May 26, 2011

वाल्मीकि कहाँ हो तुम

भागते भागते कभी मन उदास हो उठता है और सोचता हूँ की क्यूँ इतना भागता हूँ कभी कभी जवाब भी मिल जाती है. कभी परिवार, कभी ऐशो आराम, कभी बैंक बैलेंस की लोभ मैं आदमी को भागना ही पड़ता है . पर यदि जीवन की अंतिम पड़ाव एक सुखी लकडियों की सेज है और संचय के नाम पर दान के रूप मैं मिली हुई घी और दूसरों की खरीदी हुई आग है तो ... इतना हम क्यूँ दौड़ते है. मन की इसी व्यथा को कभी हमने शब्दों मैं ढलने की कोशिश की थी पर कोई काव्य तो नहीं बनी, पर मन के भावों को शब्दों मैं लपेट सका.. इन्ही शब्दों की प्रस्तुति ....भावों को समझाने की कोशिस.......

वाल्मीकि कहाँ  हो तुम

एक दशक के अंत पर
जीवन की इस डगर मैं
बैठा सोच रहा,
क्यूँ भाग रहा हूँ
क्यूँ भागता रहा मैं
अपने, तो कभी पराये
ख्वाबों के पीछे ।

कभी चंद से सिक्कों के लोभ में
कभी प्यार, तो कभी दुलार की खोज में,
क्यूँ भाग रहा मैं, अनंत सी दौड़ में,
कौन है साथ, किसके लिए?
पीरो रहा आज मैं
उँगलियों के निर्जीव माला पिरोये
बन आज एक उंगलीमाल

May 25, 2011

शिव : विद्रोह कब होगा


आज सबेरे बड़ी देर से उठा, चाय भी नहीं पी थी घर मैं, क्यूंकि घर पर कई दिनों से हड़ताल सा था. नाराज़गी से गृह-राष्ट्र में हड़ताल का माहौल सा था. राष्ट्र के वित्त एवं मनोरंजन मंत्री यानि कि हम से राष्ट्रपत्नी का संवेदनशील मसलों पे मतभेद चल रहा था. और खामियाजा हमे भुगतना भी पड़ रहा था. खैर, सो तो होना ही था. सबेरे की  चाय हमे वैसे मिलती तो नहीं थी कभी, खुद ही बनानी पड़ती थी, सो आज भी नहीं मिली थी. पर, आज इस बात का दुःख हो रहा था कि हमने घर पे चाय नहीं मिली. सो, चौपाल पर आते वक्त हमने ददुआ चाचा के यहाँ से कागज के कप में चाय भरवा ली थी और लेते आये. चौपाल पहुंचे तो देखे कई लोग पहले से ही मौजूद थे. मीठू बाबु, मद्रासी भाई, रामदिन चाचा, सब मौजूद थे. हमे देखते ही राम राम आशू बाबु के बोल निकलने लगे. ठंडी पड़ी मनोस्थाली थोड़ी हलचल में आ गयी. मुस्कुरा कर हमने भी सबको अभिवादन कर पुछ  ही लिया रामदीन काका से. काका का बात है काकी आज कल छोड़ नहीं रही या हम से मन मुटाव हो गया है, जो चौपाल पर नज़र ही नहीं आते? रामदीन काका बोले बिटवा सब घरवा के एके सुर होयितयी. जहवां देख तोर काकी नीयन सबे बईठल हई. कोनो न कोनो बतवा पे तुनक जात हई. का बताय कहे नहीं आवत हैं इहवा.  सब सुनकर रामदीन काका कि बात पर हसने लगे. मीठू बाबु और मद्रासी बाबु लगे हुए थे गहन विवेचना में. पूछे उनसे क्या बात है भाई बड़े गहन भाव से बातें चल रही हैं? क्या मुद्दा है? मिट्ठू बाबु को तो बस मौका ही चाहिए था, बोलना शुरू कर दिए.  की  बोलबो आशू बाबु, जे दिके देखो उधर में राजनीती में झामेला है. लीबिया में राष्ट्रपति को उखाड फेंका, उसके बाद से सोब जाएगा में एक टार पोर एकटा जायेगा में रेवोल्युशन चालू हो गया. सोब पूराना राजनेता को  लोक जे निजेयी खारा किया था अब उसके पीछे पड़ के उसको गिराना चाहता है. सोब जाएगा कोथाये थेके एतो एनार्जी आया. अमार जायेगा में भी पोरिवोर्तन चाई बोले बुद्धोबाबु को भी हरा दिया. अमादेर बामपोंथी दोल को भी निकाल दिया. कि बोलबो भालो लागे न.... चलते गयी चलते गयी उनकी राजनैतिक ज्ञान और हम सुनते रहे सुनते रहे.... मीठू बाबु रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे बड़े खफा से थे राजनैतिक उथल पुथल से.  धीरे धीरे लोगों ने काटना शुरू किया और निकल पड़े . खफा हुए मीठूबाबु भी चले गए. हम चाय की  चुस्कियों को मजा ले चुके थे. ददुआ चाचा को आवाज़ दी को कलुआ के हाथों गरम चाय भिजवा दिए.सोचे की चलो अब शांति मन से चाय कि चुस्की ले ली जाए राजनेतिक उथल पुथल से हमे क्या करना.

