाज को इतना ज्ञान दे चुके हैं कि स्कूल में भी पढ़ रहा बच्चा अपने जीवन की दिशा देखता है, कहाँ जाना है ढूँढता है. कॉलेज से पास हुआ नहीं की करोडो के व्यवसाय चलाता है, मंगल तक यान भेजने की क्षमता रखता है, बड़ी से बड़ी आविष्कार करने की क्षमता रखता है..फिर प्रेम करने की योग्यता विवाह के बाद ही क्यूँ? आज की स्त्री इतना बल रखती है कि खुद को सुदृढ़ करने के संग एक पूरा परिवार, एक व्यवसाय सब कुछ सँभालने की क्षमता रखती है. तो प्रेम के मामले में वो अबला कैसे हो सकती है? शक्ति के देश में आज स्त्री पुरुषों का साथ देती है. शिव के अर्धनारीश्वर का रूप तो अब प्रबल हुआ है. स्त्रीत्व एवं पुरुसत्व का सही चिन्ह तो आज के युग में आया है. आज दोनों उतने ही प्रबल हैं जितने शिव –पार्वती या रति-कामदेव के छवि. कामदेव गर शक्तिशाली हैं, परिपक्व हैं, नितिसंगत हैं, तो रति भी कम नहीं. आज रति को भी उंच-नीच का ज्ञान है, न्याय अन्याय का ज्ञान है, फिर आज रति और कामदेव के मिलन पर विवाह का बंधन क्यूँ?
आज के इस युग में, हम नहीं मानते प्रेम की कोई वैवाहिक योग्यता से बांधना एक सूझ है. प्रकृति के हैं हम, तो प्रकृति के बनाये नियमों को माने. अपने शरीर के संरचना, शरीर के वेग, शरीर के मुरादों की यथाशक्ति सूझबुझ से आदर करें, न कि इन्सानों के बनाये दकियानूसी नियमों को पालन कर खुद कुंठित जीते रहे. इच्छाओं की शक्ति को निर्बल न कर एहसासों से अपने ज़िन्दगी को सीचें, कुछ लम्हे बनाये, कुछ पल जीये. प्रेम को वासना, pre-marital sex के शब्दों से परे करे. प्रेम करे और ज़िन्दगी जीए. डायरी के पन्नों में दबे सूखे से एहसास, हासिये से बंधी पन्ने और पन्नों पर भीगी अक्षरें धुल की परतों सी रह जाती हैं. अपने आप को मिथ्या नियमों से मुक्त करे और प्रेम करें.
Enjoy the feeling of being in love… practice love making…
listen to
reflections of sensuality in love….
Be in Love…
love is not about making yourself happy…
it’s more of giving the joy to
your partner with all the love….
Practice the art of safe love…and keep loving
written for : indiblogger contest:YES or NO to Pre-Marital Sex
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लिखना कभी मेरी चाहत न थी..कोशिश की कभी जुर्रत न थी
शब्दों के कुछ फेर की कोशिश ---यूं कोई सराह गया कि
लिखना अब हमारी लत बन गयी...
-------- दो शब्द ही सही,, आपके शब्द कोई और करिश्मा दिखा जाए--- Leave your comments please.