भागते भागते कभी मन उदास हो उठता है और सोचता हूँ की क्यूँ इतना भागता हूँ कभी कभी जवाब भी मिल जाती है. कभी परिवार, कभी ऐशो आराम, कभी बैंक बैलेंस की लोभ मैं आदमी को भागना ही पड़ता है . पर यदि जीवन की अंतिम पड़ाव एक सुखी लकडियों की सेज है और संचय के नाम पर दान के रूप मैं मिली हुई घी और दूसरों की खरीदी हुई आग है तो ... इतना हम क्यूँ दौड़ते है. मन की इसी व्यथा को कभी हमने शब्दों मैं ढलने की कोशिश की थी पर कोई काव्य तो नहीं बनी, पर मन के भावों को शब्दों मैं लपेट सका.. इन्ही शब्दों की प्रस्तुति ....भावों को समझाने की कोशिस.......
वाल्मीकि कहाँ हो तुम
एक दशक के अंत पर
जीवन की इस डगर मैं
बैठा सोच रहा,
क्यूँ भाग रहा हूँ
क्यूँ भागता रहा मैं
अपने, तो कभी पराये
ख्वाबों के पीछे ।
कभी चंद से सिक्कों के लोभ में
कभी प्यार, तो कभी दुलार की खोज में,
क्यूँ भाग रहा मैं, अनंत सी दौड़ में,
कौन है साथ, किसके लिए?
पीरो रहा आज मैं
उँगलियों के निर्जीव माला पिरोये
बन आज एक उंगलीमाल
वाल्मीकि कहाँ हो तुम
एक दशक के अंत पर
जीवन की इस डगर मैं
बैठा सोच रहा,
क्यूँ भाग रहा हूँ
क्यूँ भागता रहा मैं
अपने, तो कभी पराये
ख्वाबों के पीछे ।
कभी चंद से सिक्कों के लोभ में
कभी प्यार, तो कभी दुलार की खोज में,
क्यूँ भाग रहा मैं, अनंत सी दौड़ में,
कौन है साथ, किसके लिए?
पीरो रहा आज मैं
उँगलियों के निर्जीव माला पिरोये
बन आज एक उंगलीमाल