May 15, 2011

जादू की झप्पी

नींद खुली तो देखा हर रोज़ की तरह सूरज की लालिमा चुपके से खिडकियों से झांकती पास के दिवार को इंगित कर रही थी. अलसाया से मैं उठा और निकल पड़ा  अपनी दिनचर्या पर. दो चार चक्कर बागीचे में, और फिर थोड़ी पहलवानों  सा   दंड पेल आ गया था मैं अपने सबसे पसंदीदा जगह पर.. अरे भाई वही चौपाल पर. आज कोई नहीं आये थे. न तो बंगाली बाबु न ही मद्रासी, मिनी जी का तो कोई आता पता ही नहीं था. बस वहीँ बैठ सूरज के किरणों से दो चार नैन मटकके  हुए. अपने मन ही मैं कई बातें जमे पड़े थे जो उथल पुथल रहे थे. यूँ ही बैठा था की दूर से मिट्ठू बाबु आते दिखे. चाल पर बड़ी तेज़ी  थी शायद खुश थे. बड़े ही साधारण सा व्यक्तित्व था उनका जो दिल मैं आता वो चेहरे पर झलक आती. आते ही बोल पड़े क्या "आशु बाबु, केमोन आछेन."   हमने कहा "बस यूँ ही. क्या बात है आप बड़े खुश हैं आज. मिजाज़ में लग रहे हैं. "  कहने लगे, " मत पूछिये, सबेरे सबेरे आपकी बोउ दी ने हमे खुश कर डाला. उन्हें पता चला कहीं से कि अँगरेज़ लोग आज कल HUGGING DAY मनाते हैं. 

May 10, 2011

चौपाल --- प्रथम शब्द

लिखने की उन्होंने हमे यूँ उसकाया की अब लिखने मैं आनंद सा आने लगा. भले कोई ख़ास नहीं लिख पाते पर एक लत सी लगने लगी है. हर वक़्त ढूँढता हूँ कुछ लिख जावू. कभी कुछ रुमानियाँ, कभी दर्द तो कभी कुछ,  तीन शब्दों मैं अपने मन की भड़ास निकाल ही लिया करता हूँ. कुछ दिनों से  हम सोच रहे थे की अपनी बातें ही लिखना शुरू करू जैसे आत्म कथा लिखी जाती है. पर, लेखनी मैं ऐसी कोई दम नहीं थी. सो, हमने सोचा की क्यूँ न अपनी चौपाल पर घटते कथा को लेखनी मैं बदलना शुरू करू. कोई आत्म कथा नही पर संस्मरण तो हो ही सकता है. 

चौपाल ?